Get Even More Visitors To Your Blog, Upgrade To A Business Listing >>

केदारनाथ अग्रवाल के काव्य में दाम्पत्य प्रेम

भारतीय लोक परंपरा का वंशज होने की घोषणा करने वाले कवि श्री केदारनाथ अग्रवाल की कविताएँ जनवाद, प्रगतिवाद, लोकवाद, ग्रामीणता, देहातीपन, जनपदीयता आदि विशेषणों से युक्त होते हुए भी, अपनी संवेदना और कथ्य में सार्वभौमिक और सार्वदेशीय हैं। इनकी कविताएँ भारतीयता की मूल संवेदना की स्थापना करती हैं। इनकी कविताओं में भारत के जन-जीवन में झलकने वाला उपजीव्य केंद्रीयभूत हो कर प्रकट हुआ है।  
      केदारनाथ अग्रवाल के कुल तेइस काव्य संकलनों में से मुख्यतः चार काव्य संकलनों ‘मार प्यार की थापें’- 1985, ‘हे मेरी तुम’-1981, ‘जमुन जल तुम’-1984 और ‘बोले बोल अबोल’-1985 में प्रेम संबंधी कविताएँ प्रचुर मात्रा में प्राप्त होती हैं। इन काव्य संग्रहों में मूलतः नर और नारी के बीच उपजने वाले प्रेम का स्वरूप मिलता है। भारतीय साहित्यिक परंपरा यह रही है कि कालिदास से लेकर आधुनक सभी कवि अपनी कविताओं में प्रेम को स्थान दिया है। क्यों न हो जिस प्रकार जीवन प्रेम के बिना ठूँठ है, वैसे ही साहित्य प्रेम रस के बिना सूखा होता है।
      प्रश्न उठता है कि प्रेम क्या है? उसके विषय में प्रायः यह कहा जाता है कि ‘नर और मादा जीवों के बीच एक दूसरे के प्रति सुखद अनुभूति और साहचर्य के भाव ही प्रेम कहलाते हैं।’ दूसरी परिभाषा प्रेम कि यह है कि ‘संसार के सभी सजीव और निर्जीव जीव-जंतुओं और वस्तुओं के प्रति उठने वाला अनुराग प्रेम कहलाता है।’ उपर्युक्त दोनों प्रेम की परिभाषाएँ वैयक्तिक प्रेम, सार्वभौमिक प्रेम और सार्वजनिक प्रेम की व्यापकता को प्रकट करती हैं। युवाओं के लिए “प्यार एक ऐसा खुबसूरत एहसास है, जिसमें अपने से ज्यादा दूसरे का ख्याल रखा जाता है।” प्यार के बारे में लोकोक्ति है कि “प्यार स्वार्थ रहित होता है।” कबीर दासजी प्रेम प्राप्ति के विषय में बहुत स्पष्ट और सटीक बात कहते हैं-
प्रेम न बाड़ी उपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा प्रजा जेइ रुचै, सीस दै लइ जाय।।
      इस प्रकार कबीर दासजी प्रेम में संपूर्ण समर्पण की भावना को अनिवार्य मानते हैं। अतः भारतीय परंपरा में प्रेम बहुत व्यापक शब्द है जिसका विस्तार जगत के प्रति, ईश्वर के प्रति, जीव-जंतुओं के प्रति, सजीव-निर्जीव के प्रति, बाल-बच्चों के प्रति, जाति-देश के प्रति और समाज-संस्कृति के प्रति आदि के लिए सुखद अनुभूति और उसके प्रति समर्पित होने की भावना ही प्रेम है। यही व्यापक प्रेम जब एकांतिक या सीमित हो जाता है जैसे- देश के प्रति, बाल-बच्चों के प्रति, नर-नारी के प्रति, धर्म के प्रति तो इसे देश