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न्यायिक क्षमता में सुधार हेतु हिंदी समेत भारतीय भाषाओं का व्यापक प्रयोग आवश्यक

  • भाषाओं को लेकर जो समस्यायें न्याय पाने वालों को पेश आती है, वह कई रूपों में है.
  • निचली अदालतों में 4 करोड़ से ज्यादा मामले लंबित हैं, जो अपने आप में एक रिकॉर्ड है.
Indian Judicial System and Hindi and other Indian Languages

लेखक: मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली 
Published on 3 May 2022 (Last Update: 3 May 2022, 11:59 PM IST)

यह स्वयंसिद्ध तथ्य है कि कोई भी राज्य तभी सुखी हो सकता है, तभी संपन्न हो सकता है, जब उसकी न्याय व्यवस्था सुदृढ़ हो.
चूंकि समाज में रहते हुए एक व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह के बीच में विवाद होते ही रहते हैं, टकराव होते ही रहते हैं, किंतु अगर न्याय व्यवस्था चुस्त-दुरुस्त ना हो, तो यह टकराव असीमित कलह पैदा करते हैं. यह कलह धीरे-धीरे किसी भी समाज को, किसी भी राज्य को खोखला कर देती है, और अंततः मनुष्य बिखर जाता है. इसका प्रभाव न केवल वर्तमान, बल्कि भावी पीढ़ियों पर भी उतना ही पड़ता है. ऐसी स्थिति में बहुत आवश्यक है कि न्याय क्षमता में उत्तरोत्तर वृद्धि करते रहा जाए, न्यायिक क्षमता में क्रमिक सुधार जारी रखा जाए. 

इसी क्रम में भारत भर के तमाम मुख्यमंत्रियों - न्याय मंत्रियों एवं हाई कोर्ट के न्यायाधीशों का दिल्ली के विज्ञान भवन में हो रहा सम्मेलन गौर करने लायक है. इस सम्मेलन में चीफ जस्टिस आफ इंडिया जस्टिस एनवी रमन्ना ने एक बात बड़ी ही स्पष्ट ढंग से कही है, और वह है कि "हर एक को अपनी लक्ष्मण रेखा का ध्यान रखना होगा और यही वह मंत्र है, जिसके फलस्वरूप कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के अधिकारों के बीच में टकराहट नहीं होगी."
इसके अलावा मुख्य न्यायाधीश ने पीआईएल को भी व्यक्तिगत हितों हेतु दुरूपयोग पर चिंता जताई.जाहिर तौर पर अगर चीफ जस्टिस इस बात को कह रहे हैं, तो उनकी बात में ध्यान देने वाले कई तत्व भी उतनी ही मजबूती से विद्यमान हैं, पर सबसे महत्वपूर्ण आकर्षण रहा इस सम्मेलन में प्रधानमंत्री का संबोधन!

और वह संबोधन आम जनता तक न्याय पहुंचाने के बारे में बेहद सटीक ढंग से बात करता है.
जी हां! न्यायालयों का जजमेंट जब तक लोकल भाषाओं में नहीं आएगा, जब तक न्याय लोकल भाषा में नहीं मिलेगा, तब तक आम जनमानस के समझ में न्याय आएगा भी तो आखिर कैसे?
तमाम न्यायिक कार्रवाइयों को हिंदी समेत अन्य भाषाओं में उपलब्ध कराये जाने का प्रधानमंत्री का स्वर वर्तमान न्याय-व्यवस्था को समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुंचाने में निश्चित ही बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा, इस बात में दो राय नहीं है. भाषाओं को लेकर जो समस्यायें न्याय पाने वालों को पेश आती है, वह कई रूपों में है. यह तब जाहिर होता है, जब कोई आम व्यक्ति न्यायालय के दरवाजे पर पहुंचता है. न्यायालय में अगर आपको कोई डॉक्यूमेंट सबमिट करना हो, कोई रिकॉर्डिंग सबमिट करना हो, तो उसकी ट्रांसक्रिप्ट तक आपको इंग्लिश में सबमिट करनी पड़ती है, तभी वह सबूत के तौर पर मान्य होता है, अन्यथा उसकी कोई अहमियत नहीं होती है.

