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हिजोम इराबोत सिंह क्रांति का दूसरा नाम - अनिल राजिमवाले


हिजोम इराबोत सिंह का नाम मणिपुर
के घर-घर में जाना जाता है। उनका
जन्म 30 सितंबर 1896 को
ओइनाम लेकाई में एक गरीब परिवार
में हुआ था। उनके पिता हिजोम
इबुन्गोहल सिंह जल्द ही चल बसे और
माता चोन्गथाम निन्गोल की मृत्यु
1915 में ही हो गई। वे सातवीं क्लास
तक जॉन्स्टन हायर सेकेंडरी स्कूल,
इम्फाल में पढ़े। वहां उन्होंने बाल संघ
और छात्र सम्मेलन की स्थापना की।
1913 में ढाका में स्कूल में भर्ती हो
गए। गरीबी के कारण उन्हें स्कूल
छोड़ना पड़ा और अगरतला होते हुए वे
घर लौट आए।
इराबोत विभिन्न सामाजिक
गतिविधियों में हिस्सा लेने लगे थे और
लोकप्रिय बनते जा रहे थे। अपने मित्र
माइबम बान्गखेई के साथ रहने लगे।
माइबम राजा चूराचंद के कोर्ट में काम
करते थे जिससे इराबोत राजपरिवार
के संपर्क आए। मणिपुर के महाराजा ने
उनका विवाह अपनी भतीजी राजकुमारी
खोम्डोन्साना देवी से कर दिया। साथ
ही उनकी नियुक्ति वहां के उच्चतम कोर्ट
में जज के रूप में कर दी।
महाराजा से टकराव
जल्द ही इराबोत का टकराव
महाराजा से होने लगा। महाराजा ने
निखिल हिन्दू मणिपुर महासभा का गठन
1934 में किया। इसका गठन अखिल
भारतीय हिन्दू महासभा की तर्ज पर
किया गया था और ईसाइयों के खिलाफ
था। वे इसके अध्यक्ष थे लेकिन इराबोत
ही उपाध्यक्ष की हैसियत से सारा कार्य
करते थे। चिंगा में महासभा का चौथा
अधिवेशन हुआ जिसमें ‘हिन्दू’ शब्द
हटा दिया गया। इसमें महाराजा
उपस्थित नहीं थे। इसके अलावा कई
सामंत-विरोधी जनतांत्रिक मांगें पेश की
गईं। इराबोत ने जज का पद छोड़
दिया और पूरावक्ती राजनैतिक कार्यकर्ता
बन गए। उन्होंने महासभा को एक
राजनैतिक पार्टी का रूप दे दिया।
महाराजा ने इन घटनाओं पर
इराबोत को चेतावनी दे दी। इराबोत
और रेवेन्यू विभाग में एक विभाग में
एक क्लर्क एलांगबाम तोम्पोथ के
इस्तीफे के बाद मणिपुर दरबार और
राजा को विधायिका के गठन का प्रस्ताव
दिया जिसे राजा ने मानने से इन्कार
कर दिया।
जन आंदोलन
दिसंबर 1939 में महिलाओं का
विशाल जनांदोलन फूट पड़ा। इसका
प्रमुख कारण था चावल की भारी कमी।
चावल बाजार से लगभग गायब हो
गया। यु( के नाम पर उसका निर्यात
किया जाने लगा और बड़े पैमाने पर
जमाखोरी की जाने लगी। 11 दिसंबर
को महिलाओं ने ख्वाईरमबंद बाजार
घेर लिया, सारा चावल भंडार अपने
कब्जे में कर लिया और लोगों के बीच
कम्युनिस्ट नेताओं की जीवनी-18
इराबोत सिंहः मणिपुर के निर्माता
बेच दिया। उस वक्त इराबोत त्रिपरा में
थे। उन्होंने लौटकर आंदोलन का नेतृत्व
किया। चौथी असम राइफल ने भारी
दमन किया।
दमन के बावजूद आंदोलन सफल
रहा। सरकार ने चावल के निर्यात पर
पाबंदी लगा दी।
मणिपुर भाषा में ‘नूयी लान’ का
अर्थ होता है ‘नारी या महिला यु(’।
