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कोरोना :इंसानों को विज्ञान और तर्क की ताकत का पता चला।

लॉक डाउन के वक्त को इस बात के लिए लॉक ओपेन किया जा सकता है कि आखिर ऐसे हालात क्यों बनें? कई बार मानव सभ्यता के लिए खतरे के हालात पैदा हो जाते हैं तो एक साथ दो चुनौतियां होती है। एक खतरे से निपटने और दूसरी खुद के बारे में सोचने और अपनी आलोचना करने की चुनौती होती है।

कोरोना वायरस के फैलने के बाद यह बात सामने आई है कि पूरी दुनिया में हालात को भांपने में सरकारें नाकामयाब हुईं। फिर जब निपटने की बारी आई तो इस मायने में भी सरकारें खुद के सक्षम होने का दावा नहीं कर सकीं। उनकी लाचारी और बेबसी चारों तरफ देखने को मिली। इलाज के लिए अस्पताल, दवाईयां और बीमारी के रोकथाम के लिए जरूरी चीजों की भारी किल्लत हर जगह देखी गई।

यानी मानव सभ्यता के आगे बढ़ने की कहानी में बनावटीपन खुलकर सामने आ गया। राष्ट्रों के नाम पर बंटे समाज में विकास की कहानी में उसी हिसाब से गड़बड़ियां सामने आईं, जिस अनुपात में राष्ट्रों के भीतर विचारधाराओं ने अपने बीच फर्क दिखाने की कोशिश की है। इटली की चमक- दमक लाचारी के हालात में खड़ी थी। चीन के शासकों को आखिरकार एक नये तरह के सामाजिक ढांचे की तरफ जाने के लिए बाध्य होना पड़ा, जिसे हम लॉक डाउन कहते हैं।


लॉक डाउन क्या है ? वह मनुष्यों के बीच संबंधों को सीमित करने का एक ढांचा ही तो है। एक तरफ यह कहा गया है कि प्रभुत्व बनाकर रखने वाले शासकों ने वैश्वीकरण का जो ढांचा तैयार किया है उसकी वजह से से कोरोना तेजी के साथ दुनिया में फैला। दूसरी तरफ कोरोना के रोकथाम के लिए दुनिया भर में इंसानों के आने-जाने और मिलने-जुलने पर रोक लगा देने के फैसलों को ही सबसे कारगर माना गया है।

इसका अर्थ यह भी निकल सकता है कि अब तक का विकास, उसकी गति, उसकी दिशा की असलियत सामने आई है। मायने ये भी निकल सकता है कि विज्ञान का नियंत्रण जिनके हाथों में था उसका केवल प्रभुत्वशाली वर्गों और विचारों ने अपने फायदे के लिए दोहन किया है। विज्ञान के जरिये प्राकृतिक और इंसानी संबंधों को मजबूत करना था जो कि संबंध- सभ्यता के रूप में आगे बढ़ता। अस्पतालों में कृत्रिम स्टार जोड़ने को ही विकास का तराजू बना दिया गया, और वे आम इंसान के लिए बेकाम साबित हुए हैं। अर्थ क्या यह निकलता है कि जो सरकारें हैं वो प्रभुत्वशाली विचारों और उसकी संस्कृति का ही संगठित ढांचा हैं।

दुनिया को कौन बना सकता है? इतिहास है कि 1830 में ब्रिटेन संसार का पहला औधोगिक समाज बना। कल्पना करें कि औधोगिकीकरण के ढांचे ने सबसे ज्यादा इंसानी संबंधों को किस तरह सीमित किया। औधोगिकीकरण विज्ञान की खोज थी और मनुष्य के संबंधों की व्यापकता की कड़ी के रुप में इस्तेमाल किया जाना था। लेकिन इसे किस तरह से सीमित करने की एक प्रक्रिया शुरू की गई, इस बारे में इतिहासकार क्रिस हरमन विश्व का जन इतिहास में कुछ इस लिखते हैं-


“मशीनें सूर्योदय से सूर्यास्त तक और गैस की रोशनी के ईजाद के बाद तो, उसके भी बाद रात तक चलती फैक्टरियों में लगी घड़ियां नई कहावत का घंटा बजाने लगीं- समय धन है। ताकि देहातों में पले मजदूर के जीवन का लय बिखर सके और वे सारा दिन बंद कमरे में बिना सूरज, पेड़ और फूल देखे और बिना चिड़ियों की चहचहाहट सुने बिता दें और वे उन्हें अजूबा नहीं लगे।” कल फैक्टरियों की घड़ी और आज घरों में बोलते टेलीविजन में कोई फर्क नहीं है। घर ही चौबीस घंटे के काम की जगह हैं और मानव महज संसाधन, जिस तरह से दिन-रात चलने वाली मशीनें होती हैं।

विचारधाराएं सभ्यता को विकसित करने का औजार होती है और वह अपने तरह का ढांचा तैयार करती है। संघर्ष यह चलता है कि कौन विचारधारा तात्कालिकता में उलझाती है और कौन दूरगामी और टिकाऊ ढांचे को जरूरी मानती है। एक विचारधारा मशीनों की आदतों के लिए मनुष्यों को ढालना चाहती है और उसके संबंधों को सीमित कर देती है। दूसरी विचारधारा मनुष्य के व्यापक संबंधों के आलोक में मशीनों का इस्तेमाल करने पर जोर देती है।