इस तरह के एक नहीं, अनेकों उदाहरण हैं, जहां न्याय व्यवस्था अंतिम व्यक्ति तक नहीं पहुंच पाती है, और अंततः लोग न्याय से वंचित रह जाते हैं. वास्तव में यह बात कैसे मानी जा सकती है कि कोई एक हिंदीभाषी, या अन्य भारतीय भाषाओं में रमा व्यक्ति, जिसने अपना संपूर्ण जीवन अपनी मातृभाषा में संवाद करने में बिता दिया हो, अगर उसे न्याय प्रक्रिया में किसी कारणवश जाने की आवश्यकता पड़ती भी है, तो वह अंग्रेजी में उन बातों को आखिर किस प्रकार कह पाएगा - किस प्रकार समझ पाएगा?

बहरहाल इतने बड़े मंच पर इतने ओपन ढंग से की जाने वाली चर्चा ने आम जनमानस का भी ध्यान अपनी ओर निश्चित ही खींचा है. देश भर के चीफ मिनिस्टर, लॉ मिनिस्टर एक मंच पर न्यायाधीशों के साथ संवाद कर रहे हैं, तो इसका असर निश्चित रूप से प्रभावकारी साबित होने वाला है.

देखा जाए तो हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में न्याय उपलब्ध कराने की अपील के अलावा भी इस सम्मेलन की अन्य कई उपलब्धियां भी रहीं. जैसे ई-कोर्ट! इसने कोरोना जैसे पीरियड में भी न्याय उपलब्धता सुगम कराने में अपना महत्वपूर्ण रोल प्ले किया है. साथ ही न्याय-व्यवस्था में तमाम आधुनिक तकनीकों के माध्यम से त्वरित गति देने के लिए भी हमारी न्याय प्रणाली तैयार नजर आती है. हां! उसमें निश्चित रूप से कुछ सुधार की भी गुंजाइश है, और वह सुधार तभी होगा, जब कार्यपालिका द्वारा भी उतनी ही तत्परता दिखाई जाएगी.
उदाहरण के लिए देखा जाए तो, अगर जजों के खाली पदों पर नियुक्ति सालों साल लटकी रहेगी, न्यायाधीशों की कुर्सियां सालों साल खाली रहेंगी, तो यह भला किस प्रकार से उम्मीद किया जा सकता है कि न्याय देने में विलंब नहीं होगा?
इस बात को चीफ जस्टिस ऑफ़ इंडिया द्वारा मजबूती से उठाया भी गया.इस बात को वर्तमान सरकार को भी निश्चित ही समझना होगा, और इसके लिए आवश्यक है कि न्यायपालिका को, उसके संसाधनों को तीव्र गति से दुरुस्त रखा जाए, और तभी हम न्याय आधारित एक सक्षम - सभ्य समाज का निर्माण कर सकते हैं, जो न केवल हमारी वर्तमान पीढ़ी, बल्कि भावी पीढ़ी को भी एक मजबूत आधार प्रदान कर सकती है.

आखिर निचली अदालतों में 4 करोड़ से ज्यादा मामले लंबित हैं, जो अपने आप में एक रिकॉर्ड है. मुख्य न्यायाधीश ने इस सम्मेलन में स्पष्ट कहा कि भारतीय अदालतें जजों की कमी से जूझ रही हैं. उन्होंने कहा, "दस लाख लोगों पर हमारे पास 20 जज हैं, जो बढ़ती मुकदमेबाजी को संभालने के लिए नाकाफी हैं.”

इस बात को कानून मंत्री किरेन रिजेजू ने भी स्वीकार किया था, जब उन्होंने लोकसभा को बताया था कि, "अदालतों में मामलों का समय पर निपटारा बहुत सारी बातों पर निर्भर करता है. इनमें जजों और अन्य न्यायिक अधिकारियों की समुचित संख्या, आधारभूत ढांचा, तथ्यों की जटिलता, सबूतों की उपलब्धता, पक्षों का सहयोग और नियम व प्रक्रियाओं का पालन आदि शामिल हैं.”

जाहिर तौर पर अगर अदालतों को समुचित संसाधन मिले एवं अदालतों लोकल भाषाओं में समाज के अंतिम व्यक्ति तक न्याय पहुँचाने का प्रयत्न करें, तो कोई कारण नहीं कि भारतीय न्याय व्यवस्था समूचे विश्व में एक उदाहरण बन जाएगी.

लेखक: मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली 

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