मणिपुर के इतिहास में महिलाओं द्वारा
कई ‘यु(’ लड़े गए हैं। 1939 में
मणिपुर महाराजा और उनके ब्रिटिश
पोलिटिकल एजेंट गिमसन की
दमनकारी नीतियों के खिलाफ महिलाओं
द्वारा व्यापक आंदोलन चलाया गया
था। यह आंदोलन आगे चलकर मणिपुर
मे संवैधानिक-प्रशासनिक सुधार
आंदोलन में बदल गया।
मणिपुर के कृषि अर्थतंत्र में
महिलाओं की केंद्रीय भूमिका है।
रुवाइरमबंद बाजार प्रमुख बाजार होता
है। ‘नूयी लान’ यहीं से आरंभ हुआ
था। महिलाओं ने पोलिटिकल एजेंट
मैक्सवेख्ल के खिलाफ जबरन मजदूरी
समाप्त करने की मांग करते हुए
आंदोलन किया।
1891 में एंग्लो-मणिपुरी यु(
हार जाने पर मणिपुर को ब्रिटिश प्रशासन
ने चूराचंद नामक युवा को महाराजा
बनाकर उसके अधीन कर दिया और
नियंत्रण अपने हाथों में रखा। मोटर
गाड़ियां आ जाने तथा मारवाड़ी व्यापरियों
के आगमन के फलस्वरूप बड़ी मात्रा
में चावल बाहर जाने लगा और संकट
पैदा हो गया।
11 दिसंबर 1939 को महिलाएं
जब बाजार आई तो उन्हें चावल
बिल्कुल नहीं मिला। एक और ग्रुप
चावल के बढ़ते दामों के खिलाफ लड़
रहा था। इस प्रकार दोनों ग्रुपों ने
मिलकर संघर्ष किया। 12 दिसंबर को
हजारों महिलाएं स्टेट दरबार ऑफिस
के पास जमा हो गईं और चावल निर्यात
पर पाबंदी की मांग करने लगीं। दरबार
सदस्य पिछले दरवाजे से भाग गए।
मि. शार्प, दरबार के अध्यक्ष, पकड़े
गए और महिलाओं ने उन्हें टेलीग्राफ
ऑफिस में बंद कर दिया। असम
राइफल्स के दमन में कई महिलाएं
घायल हो गईं।
16 दिसंबर को हाजोम इराबोत
आ गए और आंदोलन नई मंजिल में
पहुंच गया। इराबोत ने एक नई पार्टी
‘मणिपुर प्रजा समेलिनी’ का गठन किया
क्योंकि महासभा के अधिकतर लोग
महिला आंदोलन का समर्थन नहीं
करना चाहते थे। इराबोत ने विशाल
सभाओं को संबोधित किया।
नई पार्टी की स्थापना :
कम्युनिज्म की ओर
1939 में दूसरा ‘नूयी लान’
आरंभ हुआ। इसमें एक हिस्सा निखिल
मणिपुरी महासभा से अलग होकर
आंदोलन में शामिल हो गया। यह हिस्सा
प्रजा सन्मेलनी कहलाया। जनता ने
सामंती टैक्स और लेवी देना बंद कर
दिया। 7 जनवरी 1940 को इराबोत
सिंह ने आमसभा में भाषण दिया। पुलिस
ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। पहले तो
उन्हें मणिपुर जेल में रखा गया जहां
स्थितियां बहुत खराब थीं। इराबोत ने
हालत बेहतर करने के लिए कई संघर्ष
किए। कैदियों की स्थिति में थोड़ा सुधार
हुआ। फिर उन्हें सिलहट जेल भेज
दिया गया जो आजकल बांगलादेश में
है। उन्हें तीन साल की सजा दी गई।
जेल में उनकी मुलाकात भारतीय
कम्युनिस्ट नेता हेमंग विश्वास और
ज्योर्तिमय नंदी से हुई। वे कम्युनिज्म
की ओर झुकने लगे। उन्होंने काफी
बहस और अध्ययन किया। उस समय
1942 का ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन
चल रहा था। जेलों में बहुत सारे कैदी
रखे गए थे। इराबोत ने कम्युनिस्ट पार्टी
की सदस्यता का आवेदन असम
प्रादेशिक कमिटि को दिया। जेल में
