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पत्रकारिता, पाकिस्तान और टीआरपी

आज का युग डिजीटल है, टीवी और सोशल मीडिया लोकतंत्र के चौथे स्तंभ और पहरी माने जाते हैं, पर क्या हो जब यह "लोकतंत्र के पहरी" जन कल्याण के मद्दे उठाने के बजाए नेताओ की चाटुकारिता और टीआरपी के गिद्ध भोज में लग जाते है, सत्ता अराजक बन जाती हैं और वे स्वयं को सर्वे सर्व मानने लगती हैं। 
                                                                        दुख की बात यह है की आज भारत की पत्रकारिता और पत्रकार गिरने के नए कीर्तमान रच रहे है, जहा प्राइम टाइम में चर्चा का विषय जनता से जुड़े मुद्दे, सरकारी नीतियों पर चर्चा होना चाहिए था, वहा पाकिस्तान छाया है, अब तो शायद ही कोई दिन होता होगा जब न्यूज चैनलों पर पाकिस्तान के चर्चे ना होते हो। अब आप में कई कहेंगे की पाकिस्तान के बारे में खबर चलाने में क्या दिक्कत है। नहीं नहीं कोई दिक्कत नहीं है। पाकिस्तान हमारा पड़ोसी है, अतांकवादियो और जिहादियों का अद्द है अतंकवादी को भारत के खिलाफ हथियार के रूप में इस्तेमाल करता है और इसका पर्दाफाश होना ही चाहिए, पर इसका मतलब यह तो नहीं है कि हम अपने मुद्दे को भुला जाए और चौबीस घंटे पाकिस्तान का जप करे, हमेशा हर मुद्दे पर स्वयं की उससे तुलना करें।   


                                                                                पर हमारी मीडिया बड़ी बेशर्मी से ना केवल असल मुद्दों पर पर्दा डालती हैं, साथ साथ खुद को सबसे राष्ट्रवादी भी बताती हैं, जरा आप ही सोचिए जो मीडिया खुद को राष्ट्रवादी  कहती हैं उनके कार्यक्रमों में हमारे आपके मुद्दे की जगह हैं भी की नहीं, या "इमरान खान की बीवी", "कारोना की मौत मरेगा पाकिस्तान"  ही उनके लिए मुद्दे है। आज के पत्रकारिता में असल मुद्दों का मुख्य कारण है टीआरपी की अंधी दौड़। मीडिया संस्थान हमें मसालेदार खबर परोसती हैं और हम भी उसे बड़े मगन से देखते हैं। हमे यह समझना होगा की हमारा हित उन मसालेदार पर हकीकत से दूर खबरों में नहीं, बल्कि उन खबरों में हैं जो हमे सोचने पर मजबूर कर देते हैं। जब तक पत्रकार सत्ता की पोल खोलते रहते हैं , नेताओ को बेचैन करते हैं तब तक ही वो पत्रकारिता रहती हैं।


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