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... ये बता कि "काफिला" क्यों लुटा और आगे क्या? Employment Generation, Hindi Article, NDA, UPA and Modi Government



बड़ा पुराना शेर है कि 'तू इधर उधर की बात न कर, ये बता कि काफिला क्यों लुटा'? इस शेर को यूपीए शासनकाल के दौरान नेता प्रतिपक्ष रहीं सुषमा स्वराज ने मनमोहन सरकार को घेरने में किया था, तो उनसे भी पहले युवा तुर्क के नाम से मशहूर पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने तब किया था, जब राजीव गाँधी प्रधानमंत्री पद पर विराजमान थे! संभव है दूसरों ने भी कही हो, किन्तु मूल बात यही है कि "काफिला क्यों लुटा"?
बीते कई दशकों के गठबंधन उथल-पुथल वाले दौर के बाद नरेंद्र मोदी के नाम पर भारतीय जनता पार्टी को जनता ने बड़ी उम्मीद से पूर्ण बहुमत दिया था. प्रधानमंत्री पद का दायित्व संभालने के बाद नरेंद्र मोदी ने कई सारी योजनाएं भी लाईं, तो भ्रष्टाचार-विरोध के स्तर पर काम करते भी प्रतीत हुए! देश के हित और भ्रष्टाचार विरोध के नाम पर नोटबंदी जैसे कदमों से पूरे देश की जनता को लाइनों में खड़ा भी किया, तो लोगबाग भी तमाम परेशानियों के बावजूद नरेंद्र मोदी की मंशा पर शक नहीं कर रहे हैं, क्योंकि कहीं न कहीं उन्हें प्रतीत हो रहा है कि यह व्यक्ति अन्य राजनेताओं के मुकाबले ज्यादा विश्वसनीयता से कार्य करने का प्रयत्न कर रहा है. हालांकि नोटबंदी से दिन-ब-दिन लोगों के हालात बद से बदतर होते चले गए हैं और एक-एक करके लोगों का धैर्य भी जवाब देता जा रहा है, तो अर्थशास्त्रियों के तमाम तर्क नोटबंदी के विरुद्ध ही जा रहे हैं. बावजूद इसके सरकार तमाम तर्क दे रही है और इस बात पर अड़ी हुई है कि भारतीय अर्थव्यवस्था कैशलेस नहीं तो लेस कैश की ओर जरूर बढ़ेगी, जिससे डिजिटल इकोनॉमी होगी और अंततः टैक्स देने वालों की संख्या में भारी बढ़ोतरी होगी. जहां तक बात कालेधन की है, तो सरकार बैंकों में जमा की गई ढाई लाख (नए निर्देशों के बाद 2 लाख) से ज्यादा रकम पर निगाह गड़ाए हुए है और जमाकर्ताओं से जवाब-तलब की तैयारी भी हो रही है. उम्मीद है कि उसमें से कुछ हद तक ही सही, काले धन का हिस्सा नज़र आएगा. इसके अतिरिक्त नोटबंदी के समर्थन में सरकार का जो तर्क है, वह नकली नोटों के प्रसार पर लगाम और आतंकवाद की फंडिंग पर कुछ हद तक लगाम की भी थी, किंतु जैसे-जैसे मार्केट में नकदी आती जा रही है और यहां वहां छापे में नए नोट पकड़े जा रहे हैं, वैसे इस बात की उम्मीद भी बढ़ गई है कि नए नोट आतंकवादियों और उनके स्लीपर सेल्स के पास भी पहुंच रहे होंगे. Employment Generation, Hindi Article, NDA, UPA, Modi Government, economy, Manmohan Singh, narendra modi, Atal Bihari Vajpayee, infrastructure, development, black money, Currency Ban, 