रहते हुए ही उन्हें सदस्यता दी गई।
इराबोत को 20 मार्च 1943
को सिलहट जेल से रिहा किया गया
लेकिन मणिपुर जाने की इजाजत नहीं
दी गई। वे कछार जिले में ही रहते हुए
मणिपुर किसानों तथा चाय बागान
मजदूरों के बीच काम करने लगे।
उन्होंने असम और त्रिपुरा में किसान
सभा संगठित की। नेत्रकोना ;मैमेनसिंह,
बंगाल, मार्च 1944ऋ आजकल
बांगलादेशद्ध में आयोजित अ.भा. किसान
सभा के नौवें सम्मेलन में उन्होंने
1945 में असम के प्रतिनिधि के रूप
में हिस्सा लिया।
वे कम्युनिस्ट आंदोलन के साथ
संपर्क में बने रहे। उन्होंने भा.क.पा. की
प्रथम पार्टी कांग्रेस ;बम्बई,1943द्ध
में कछार से आमंत्रित प्रतिनिधि के रूप
में भाग लिया। कछार में उन्होंने ‘स्वदेश
गानेर दल’ के नाम से सांस्कृतिक दल
बनाए। इसे इप्टा में शामिल किया गया।
1944 में वे विजयवाड़ा के
काताकुआल गांव किसान सम्मेलन में
भाग लेने गए। उसी वर्ष वे सूरमा वैली
किसान सभा अधिवेशन में भी गए।
इराबोत को 15 सितंबर 1944
को सिलचर जिला जेल में सुरक्षा कैदी
के रूप में गिरफ्तार कर रख लिया
गया। उन पर कम्युनिस्ट होने का आरोप
था। उन्हें एक सप्ताह के लिए मणिपुर
जाने की इजाजत दी गई।
कछार वापस लौटकर उन्होंने
किसान आंदोलन संगठित किया। वे
कछार जिला किसान सभा के महासचिव
बनाए गए। उन्होंने असम किसान सभा,
पार्टी और विद्यार्थी संगठन स्थापित करने
में बड़ी सहायता की। उन्होंने असम
प्रादेशिक विधान सभा के 1946 का
चुनाव भा.क.पा.के उम्मीदवार के रूप
में लड़ा। वे बहुत थोड़े-से मतों से
पराजित हुए।
आखिर उन्हें मार्च 1942 में
मणिपुर जाने की इजाजत मिल गई।
यह देश में भारी उथल-पुथल का समय
था। देश आजादी की ओर बढ़ रहा
था। मणिपुर में सामंतवाद के विरू(
आंदोलन तेज हो रहा था और
जगह-जगह कांग्रेस के संगठन उभर
रहे थे।
इराबोत ने अप्रैल 1946 में
मणिपुर प्रजामंडल की स्थापना की ।
उन्होंने निखिल मणिपुरी महासभा के
दो अधिवेशनों में हिस्सा लिया। लेकिन
इसके बाद उन पर कम्युनिस्ट पार्टी
का सदस्य होने का आरोप लगाकर
उन्हें महासभा की कार्यसमिति से
निकाल बाहर कर दिया गया।
मणिपुर कृषक संघ का दूसरा
सम्मेलन 1946 में नामबोल में संपन्न
हुआ। यह स्थान इम्फाल से नौ मील
की दूरी पर है। इस शानदार सम्मेलन
की अध्यक्षता इराबोत सिंह ने की।
सम्मेलन ने व्यस्क मताधिकार के आधार
पर जिम्मेदार सरकार के गठन की मांग
की। अन्य मांगें भी रखी गई जिनके
लिए बाद में संघर्ष चलाया गया।
भारत की आजादी और मणिपुर
1947 की 15 अगस्त को भारत
की आजादी के बाद मणिपुर के महाराजा
ने संविधान सभा, चुनी हुई
 विधायिका, इ. का वादा किया।
पहाड़ों और मैदानों की जनता को
एक करने के इरादे से इराबोत ने 30
नवंबर 1947 को नौ पार्टियों और
कबीलाई संगठनों का एक सम्मेलन
बुलाया।
इराबोत ने कलकत्ता में 28 फरवरी
से 6 मार्च 1948 को आयोजित भा.
