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राजर्षि टंडनजी

 
श्री. पुरषोतमदास टंडन 


       र्मठ पत्रकार, तेजस्वी वक्ता, समर्पित राजनयिक, हिंदी के अनन्य सेवक तथा समाज सुधारक श्री। पुरषोत्तमदास टंडनजी ने हिन्दी को भारत की राजभाषा का स्थान दिलवाने अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था। भारत के राजनीतिक तथा सामाजिक जीवन में नयी चेतना और नयी क्रांतिपैदा करनेवाले कर्मयोगी श्री.टंडनजी भारत के जनसामान्य में राजर्षि के रूप में प्रसिद्ध थे।

        राजर्षि  टंडनजी ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक योद्धा की भूमिका निभाई थी। वे सं. 1899 से ही कांग्रेस पार्टी के सदस्य बने थे। इसके पश्चात सं. 1906 में श्री.टंडनजी इलाहाबाद से भारतीय राष्ट्रिय कांग्रेस के प्रतिनिधि चुने गए थे। इसके अतिरिक्त सं. 1919 के चर्चित जालियांवालाबाग़ हत्याकांड का अध्ययन करनेवाली कांग्रेस पार्टी की समिति में भी सदस्य के रूप में उपस्थित थे।

        राजर्षि टंडनजी का जन्म उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद नगर में 1 अगस्त 1882 को हुआ था। उनके पिता का नाम श्री. सालिगरामजी था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा इलाहाबाद के ही सिटी एंग्लो वर्नाक्युलर विद्यालय में करते हुए सं. 1894 में मिडिल की परीक्षा भी उत्तीर्ण की। दुर्भाग्यवश इसी वर्ष उनकी बड़ी बहन तुलसीदेवी का स्वर्गवास हो गया था, परन्तु श्री। टंडनजी ने सं. 1897 में हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी ।

        राजर्षि टंडनजी का विवाह  मुरादाबाद निवासी श्री. नरोत्तमदास खन्नाजी की पुत्री चंद्रमुखी देवीजी के साथ संपन्न हो गया था। इसके पश्चात वे एक कन्या के पिता भी बने थे। उन्होंने सं. 1899 में इंटरमीडिएट की परीक्षा भी उत्तीर्ण की थी।  इसी वर्ष वे कांग्रेस के स्वयं सेवक बन गए थे। स्वयं सेवक का कार्य करते हुए उन्होंने अपनी आगे की पढाई हेतु इलाहाबाद विश्वविद्यालय के ' म्योर सेंट्रल कॉलेज ' में प्रवेश लिया था।  किन्तु उनके क्रांतिकारी कार्यकलापों के चलते सं. 1901 में उन्हें कॉलेज से निष्कासित कर दिया गया था।
 
         सके दो वर्ष के पश्चात सं. 1903 में श्री. टंडनजी के पिता का निधन हो गया था। कई कठिनाईयों को पार करते हुए श्री. टंडनजी ने सं.1904 में बी. ए। की  उपाधि प्राप्त कर ली थी। 

राजनितिक जीवन का प्रारम्भ 

       राजर्षि  टंडनजी का राजनितिक जीवन सं. 1905 से प्रारम्भ हुआ था। इसी वर्ष उन्होंने ' बंगभंग ' आंदोलन से प्रभावित होकर स्वदेशी का व्रत धारण कर लिया था। श्री. टंडनजी ने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के रूप में उस समय चीनी खाना छोड़ दिया था तथा श्री. गोपाल कृष्ण गोखलेजी के अंगरक्षक के रूप में उन्होंने कांग्रेस के अधिवेशन में हिस्सा लिया था। 

         सं. 1906 में राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडनजी को भारतीय राष्ट्रिय कांग्रेस का प्रतिनिधि चुना गया था।  इसी दौरान उन्होंने अपना लेखन कार्य भी आरम्भ किया था। उनकी अनेक रचनाएं पत्र - पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रही थी। उनकी एक प्रसिद्ध रचना ' बंदर सभा महाकाव्य ' हिंदी प्रदीप में प्रकाशित हो चूका था। श्री. टंडनजी ने अपनी राजनैतिक व्यस्तता के बीच अपनी पढाई भी जारी रखते हुए सं. 1906 में एल. एल. बी. की उपाधि प्राप्त करते हुए अपनी वकालत प्रारम्भ कर दी थी।
  