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कई जगह से नए नकली नोटों की बात भी सामने आई है. हालांकि यह इतने बड़े स्तर पर नहीं है जितना पहले 500 - हजार के नकली नोट हुआ करते थे. इसके अतिरिक्त वित्त मंत्री अरुण जेटली ने देशवासियों को राहत देने की बात जरूर की है, तो बैंकों द्वारा कम टैक्स दरें किए जाने की उम्मीद भी है. पर इन सामान्य बातों और कवायदों से अलग हटकर जो बात सामने आ रही है वह यह है कि "देश में नौकरियां पैदा नहीं हो रही हैं"! यह न केवल नोटबंदी के समय की बात है, बल्कि उससे पहले की जो ढाई साल की मोदी गवर्नमेंट की कवायद हुई है, उस सहित पिछली यूपीए सरकार के 10 साल के कार्यकाल की बात भी है. हाल-फिलहाल यह संकट और बड़ा होता नज़र आ रहा है क्योंकि नोटबंदी से तात्कालिक रूप से लाखों नौकरियां कम होने का अंदेशा सामने आ रहा है, जिस की भविष्यवाणी कई रेटिंग एजेंसियों ने की है. ऐसा नहीं है कि मामले की गंभीरता सिर्फ आम जनमानस को ही समझ आ रही है, बल्कि भारत के राष्ट्रपति माननीय प्रणब मुखर्जी ने खुलकर इस बाबत चिंता जताई है, जिससे सोचने पर मजबूर होना पड़ रहा है कि "काफिला क्यों लुटा"? जी हाँ, राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआईआई) के कौशल विकास प्रशिक्षण केंद्र के वार्षिक समारोह में जोर देते हुए कहा है कि 'नौकरियों का सृजन देश के लिए महत्वपूर्ण है. अगर देश रोजगार उपलब्ध कराने में असमर्थ रहता है तो इससे अशांति और हताशा पैदा होगी'. राष्ट्रपति ने अपने संबोधन में आगे कहा कि, 'दुनिया की दूसरी सबसे अधिक आबादी वाले भारत को रोजगार की कमी के कारण आने वाले सालों में बड़ी चुनौतियों को सामना करना पड़ेगा, क्योंकि देश की आधी आबादी 25 साल से कम उम्र की है.' राष्ट्रपति महोदय की यह चिंता कतई नाजायज़ नहीं है, क्योंकि 'हमारे युवा श्रमशक्ति के पास यदि नौकरी होगी तो वे हमारी परिसंपत्ति होंगे, अन्यथा वह हम पर बोझ होंगे, जिससे अंततः अशांति और हताशा ही पैदा होगी.' हालांकि, खुद प्रणब मुखर्जी पिछली सरकार यूपीए में 10 साल तक सक्रीय रूप से सहभागी रहे हैं और ऐसे में रोजगार की जवाबदेही मात्र ढाई साल में माँगना थोड़ी नाइंसाफी ही होगी. हाँ, जवाबदेही अवश्य मांगी जानी चाहिए, किन्तु मोदी गवर्नमेंट के इस ढाई साल के कार्यकाल के विस्तृत आंकलन के साथ पीछे की सरकारों पर भी संक्षिप्त निगाह अवश्य ही डाली जानी चाहिए. Employment Generation, Hindi Article, NDA, UPA, Modi Government, economy, Manmohan Singh, narendra modi, Atal Bihari Vajpayee, infrastructure, development, black money, Currency Ban, 



हालाँकि, कहने को तो यूपीए सरकार सत्ता से हट चुकी है, किन्तु आर्थिक नीतियां देश को लंबे समय तक प्रभावित करती हैं, ठीक वैसे ही जैसे 'नोटबंदी' का वर्तमान निर्णय दशक भर से ज्यादा समय तक देश की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करता रहेगा! पिछले दिनों डॉ. मनमोहन सिंह का वह लेख काफी चर्चित रहा था, जिसमें उन्होंने सरकार के नोटबंदी के निर्णय पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए उसे रोजगार कम करने वाला कदम बताया था, तो उसके बाद चर्चित विद्वान (आरएसएस पृष्ठभूमि से) एस. गुरुमुर्ती का लेख पढ़ा (15 दिसंबर 2016, दैनिक जागरण), जिसमें उन्होंने यूपीए के दस साल से और 6 साल पीछे, यानी अटल बिहारी बाजपेयी के शासनकाल का ज़िक्र किया है और बड़े तरीके से मनमोहन की यूपीए सरकार को मात्र 27 लाख नई नौकरियां पैदा करने का आरोप लगाया है, जबकि अटल बिहारी की एनडीए गवर्नमेंट को 600 लाख नयी नौकरियाँ पैदा करने का श्रेय दे डाला है. खैर, नौकरियाँ पैदा करने के आंकड़ों पर विवाद हो सकता है, किन्तु लेख में गुरुमूर्ति की कही कई बातें आर्थिक और राजनीतिक दोनों दृष्टि से स्पष्ट रूप से सच हैं. जैसे, संप्रग शासनकाल में सालाना 8.4 प्रतिशत के हिसाब से जीडीपी की वृद्धि दर 50.8 प्रतिशत होने के बावजूद बेहद कम नौकरियाँ पैदा हुईं, तो उसका कारण यही था कि संपत्ति की ऊंची कीमतें, मुद्रास्फीति और उत्पादन में कमी ने उच्च विकास दर के प्रभाव को धूमिल किया था. अपने लेख में गुरुमूर्ति आगे कहते हैं कि "लोगों के पास मौजूद बड़े नोटों का जो प्रतिशत 2004 में 34 था वह 2010 में 79 प्रतिशत तक पहुंच गया और आठ नवंबर 2016 को यह आंकड़ा 87 प्रतिशत था तक था. रिजर्व बैंक ने गौर किया है कि 1000 के नोटों का दो तिहाई और पांच सौ के नोटों का एक तिहाई (जो मिलकर छह लाख करोड़ रुपये है) जारी होने के बाद से कभी बैंकों में नहीं पहुंचा. साफ़ जाहिर है कि बैंकों से बाहर मौजूद यह बड़ी राशि काले धन के रूप में सोने और संपत्तियों में इधर से उधर होती रही. हालाँकि, गुरुमूर्ति अपने लेख में यह नहीं बता पाए कि इस बात की क्या गारंटी है कि अब यह सारे नोट बैंकिंग प्रक्रिया में अनिवार्य रूप से शामिल होंगे ही होंगे? देखा जाए तो दोनों विद्वान अर्थशास्त्री अपने-अपने बचाव के तर्क तो दे रहे हैं, किन्तु यह बताने में साफ़ तौर पर हिचक रहे हैं कि 'काफिला क्यों लुटा'? Employment Generation, Hindi Article, NDA, UPA, Modi Government, economy, Manmohan Singh, narendra modi, Atal Bihari Vajpayee, infrastructure, development, black money, Currency Ban, 

