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हिंदी के धर्मयोद्धा और इंग्लिश-हिंदी शब्दकोष के रचयिता थे डॉ कामिल बुल्के

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New Delhi: विदेशी विद्वानों के भारत से प्रभावित होने की लंबी परंपरा रही है, जिनमें कई चीनी, अरबी, फारसी और योरपीय यात्री शामिल हैं। ऐसे ही एक यात्री थे फादर कामिल बुल्के, जो भारत आए तो यहीं के हो गए और हिन्दी के लिए वह काम कर गए, जो शायद कोई हिन्दुस्तानी भी नहीं कर सकता था।  

आज हम 'अंग्रेजी हिंदी कोश' के लेखक, हिंदी के विद्वान और समाजसेवी फादर कामिल बुल्के की 108वीं जन्म वर्षगांठ मना रहे हैं। फादर कामिल बुल्के का जन्म बेल्जियम के रैम्सचैपल में 1 सितंबर 1909 को हुआ और फ्लैंडर के निवासी थे। फादर कामिल बुल्के एक ऐसे विद्वान थे जो भारतीय संस्कृति और हिंदी से जीवन भर प्यार करते रहे, एक विदेशी होकर नहीं बल्कि एक भारतीय होकर। बाबा बुल्के भारत आकर मृत्युपर्यंत हिन्दी, तुलसीदास और वाल्मीकि के भक्त रहे। 

बेल्जियम में जन्मे बुल्के की कर्मस्थली झारखंड की राजधानी राँची में उनके कृतित्व और व्यक्तित्व को लेकर इस हफ्ते विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन कर हिंदी के इस साधक को याद किया गया। राँची स्थित सेंट जेवियर्स कॉलेज में बुल्के ने वर्षों तक हिंदी का अध्यापन किया। 

रामकथा के महत्व को लेकर बुल्के ने वर्षों शोध किया और देश-विदेश में रामकथा के प्रसार पर  प्रामाणिक तथ्य जुटाए। उन्होंने पूरी दुनिया में रामायण के करीब 300 रूपों की पहचान की। रामकथा  पर विधिवत पहला शोध कार्य बुल्के ने ही किया है जो अपने आप में हिंदी शोध के क्षेत्र में एक मानक है।

बुल्के ने हिंदी प्रेम के कारण अपनी पीएचडी थीसिस हिंदी में ही लिखी। जिस समय वे इलाहाबाद में शोध कर रहे थे उस समय देश में सभी विषयों की थीसिस अंग्रेजी में ही लिखी जाती थी। उन्होंने जब हिंदी में थीसिस लिखी जाने लगी।  उन्होंने एक जगह लिखा है, 'मातृभाषा प्रेम का संस्कार लेकर मैं वर्ष 1935 में राँची पहुँचा और मुझे यह देखकर दुख हुआ कि भारत में न केवल अंग्रेजों का राज है बल्कि अंग्रेजी का भी बोलबाला है। मेरे देश की की भाँति उत्तर भारत का मध्यवर्ग भी अपनी मातृभाषा की अपेक्षा एक विदेशी भाषा को अधिक महत्व देता है। इसके प्रतिक्रिया स्वरूप मैंने हिंदी पंडित बनने का निश्चय किया।'  

विदेशी मूल के ऐसे कई अध्येता हुए हैं जिन्हें इंडोलॉजिस्ट या भारतीय विद्याविद् कहा जाता है। उन्होंने भारतीय भाषा, समाज और संस्कृति को अपने नजरिए से देखा-परखा। लेकिन इन विद्वानों की दृष्टि ज्यादातर औपनिवेशिक रही है और इस वजह से कई बार वे ईमानदारी से भारतीय भाषा, समाज और संस्कृति का अध्ययन करने में चूक गए। बुल्के ने भारतीय साहित्य और संस्कृति को उसकी संपूर्णता में देखा और विश्लेषित किया।  

