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जो माया के अपने थे, अब होने लगे मुलायम के

नौकरशाह, उद्योगपति और मीडिया की चाल और मूड से देश में होने वाली गतिविधियों और भावी परिवर्तनों को आसानी से समझा जा सकता है, क्योंकि जनता और शासन के मध्य ये तीनों एक पुल की भांति होते हैं, और प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तरीके से इनका सत्ता और जनता से गहरा जुड़ाव और रिश्ता होता है। ऐसे में अगर इन तीनों की चाल, मूड, भाषा, स्वभाव और कार्यशैली में बदलाव दिखाई दे तो यह समझ लेना कुछ होने वाला है या फिर बदलाव के संकेत है। बसपा शासनकाल में जो लोग सता के नाक के बाल थे वो एक-एक करके किसी न किसी बहाने से उससे दूर छिटक रहे हैं, या दूर होने में ही अपनी भलाई समझ रहे हैं। माया मेमसाहब के सबसे करीबी नौकरशाह केन्द्र में प्रतिनियुक्ति के लिए अर्जी लगा रहे हैं तो बहनजी के खासम खास उद्योगपति भी बोरिया बिस्तर समेटने की कवायद में जुट गये हैं।
बदलाव की हवाओं से मीडिया भी अछूता नहीं है, बदलाव के खुशबू सूंघकर मीडिया ने चाल और भाषा बदल दी है। ये चर्चा जनता में भी आम है कि अबकि बदलाव तो जरूर होगा। आम आदमी के मन में यह सवाल उमड़-घुमड़ रहा है कि सत्ता की चाबी किसको मिलेगी। अलग-अलग विचार और गणित हैं, लेकिन कुल मिलाकर बदलाव होगा ये बात तय हो चुकी है। खुफिया और मीडिया रिपोर्ट के आधार पर नौकरशाह इस बात को सबसे पहले समझ गये कि बहनजी की सरकार बनना मुश्किल है, ऐसे में सत्ता से दूरी बनाने में ही भलाई है। पंचम तल में बैठने वाले बहनजी के खासमखास नौकरशाह ने तो चुनाव की घोषणा से पहले ही समाजवादी पार्टी में लाइजनिंग और मेल-जोल बढ़ाना शुरू कर दिया था, सूत्रों की माने तो नेताजी के दूसरे पुत्र प्रतीक यादव की लखनऊ में आयोजित शादी की रिसेप्शन पार्टी का सारा प्रबंध इसी नौकरशाह के चम्मचों ने किया था।
चुनावी शंखनाद के साथ ही बसपा सरकार के डूबते जहाज से कूदने और साथ छोड़ने वाले अफसरों की लाइन ही लग गयी। हालत यह है कि बहनजी की आंख, कान और हाथ माने जाने वाले एक दर्जन से अधिक अफसर बदलाव की सुगबुगाहट के बीच केंद्र में प्रतिनियुक्ति के लिए राज्य सरकार के समक्ष अर्जी लगा चुके हैं। प्रतिनियुक्ति चाहने वालों में मुख्य सचिव अनूप मिश्र के अलावा पंचम तल के ताकतवर नौकरशाह रवीन्द्र सिंह, जेएन चौम्बर, प्रदीप शुक्ला, आरपी सिंह, अनिल संत, सुशील कुमार, मोहम्मद मुस्तफा और कई आईपीएस आफिसर भी हैं। इसके अलावा बहनजी के करीबी एक दर्जन के करीब आईएएस और आईपीएस अफसरों ने समाजवादी खेमे में आमद दर्ज करा ली और इन दिनों ये महानुभाव सपा नेताओं को पटाने और आगे की गोटियां फिट करने में समय बिता रहे हैं। नौकरशाहों की तरह बहनजी के आर्थिक स्त्रोतों अर्थात उद्योगपतियों ने भी बहनजी और सत्ता से दूरी बनानी शुरू कर दी है।