क.पा. की दूसरी कांग्रेस में हिस्सा लिया।
मणिपुर में 23 अगस्त 1948 को
कम्युनिस्ट पार्टी का गठन किया गया।
मणिपुर के महाराजा ने सारी ताकत
अपने ही हाथों में केंद्रित रखी। 1947
में प्रथम आम चुनाव संपन्न हुए। मणिपुर
कृषक सभा ने 23 सीटों लड़ींऋ इनमें
से 5 जीतीं जिनमें एक इराबोत सिंह
भी थे।
उस वक्त सरदार पटेल उत्तर-पूर्वी
राज्यों को मिलाकर एक सीमावर्ती राज्य
अनिल राजिमवाले
इराबोत सिंह
शेष पेज 14 परबनाने की योजना बना रहे थे। इसमें मणिपुर, कछार, लुशाई, हिल्स और त्रिपुरा
को शामिल करने की योजना थी।
इसके विरोध में 21 सितंबर 1948 को इम्फाल में एक बड़ी आम सभा
आयोजित की गई। सारे मणिपुर से लोग इकट्ठा होने लगे। पुलिस ने आक्रमण
कर दिया। सभा पर पाबंदी लगा दी गई और कई नेताओं के खिलाफ गिरफ्तारी
का वारंट जारी कर दिया गया।
इराबोत सिंह अंडरग्राउंड चले गए। उन पर 10,000/रु. का इनाम
घोषित कर दिया गया।
पार्टी पर संकीर्णतावादी और दुस्साहवाद का असर था। फलस्वरूप तेलंगाना,
काकद्वीप, त्रिपुरा, मैमेनसिंह इ. इलाकों में सशस्त्र संघर्ष चलाया जा रहा था।
मणिपुर में भी सशस्त्र आंदोलन छेड़ दिया गया। सरकार ने चारों ओर पुलिस
कैम्प खड़े कर दिए।
इराबोत को सहायता पाने के लिए मई 1951 में बर्मा के छापेमारों से
संपर्क स्थापित करने भेज दिया गया। उस समय बर्मा में गृहयु( चल रहा था।
थाकिन सो के नेतृत्व में बर्मा की कम्युनिस्ट पार्टी तथा अन्य संगठन ऊ नू की
प्रतिक्रियावादी सरकार के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष चला रहे थे।
इराबोत ने वहां के सभी कम्युनिस्ट दलों को एक करने का प्रयत्न किया।
इसके लिए एकता सम्मेलन भी किया गया। वे इराबोत और मणिपुर में चल रहे
संघर्ष की सहायता के लिए तैयार हो गए।
लेकिन वापस लौटते वक्त टाइफायड के कारण इराबोत सिंह की 26
सितंबर 1951 को सीमावर्ती वांगबो गांव में मृत्यु हो गई। बर्मी छापेमारों ने
उनकी पूरे सम्मान के साथ अंत्येष्टि की।
इराबोत सिंह को मणिपुर का ‘जन नेता’ और ‘पिता’ कहा जाता है। 1948
की 21 सितंबर को उत्तर-पूर्वी सीमांत प्रदेश बनाने के प्रस्ताव के विरोध में आम
सभा हुई जिसका नेतृत्व इराबोत कर रहे थे। उन पर गिरफ्तारी का वारंट जारी
किया गया। इसे ‘पुंगडोंगबाम घटना’ कहा जाता है। इसे मणिपुर की रक्षा’ का
दिन माना जाता है। 1976 में इराबोत का जन्मदिन राजकीय छुट्टी घोषित
की गई। 2018 में मणिपुर की सरकार ने ‘जननेता इराबोत दिवस’ को राज्य
समारोह का दर्जा दिया।
इराबोत सिंह बहुमुखी प्रतिभाशाली थे। एक कम्युनिस्ट राजनीतिज्ञ के अलावा
सामाजिक कार्यकर्ता एवं नेता, कृषि, चाय बागान मजदूर संगठनकर्ता, कवि,
ड्रामा लेखक, कलाकार, एक्टर, खिलाड़ी, मार्शल आर्ट के विशेषज्ञ भी थे।
मणिपुर में हर साल उनका ऋतुएंन सारे राज्य में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता
है। उनका पुतला इम्फाल में खड़ा किया गया है।
1922 में उन्होंने हस्तलिखित पत्रिका ‘मिवेई चानु’ प्रारंभ की। उनकी
लिखित पुस्तकें हाई स्कूल विद्यार्थियों के पाठ्यक्रम का हिस्सा हैं। वे मणिपुर
