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वो भी क्या दिन थे

एक पुराना क़िस्सा याद आ गया। ये मेरे स्कूल के दिनों की बात है। दिल वाले दुलहनिया ले जाएँगे रिलीज़ हुई थी। लड़के काजोल पर उन दिनों जान छिड़कते थे। हम भी उन में से एक थे। हाॅस्टल में रहा करते थे। अब फ़िल्म कैसे देखी जाए। बाहर जाना मना था। तो सोच कर प्लान बनाया रात को रोल काॅल के बाद जब लाईटस बंद होंगी तब बंक मारकर दोस्तों के साथ फ़िल्म देखने जाएँगे। ख़ुराफ़ाती दिमाग़ तो शुरू से ही रहा है। तो बस रूम की खिड़की के सरिए काट दिए और बैडशीट की रस्सी बनाकर निकल लिए कमांडो।

मैनें DDLJ दोस्तों के साथ हाॅस्टल से बंक मार-मार कर लगातार दो महीने देखी। रात ९:३० का शो ९:४५ पर पहुँचना पूरी फ़िल्म देखना और वापस होस्टल में आना बड़ा रोमांचक लगता था। दिवार फांद कर, जंगल से होते हुए, मेरठ कैंट में से गुज़र कर सिटी तक पैदल पहुँचना अपने आप में एक नया तजुर्बा था। फ़िल्म का एक-एक डाॅयलाग रट चुका था। हर कलाकार की एंट्री और इग्ज़िट तक याद हो गई थी। रात वाला सिनेमा हाॅल का गार्ड जो टिकट चेकर भी था दोस्त के जैसा हो गया था। कितनी ही दफ़ा तो फ़्रन्ट स्टाल की टिकट लेकर बालकनी में बैठकर फ़िल्म देखी थी और कई बार बिना टिकट भी। सब गोपी की महरबानी। बस उसको एक रजनीगंधा और तुलसी खिलाना होता था। एक आद बार एक छुटकु पव्वा काम पैंतीस कर देता था।

शायद कुछ समय और देख पाते पर हाय री क़िस्मत एक दिन हाॅस्टल से निकल जाने के बाद जब पैदल सड़क से जा रहे थे तब हाॅस्टल में रहने वाले एक अध्यापक ने रास्ते में हमें पकड़ लिया। घोड़े की सी तेज़ी से सरपट वापस तो दौड़ गए और अपने अपने रूम में भी पहुँच गए पर उसके बाद जो हुआ वो भी एक यादगार क़िस्सा है। ठंड रखिए वो भी जल्दी ही साझा करूँगा।

अब इस तालाबंदी में मुझे वही हाॅस्टल वाली फील आने लगी है। काश आज भी बंक मारकर दोस्तों के साथ वो दिन वापस ला सकता। वो भी क्या दिन थे।


















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