बहनजी के राज में सोनभद्र से लेकर नोएडा तक की बेशकीमती जमीनें लूटने और प्राकृतिक संसाधनों के लुटरे जेपी ग्रुप ने तमाम विकास योजनाओं के काम से हाथ खींच लिया है, बैंक गारंटी के तौर पर जमा धनराशि की वापसी की कार्रवाई शुरू कर दी है। जेपी ग्रुप के पास ही बहनजी के ड्रीम प्रोजेक्ट यमुना एक्सप्रेसवे का ठेका था। लेकिन बदलाव की सूंघ लगते ही कम्पनी ने काम बंद करने और पीछे हटने में ही भलाई समझी है। बहनजी के सबसे खास उद्योगपति और शराब माफिया पोंटी चड्डा ने भी सोची समझी रणनीति और बहन जी को दुबारा सत्ता हासिल होते न देख दूरी में ही भलाई समझ आ रही है। सूत्रों की माने तो पोंटी जिस तरह से बसपा से दूरी बना रहे हैं उससे तो यही लगता है कि अगला शासन मायावती का नहीं होगा। पोंटी को बखूबी पता है कि पिछले पांच सालों में उनके और माया सरकार के करीबी रिश्तों को लेकर खूब चर्चा हुई है, ऐसे में अगर कोई अन्य सरकार बनी तो वह उनकी कम्पनी को अछूत समझकर किनारे लगा सकती है। यह बात यह बिजनेस मैन होने के नाते पोंटी कैसे बर्दाश्त कर सकते थे। जानकार तो यहां तक कहते हैं कि पोंटी ने ही अपने ठिकानों पर खुद आयकर विभाग के छापे की कार्रवाई करवाई है। छापों के बाद अब कोई यह नहीं कह पाएगा कि पोंटी के पास काले धन की खान है दूसरा पोंटी के करीबी यह कहते हुए बसपा को उसका ‘हक’ देने से बच जाएंगे कि उन्होंने कुछ कमाया ही नहीं तो देंगे कैसे।
सपा सुप्रीमो के साथ पोंटी के अच्छे संबंध रहे हैं, मुलायम ने बसपा से गठबंधन सरकार के जमाने में पोंटी को मायावती से मिलवाया था। ऐसे में मुलायम की नजरों में पाक-साफ दिखने के लिए अपने कांग्रेसी संबंधों की मदद से पोंटी ने आगे की राह साफ कर ली है। बदलाव की हवा जेपी ग्रुप और पोंटी चड्डा के अलावा कई दूसरे औद्योगिक घरानों ने सूंघ ली है। सूत्रों के अनुसार इस बार औद्योगिक घरानों ने सबसे अधिक चंदा सपा को ही दिया है और परिवर्तन भांपकर औद्योगिक घराने आगे की रणनीति को समाजवादी नजरिये से देखने-समझने की जुगत में लगे हैं। ऐसे में मीडिया जगत को बखूबी पता है कि सूबे में अगली सरकार बसपा की नहीं होगी यह तय है। ऐसे में बसपा को कम कवरेज से लेकर मीडिया जगत में हलचल और भावी सरकार से जुड़े पत्रकारों को महत्वपूर्ण पदों पर बिठाने की कार्रवाई भी शुरू हो चुकी है। अधिकतर अखबार प्रबंधन और मीडिया हाउस अखबार और चैनल की बागडोर यूपी में उनके हाथ में सौंप रहा है जिनका समाजवादी पार्टी से मधुर संबंध हैं। सूबे में चुनावी मौसम में दर्जनों नये अखबार और चौनल इस कड़ी का हिस्सा है, और लगातार अखबार और चैनल के उच्च पदों पर परिवर्तन और नयी नियुक्तियां परिवर्तन की संभावना की वजह से ही हैं।
लब्बोलुआब यह है कि सूबे की सत्ता में परिवर्तन होगा, यह नौकरशाह, उद्योगपति और मीडिया के बदले रूख और चाल से समझा जा सकता है। असल में होगा क्या है यह तो चुनाव परिणाम ही तय करेंगे लेकिन सत्ता के सबसे करीबी लोगों और संगठनों में अचानक बदलाव, हलचल और तेजी दिखाई दे तो कहानी समझ में आ ही जाती है और यूपी में जिस तरह से नौकरशाह, उद्योगपति और मीडिया में जो अस्वाभाविक परिवर्तन दिख रहे हैं, वो साफ तौर पर सत्ता परिवर्तन की चुगली कर रहे हैं।


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