साहित्य परिषद के संस्थापक महासचिव थे।
इराबोत सिंह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े हुए एक असाधारण कम्युनिस्ट 9 - 15 अगस्त, 2020 मुक्ति संघर्ष साप्ताहिक 7
हिजोम इराबोत सिंह का नाम मणिपुर
के घर-घर में जाना जाता है। उनका
जन्म 30 सितंबर 1896 को
ओइनाम लेकाई में एक गरीब परिवार
में हुआ था। उनके पिता हिजोम
इबुन्गोहल सिंह जल्द ही चल बसे और
माता चोन्गथाम निन्गोल की मृत्यु
1915 में ही हो गई। वे सातवीं क्लास
तक जॉन्स्टन हायर सेकेंडरी स्कूल,
इम्फाल में पढ़े। वहां उन्होंने बाल संघ
और छात्र सम्मेलन की स्थापना की।
1913 में ढाका में स्कूल में भर्ती हो
गए। गरीबी के कारण उन्हें स्कूल
छोड़ना पड़ा और अगरतला होते हुए वे
घर लौट आए।
इराबोत विभिन्न सामाजिक
गतिविधियों में हिस्सा लेने लगे थे और
लोकप्रिय बनते जा रहे थे। अपने मित्र
माइबम बान्गखेई के साथ रहने लगे।
माइबम राजा चूराचंद के कोर्ट में काम
करते थे जिससे इराबोत राजपरिवार
के संपर्क आए। मणिपुर के महाराजा ने
उनका विवाह अपनी भतीजी राजकुमारी
खोम्डोन्साना देवी से कर दिया। साथ
ही उनकी नियुक्ति वहां के उच्चतम कोर्ट
में जज के रूप में कर दी।
महाराजा से टकराव
जल्द ही इराबोत का टकराव
महाराजा से होने लगा। महाराजा ने
निखिल हिन्दू मणिपुर महासभा का गठन
1934 में किया। इसका गठन अखिल
भारतीय हिन्दू महासभा की तर्ज पर
किया गया था और ईसाइयों के खिलाफ
था। वे इसके अध्यक्ष थे लेकिन इराबोत
ही उपाध्यक्ष की हैसियत से सारा कार्य
करते थे। चिंगा में महासभा का चौथा
अधिवेशन हुआ जिसमें ‘हिन्दू’ शब्द
हटा दिया गया। इसमें महाराजा
उपस्थित नहीं थे। इसके अलावा कई
सामंत-विरोधी जनतांत्रिक मांगें पेश की
गईं। इराबोत ने जज का पद छोड़
दिया और पूरावक्ती राजनैतिक कार्यकर्ता
बन गए। उन्होंने महासभा को एक
राजनैतिक पार्टी का रूप दे दिया।
महाराजा ने इन घटनाओं पर
इराबोत को चेतावनी दे दी। इराबोत
और रेवेन्यू विभाग में एक विभाग में
एक क्लर्क एलांगबाम तोम्पोथ के
इस्तीफे के बाद मणिपुर दरबार और
राजा को विधायिका के गठन का प्रस्ताव
दिया जिसे राजा ने मानने से इन्कार
कर दिया।
जन आंदोलन
दिसंबर 1939 में महिलाओं का
विशाल जनांदोलन फूट पड़ा। इसका
प्रमुख कारण था चावल की भारी कमी।
चावल बाजार से लगभग गायब हो
गया। यु( के नाम पर उसका निर्यात
किया जाने लगा और बड़े पैमाने पर
जमाखोरी की जाने लगी। 11 दिसंबर
को महिलाओं ने ख्वाईरमबंद बाजार
घेर लिया, सारा चावल भंडार अपने
कब्जे में कर लिया और लोगों के बीच
कम्युनिस्ट नेताओं की जीवनी-18
इराबोत सिंहः मणिपुर के निर्माता
बेच दिया। उस वक्त इराबोत त्रिपरा में
थे। उन्होंने लौटकर आंदोलन का नेतृत्व
किया। चौथी असम राइफल ने भारी
दमन किया।
दमन के बावजूद आंदोलन सफल
रहा। सरकार ने चावल के निर्यात पर
पाबंदी लगा दी।
मणिपुर भाषा में ‘नूयी लान’ का
अर्थ होता है ‘नारी या महिला यु(’।
मणिपुर के इतिहास में महिलाओं द्वारा
कई ‘यु(’ लड़े गए हैं। 1939 में
मणिपुर महाराजा और उनके ब्र


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