         
राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडनजी ने सं. १९०७ में इतिहास में स्नातोकत्तर उपाधि प्राप्त करते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय के नामी वकील तेज बहादुर सप्रू के जूनियर बन गए थे। राजर्षि टंडनजी का अधिकतर कार्यक्षेत्र इलाहाबाद रहा है, जहां वह वकालत करते थे। असाधारण रूप से सफल और अत्याधिक व्यस्त वकील होते हुए भी सार्वजनिक कार्यों के लिए समय देना उनके लिए कभी कठिन न हुआ। 
 
         राजर्षि टंडनजी की अपनी त्याग की भावना के कारण उन्हें कितनी मान्यता मिली , इसका प्रमाण यह है कि उस दौर में जवाहरलाल नेहरू ने राजनीति में प्रदार्पण किया था तब राजर्षि टंडनजी उत्तर प्रदेश के प्रमुख नेताओं में पहले ही अपना स्थान बना चुके थे। इसके आलावा वे हिंदी साहित्य सम्मलेन के सूत्रधार थे , वहीं कांग्रेस में भी उनका स्थान प्रथम पंक्ति में रहा है। 

सार्वजनिक व्यक्तित्व 

    श्री. लाला लाजपतरायजी द्वारा स्थापित ' लोक सेवा मंडल ' के सदस्य बन जाने से श्री. टंडनजी का कार्यक्षेत्र पंजाब भी बन गया था। सं. 1926 में ' लोक सेवा मंडल ' में व्यस्तता बढ़ जाने से अपनी वकालत को छोड़कर राजर्षि टंडनजी ने सम्पूर्ण जीवन सार्वजनिक कार्यों के लिए अर्पित कर दिया था। 17 नवम्बर 1928  को लाहौर में श्री. लाला लाजपतरायजी की मृत्यु हुई थी , तब राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडनजी ' लोक सेवा मंडल ' के सभापति बने थे। 

                                          ' लोक सेवा मंडल ' का प्रधान कार्यालय लाहौर में स्थित था। इसी कारण राजर्षि टंडनजी को अधिकतर वहीं रहना पड़ा था। इसी के चलते पंजाब के हिंदी - आंदोलन को प्रेरणा मिली और उनके पथ प्रदर्शन में प्रांतीय हिंदी सम्मलेन तथा आर्य समाज , सनातनधर्म - सभा ,देव - समाज आदि द्वारा स्थापित शिक्षण - संस्थाओं में हिंदी के लिए अधिकाधिक स्थान देने की भावना को बल मिला था। 
                                         राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडनजी हिंदी साहित्य सम्मलेन के जन्मदाताओं में से एक थे। इस संस्था की स्थापना में श्री. मालवीयजी के निकटतम सहायकों में उनका नाम प्रमुखता से आता है। यहीं नहीं , सम्मेलन की प्रथम नियमावली श्री. टंडनजी ने ही लिखी हुई है।    
                                                     नकी दूसरी हिंदी सेवा के अंतर्गत सम्मलेन के तत्वावधान में हिंदी विद्यापीठ की स्थापना शामिल है। सम्मलेन हिंदी प्रचार आदि अनेक कार्यों में उलझा रहा था, इसलिए स्वतंत्र रूप से अध्ययन आदि के लिए विद्यापीठ की स्थापना करना राजर्षि टंडनजी को उचित लगा।  सं. 1930 तक विद्यापीठ सम्मलेन का ही एक अंग रहा है। 

स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका 

                                          गांधीजी के आवाहन पर राजर्षि टंडनजी स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े थे।  सं. 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन के सिलसिले में उन्हें गिरफ्तार कर कारावास का दंड मिला था। सं. 1931 में लंदन में आयोजित गोलमेज सम्मलेन से गांधीजी के वापस लौटने से पहले जिन स्वतंत्रता सेनानियों को गिरफ्तार किया गया था उनमे जवाहरलाल नेहरू के साथ राजर्षि टंडनजी भी शामिल थे। 