प्रेम, वात्सल्य प्रेम, प्यार-मोहब्बत, जातीय प्रेम और धर्मिक प्रेम कहते  हैं। परंतु नर-नारी के अतरिक्त अन्य प्रेम एक रेखीय है। अर्थात प्रेमकर्ता प्रेम या लगाव रखने के लिए पूरी तरह से स्वयं पर निर्भर होता है। इस प्रकार के प्रेम में प्रेमी जिस किसी जीव या वस्तु से प्रेम कर्ता है, बदले में उससे समान रूप से प्रेम पाने की अपेक्षा नहीं रखता है। साहित्यिक भाषा में कहें तो प्रेमी प्रेम-वस्तु के प्रति सक्रिय होता है जबकि प्रेम-वस्तु प्रतिक्रिया करने में अक्रिय होती है। इस प्रकार के प्रेम सार्वजनिक, सार्वव्यापी और सामूहिक होता है। अतः इस प्रकार के प्रेम, प्रेम के व्यापक स्वरूप के अंग हैं।
      किंतु जिसे प्यार, मोहब्बत, लव आदि नामों से जाना जाता है। वह नर-मादा अथवा स्त्री-पुरुष के बीच उत्पन्न होने वाला प्रेम है। वास्तव में स्त्री और पुरुष के बीच पाने-चाहने की सुखद अनुभूति को ही प्रेम कहते हैं। नर-नारी के बीच उत्पन्न होने वाला यह प्रेम एकांतिक और दो-रेखीय होता है। इस प्रकार का प्रेम व्यापक प्रेम से भिन्न होता है। इसमें प्रेमकर्ता और प्रेम-वस्तु दोनों प्यार के हेतु एक दूसरे के पूरक होते हैं। जैसी क्रिया प्रेमी द्वारा प्रेमीका के प्रति की जाती है, वैसी ही प्रतिक्रिया प्रेमिका प्रेमी के प्रति भी करती है, इसे संकीर्ण प्रेम या पूरक प्रेम कह सकते हैं। साहित्यिक भाषा में कहें तो यहाँ पर आश्रय और आलम्बन दोनों में प्रेम उत्पन्न होता है, दोनों में क्रिया-प्रतिक्रिया से यह प्रेम आगे बढ़ता है। दो युगलों के बीच सुखद अनुभूति का यही संचार वास्तव में प्रेम, मुहब्बत आदि कहलाता है। यही प्रेम आगे बढ़कर शारीरिक संबंधों तक पहुँच कर चरमानंद को प्राप्त करता है।
      स्त्री-पुरुष के बीच प्रेम उत्पन्न होने के कई कारण उद्दीपन के रुप में कार्य करते हैं, जैसे- सम्भोग की इच्छा, शारीरिक आकर्षण, चारित्रिक सौंदर्य और धन-दौलत आदि। इसमें तत्कालिक आवश्यकता की पूर्ति करने वाला प्यार आवश्यकता की समाप्ति के साथ समाप्त हो जाता है। यह प्यार व्यापार की श्रेणी में आता है, ऐसे प्यार से सुख तो मिलता है किंतु आनंद का अभाव बना रहता है। इस प्रकार के प्रेम को अधम कोटि का प्यार कहते हैं। इसके अतरिक्त गुण, सौंदर्य, भाव और निःस्वार्थ के आधारों पर उपजा प्रेम उच्चकोटि का प्रेम होता है। जिसमें स्त्री-पुरुष एक दूसरे के पूरक होते हैं। एक के सुख-दुख में दूसरे को सुख-दुख की अनुभूति होती है। साहित्य में प्रेमी-प्रेमिका का समर्पित दोतऱफा प्यार, मोहब्बत को प्रेम कहा जाता है। इसके दो रूप होते हैं- स्वकीया और परकीया। स्वकीया प्रेम का संबंध सामाजिक, धार्मिक विधि-विधानों और मान्यताओं पर आधारित होता है, इसे