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अटल बिहारी बाजपेयी के शासनकाल में स्वर्ण चतुर्भुज जैसी कुछ मजबूत योजनाएं जरूर शुरू हुईं, जिनसे इंफ्रास्ट्रक्चर पर ज़ोर देने की राह खुली, पर उस दौरान निर्माण और उत्पादन क्षेत्र में कोई बड़ी क्रांति नहीं आयी, तो बड़ी संख्या में नौकरियाँ पैदा होने की बात को यथावत कहाँ से मान लिया जाए! मनमोहन सरकार रोजगार पैदा करने की बजाय मनरेगा जैसी योजनाएं लाने में ज्यादा ज़ोर देती रही, जिससे भ्रष्टाचार की बड़ी राह तो खुली ही, साथ ही साथ बड़ी पूँजी खर्च होने के बावजूद इंफ्रास्ट्रक्चर जस का तस ही रहा. बड़े बड़े घोटालों ने काले धन के प्रवाह को और बढ़ाया तो संपत्तियों की बेहतहाशा बढ़ी कीमतों ने सरकार के प्रभाव को कमतर ही किया. इन सब तर्कों के बावजूद अगर मनमोहन सरकार खुद को नौकरियाँ पैदा करने वाली या नौकरियाँ बचाने वाली सरकार कहती है तो उसे 'हास्यास्पद' ही कहा जायेगा. बात जहाँ तक मोदी सरकार की है तो उसकी असल चुनौतियां नोटबंदी के बाद के प्रभावों से शुरू होती हैं. एक लाइन में अगर कहें तो अगर सरकार अधिक से अधिक लोगों को टैक्स के दायरे में ला पाती है तो आधारभूत सुविधाओं पर खर्च करने के लिए उसके पास ज्यादा राजस्व होगा और जब हमारी आधारभूत संरचनाएं मजबूत होंगी तो हमारे पास ज्यादा से ज्यादा इन्वेस्टमेंट होगी और फिर नौकरियों का सृजन भी होगा. मेक इन इंडिया जैसे प्रोग्राम्स पर केंद्र सरकार ने अवश्य ही जोर दिया है, किन्तु अब ऑटोमेशन का दौर है. भारत नौकरियों के लिए हमेशा से मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर पर ही डिपेंड रहा है, किन्तु बदले दौर में आप केवल मैन्युफैक्चरिंग पर डिपेंड नहीं रह सकते, बल्कि सर्विस सेक्टर पर फोकस ज्यादा बढ़ाना होगा. हालाँकि, सरकार के स्तर पर एनवॉयरमेंट क्लीयरेंस सहित दूसरे रेग्युलेटरी स्तर पर जो कार्य किए जाने थे, वह कर दिए गए हैं, किन्तु ग्लोबल स्तर पर प्रॉब्लम की वजह से ग्रोथ उम्मीद के अनुसार नहीं आ रही है. अभी भारत की इकॉनमी 7.5 की रफ़्तार से बढ़ रही है, किन्तु हमारी क्षमता इससे कहीं ज्यादा है. अभी तो तमाम रेटिंग एजेंसियों ने इसे 7.1 तक घटाया है, हालाँकि देखना दिलचस्प होगा कि नोटबंदी की वजह से हालिया गिरावट कितने दिनों तक रहती है. अगर सरकार इन फैक्टर्स पर काबू कर पाती है और जीएसटी जैसे प्रावधानों को जल्द से जल्द लागू करने के साथ-साथ, उद्योग जगत, इन्वेस्टर्स को प्रोत्साहित करती है, स्किल डेवलपमेंट पर ज़ोर देती है तो आने वाले सालों में हालात जरूर बदल सकते हैं. हालाँकि, सरकारी भ्रष्टाचार पर काफी हद तक लगाम लगी है, किन्तु नोटबंदी ने उद्योगों के वर्तमान ढाँचे, खासकर स्माल और मध्यम इंडस्ट्रीज को तहस नहस किया है. नए ढाँचे बनने और उसकी व्यवहारिकता (जैसे इनकम टैक्स की रेंज बढ़ाना, लोन अत्यधिक सस्ता करना) पर काफी कुछ निर्भर करेगा कि आगे काफिला सुरक्षित रहेगा या फिर जैसे आज तक लुटा है, वैसे ही लूटेगा ... काफिला!

- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.




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