                                           सं.  1934 में राजर्षि टंडनजी बिहार की प्रादेशिक किसान सभा के अध्यक्ष बने। उन्होंने बिहार किसान आंदोलन के साथ सहानुभूति रखते हुए उनके विकास के अनेक कार्य किये थे। इसके आलावा वे 31 जुलाई 1937 से लेकर 10 अगस्त 1950 तक उत्तर प्रदेश की विधान सभा के प्रवक्ता के रूप में भी कार्य किया था। 
                                           राजर्सी टंडनजी ने मूल्य नियंत्रण पर लोकसभा में बोलते हुए अपने भाषण में कहा था की -
                                       '' कण्ट्रोल की बात आप करते हैं। कण्ट्रोल होना चाहिए। लेकिन केवल कीमत पर ही नहीं। मुख्य चीज तो यह होनी चाहिए कि जीवन पर एक कण्ट्रोल और नियंत्रण हो। लेकिन आज जीवन पर वह कण्ट्रोल कहाँ है ? कण्ट्रोल अपने ऊपर और अपने शासन पर और अपने कार्यकर्ताओं पर होना चाहिए। ''
                                           सके अतिरिक्त राजर्षि टंडनजी ने अपने सूंदर और साहित्यिक विचारों के द्वारा साहित्य सम्मलेन तथा हिंदी सेवी संस्थाओं में प्राण भरते रहने की चेश्टाओं द्वारा हिंदी भाषा और साहित्य की असीम सेवा की है। 
                                            श्री. लाल बहादुर शास्त्रीजी ने लिखा है कि ' सं. 1936 - 37 में नई प्रांतीय धारा सभाओं के चुनाव हुए , जिसमे कांग्रेस ने पूरी शक्ति से भाग लिया। उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस को भारी सफलता मिली और इसका पूरा श्रेय टंडनजी को जाता है। ' राजर्षि टंडनजी ने स्वयं सारे प्रदेश में दौरा किया था। वे स्वयं प्रयाग नगर से विधान सभा के लिए खड़े हुए और उन्हें निर्विरोध विजयी घोषित किया गया था। कुछ समय पश्चात वहां जब मंत्रिमंडल बना , तब राजर्षि टंडनजी सर्वसम्मत रूप से स्पीकर चुने गए थे। 
                                            राजर्षि पुरुषोत्तम टंडनजी को स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के कारण कई बार गिरफ्तार कर लिया गया था। इसी क्रम में सं. 1940 में उन्हें नजरबन्द कर एक वर्ष तक जेल में रहना पड़ा था। राजर्षि टंडनजी को अगस्त 1942 में जेल से रिहा किया गया था। यह उनकी सातवीं जेल यात्रा थी। 
                                             न्होंने राष्ट्रिय संघर्ष में महत्वपूर्ण योगदान निभाते हुए अपने त्याग का परिचय दिया था। राजर्षि टंडनजी ने ' कांग्रेस प्रतिनिधि असेम्बली ' नामक एक संथा का भारतीय समाज में छाई हुई निराशा को दूर करते हुए नई चेतना का संचार किया था। 
                                             राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडनजी के संयत , किन्तु सजीव और ओजपूर्ण शैली ने हिंदी के साहित्य - भंडार को समृद्ध किया है। उनकी हिंदी सेवाओं के सम्बन्ध में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि वे हिंदी साहित्य सम्मलेन तथा अन्य हिंदी - संस्थाओं के अटल प्रहरी और साहित्यिकों के अचूक मार्गदर्शक और प्रेरणा - स्तोत्र रहे थे।  उनके कार्य के लिए भारत सरकार ने उन्हें सं 1961 में  ' भारत रत्न ' से सन्मानित किया थाऔर उनके नाम पर एक डाक टिकट भी जारी किया था आखिर सं 1962  में उन्होंने अपनी आँखें हमेशा हमेशा के लिए मूँद ली। 


 
                                   
                                                   


   
  




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