दरअसल तुरंत-तुरंत में उलझा देने वाली विचारधाराएं बड़ी चालाक होती हैं। वे इंसानों द्वारा तैयार किए गए शब्दों पर अपना जादू बिखेर देती हैं और उनमें अपने अर्थ भर देती हैं। मसलन इंसानों ने आसपास और समाज के जो शब्द ईजाद किए, विकास के लिए वे शब्द तो इस्तेमाल किए गए लेकिन उनके अर्थ छोटे कर दिए गए हैं। जैसे प्राचीन दुनिया में जब एक जाति का किसी अन्य जाति पर राजनीतिक प्रभुत्व हो जाता था तो उसे बनाए रखने के लिए पराजित जाति के देवताओं को आत्मसात करने की एक योजना बनाई जाती थी। वह ऐसी होती थी कि प्रभुत्व जमाने वाली जाति पराजित जाति के देवता के भीतर अपना दिमाग डाल देती थी, चेहरा वैसा ही रखती थी। इसे हम संस्कृतिकरण कह सकते हैं।


वैश्वीकरण का चेहरा व्यापक है, लेकिन किसके लिए? इंसान सिमटता गया है। उसके संबंध वहां सीमित होते हैं, जहां तक के लिए वैश्वीकरण को रचने वालों ने तय किया है। विविधताओं के साथ संबंध और संबंधों में विविधता का विस्तार इंसान और उसके समाज की मजबूती होती है, लेकिन प्रभुत्व को फैलाने के विचारों के लिए अड़चन मानी जाती है। वह संबंधों को संसाधन में परिवर्तित कर देने की योजना बनाने लगती है। इंसानों ने जितने तरह के संबंध ईजाद किए, मूल्य विकसित किए उन्हें प्रभुत्व के विचारों ने अपने संसाधनों में तब्दील कर दिया है।

कल्पना करें कि जब पूरी दुनिया में सरकारों ने लॉक डाउन किया तो समाज में किन दृश्यों को लेकर चहचहाहट और उम्मीदें दिखी। उन जगहों पर वर्षों-वर्षों बाद पक्षियों के लौटने को महसूस किया गया। डाक्टरों ने मनुष्यता के प्रति मुहब्बत को अपने लिए सबसे ज्यादा ऊर्जावान महसूस किया। भारत में जब 22 मार्च 2020 को बालकनी में खड़े होकर थाली और ताली बजाने के आयोजन का ऐलान किया गया तो इंसानी संवेदना ने गाय, कुत्तों, चिड़ियों, कबूतरों और ढेर सारे अनाम पशु पक्षियों की लॉक डाउन के दौरान युगों बाद आई खुशियों पर हमले के रुप में धिक्कारा।

दरअसल सरकारें और विचारधाराएं जैसा कि ऊपर कहा गया है, अपने नियंत्रण से समाज को मुक्त नहीं करना चाहती हैं और न ही समाज को अपने अनुकूल ढांचा तैयार करने की इजाजत देना चाहती हैं। इस विकास के लिए सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों के बीच फर्क के शब्दों का आडंबर भर है। क्या यह नहीं दिखा?


भारतीय समाज में प्रभुत्व की जो विचारधाराएं हैं उसके कारनामे मुनाफाखोरी, जमाखोरी और हर तरह से हालात के दोहन करने के उदाहरण के रूप में सामने आए। भूख से कोई मरेगा इसकी चिंता समाज के बीच से ही सुनाई देती है। विचार करें कि तकनीक का विस्तार केवल खांसी की आवाज से दहशत को बढ़ाने के अलावा किस काम में आ रहा है। लोकतंत्र पर हमले की मानसिकता यह प्रभुत्व की विचारधारा में कितनी गहरी है यह ऐसे मौके पर ही दिखती है।

अल-बिरूनी ने एक हजार साल पहले के भारत में प्रचलित एक कथा का उल्लेख किया है कि अज्ञानी राजाओं को सोना बनाने का जो लालच था, उसकी कोई सीमा नहीं। यदि इसके लिए उसके लोग उसे सलाह देते कि इतने बच्चों का वध करो, तो वह उन्हें आग में झोंक देता था। राजा अपराध करने में भी सफल होता था क्योंकि उसने इसपर ताली बजाने वाली प्रजा की एक भीड़ खड़ी कर ली थी। सदियों पहले बहुत मुश्किल हुई थी जब इंसानों को विज्ञान और तर्क की ताकत का पता चला। राजा ने उस तारीख पर पट्टी लगाने की योजना बनाई, जब इंसानों ने अपनी ताकत की नई पहचान की।

आज ये लॉक डाउन नये समाज को बनाने के विचारों के लिए लॉक ओपेन करने की चुनौती पेश करता है। इंसानी फितरत उम्मीदों पर टिकी है। बाजार के लॉक डाउन के दौरान उभरे सवालों के साथ दुनिया को बनाने के लिए समाज खुद को तैयार कर रहा है,ये माना जाना चाहिए।

-अनिल चमड़िया


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