इंजीनियरिंग की दो वर्ष की पढ़ाई पूरी कर वे वर्ष 1930 में गेन्त के नजदीक ड्रॉदंग्न नगर के जेसुइट धर्मसंघ में दाखिल हो गए। जहाँ दो वर्ष रहने के बाद आगे की धर्म शिक्षा के लिए हॉलैंड के वाल्केनबर्ग के के जेसुइट केंद्र में भेज दिए गए। यहाँ रहकर उन्होंने लैटिन, जर्मन और ग्रीक आदि भाषाओं के साथ-साथ ईसाई धर्म और दर्शन का गहरा अध्ययन किया।

वाल्केनबर्ग  से वर्ष 1934 में जब बुल्के लूवेन की सेमिनरी में वापस लौटे तब उन्होंने देश में रहकर धर्म सेवा करने के बजाय भारत जाने की अपनी इच्छा जताई। वर्ष 1935 में वे भारत पहुँचे जहाँ पर उनकी जीवनयात्रा का एक नया दौर शुरू हुआ। शुरुआत में उन्होंने दार्जिलिंग के संत जोसेफ कॉलेज और गुमला के एक मिशनरी स्कूल में विज्ञान विषय के शिक्षक के रूप में काम करना शुरू किया। लेकिन कुछ ही दिनों में उन्होंने महसूस किया कि जैसे बेल्जियम में मातृभाषा फ्लेमिश की उपेक्षा और फ्रेंच का वर्चस्व था, वैसी ही स्थिति भारत में थी जहाँ हिंदी की उपेक्षा और अंग्रेजी का वर्चस्व था।   

वर्ष 1947 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से उन्होंने हिंदी साहित्य में एमए किया और फिर वहीं से 1949 में रामकथा के विकास विषय पर पीएचडी किया जो बाद में 'रामकथा: उत्पत्ति और विकास' किताब के रूप में चर्चित  हुई। राँची स्थित सेंट जेवियर्स कॉलेज के हिंदी विभाग में वर्ष 1950 में उनकी नियुक्ति विभागाध्यक्ष पद पर हुई। इसी वर्ष उन्होंने भारत की नागरिकता ली। 

वर्ष 1968 में अंग्रेजी हिंदी कोश प्रकाशित हुआ जो अब तक प्रकाशित कोशों में सबसे ज्यादा प्रामाणिक माना जाता है। मॉरिस मेटरलिंक के प्रसिद्ध नाटक 'द ब्लू बर्ड' का नील पंछी नाम से बुल्के ने अनुवाद किया। छोटी-बड़ी कुल मिलाकर उन्होंने करीब 29 किताबें लिखी। भारत सरकार ने 1974 में उन्हें पद्मभूषण दिया। दिल्ली में 17 अगस्त 1982 को गैंग्रीन की वजह से उनकी मौत हुई।  

डॉ कामिल बुल्के हिंदी के धर्मयोद्धा और संत साहित्यकार थे इंग्लिश-हिंदी शब्दकोष के रचयिता थे। बाइबिल का हिंदी में अनुवाद उनके महान कार्यों का बखान करती है। एक ईसाई धर्मसंघी, वो भी मूल रूप से बेल्जियम का व्यक्तित्व और तुलसीदास के प्रति प्रेम और उनको समझने के लिए हिंदी, संस्कृत, अवधी भाषाओं का अध्ययन कर जाना एक अनूठा वाकया है। इस महान स्मृति के जीवन के अंश समेटे है रांची स्थित मनरेसा हाउस, जहां काम करने के लिए उन्हें नियुक्त किया गया। उन्होंने हिंदी बाइबल का अनुवाद अारंभ किया। इसकी विशेषता थी कि यह हाथों से लिखी गयी। ग्रीक, लैटिन जैसी तीन-चार भाषाओं के पुस्तक से एक एक शब्दों का मिलान करते हुए लिखी गयी। यह सर्वसाधारण के समझ की पुस्तक थी।

उनकी मृत्यु 17 अगस्त 1982 को दिल्ली में हुई। बुल्के आजीवन हिन्दी की सेवा में जुटे रहे। हिन्दी-अँगरेजी शब्दकोश के निर्माण के लिए सामग्री जुटाने में वे सतत प्रयत्नशील रहे। आज उनका शब्दकोष सबसे प्रामाणिक माना जाता है।



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