परिवार की सहमति मिली होती है। परकीया प्रेम ऐसा प्रेम होता है जिसे सामाजिक, धार्मिक मान्यताएँ नहीं मिली होती हैं। इस प्रकार के प्रेम में परिवार की सहमति भी नहीं होती है। समाजिक रूप से परकीया प्रेम स्वीकृत नहीं होता है। जहाँ तक भारतीय साहित्य की बात है तो इसमें स्वकीया प्रेम की तुलना में परकीया प्रेम पर कवियों और लेखकों ने अपनी कलम ज्यादा तोड़ी है।
      स्वकीया प्रेम जो सामाजिक, धार्मिक और पारंपरिक मान्यताओं से मान्य होता है तथा वैवाहित विधि-विधान से संपन्न होता है, ऐसे संबंधों से जुड़े स्त्री-पुरुष को पति-पत्नी या दम्पति कहते हैं। विवाह के उपरांत जब दोनों प्रेमी या जीवन साथी जीवन की रपटीली, उबड़-खाबड़ सड़क पर, एक दूसरे का सहारा बनते हुए सुख और आनन्द देते हुए चलते रहते हैं तो इसी जीवन को दाम्पत्य जीवन कहते हैं। दाम्पत्य जीवन में उपजने वाले प्रेम को दाम्पत्य प्रेम कहते है। केदारनाथ अग्रवाल के साहित्य में इस दाम्पत्य प्रेम के मीठे तीखे भावों की बहुत सुंदर अभिव्यक्ति हुई है। दाम्पत्य प्रेम की श्रेष्ठता तो पूरे देश में स्थापित है किंतु अवध प्रदेश में दाम्पत्य जीवन को विशेष महत्त्व है इसका कारण भगवान रामचंद्र जी के पुरुषोत्तम जीवन का आदर्श है। इसी कारण अवधी लोक संस्कार में दाम्पत्य प्रेम को ही आदर्श प्रेम के रूप में स्वीकार गया है। इसी अवधी जनपद के कवि केदारनाथ अग्रवाल है जो इसी लोकादर्श प्रेम को अपनी कविता के माध्यम से प्रकट किया है -
हे मेरी तुम!
कटु यथार्थ से लड़ते-लड़ते
अब न लड़ा जाता है मुझसे
हे मेरी तुम
अब तुम ही थोड़ा मुसका दो
जीने का उल्लास जगा दो। 1 हे मेरी तुम – पृ.68
      केदारनाथ अग्रवाल दाम्पत्य प्रेम की शक्ति महसूस किये थे। उसे ही अपने काव्य का आधार बना कर मानव के सामने आदर्श रूप में उपस्थित किया है। परिवार समाज और देश का उत्थान दाम्पत्य प्रेम पर ही आधारित है। विशेषकर यह दाम्पत्य प्रेम छोटे-छोटे लोगों के जीवन को सुख देता है, उनमें संघर्ष करने की शक्ति पैदा करता है, जीने की मधुर लालसा से जीवन को ओत-प्रोत करता रहता है। इसी दाम्पत्य प्रेम की स्थापना तुलसी ने रामचरित मानस में किया है। यही महाभारत और रामायण में किसी न किसी रूप में प्रकट हुआ है। यही प्रेम भारत के जन-जीवन की परंपरा भी है। इसी दाम्पत्य रस की महत्ता अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ ने ‘वैदेही वनवास’ नामक कविता में की है –
उसमें है सात्वित-प्रवृत्ति-सुमनावली।
उसमें सुरतरु सा विलसित भव-क्षेम है।।
सकल-लोक अभिनन्दन-सुख सौरभ-भरित।
नन्दन-वन सा अनुपम दम्पति-प्रेम है।। 2 वैदेही वनवास-अयोध्यासिह उपाध्याय ‘हरिऔध’ चतुर्थ सर्ग- पृष्ठ-5 छंद-88
      कवि केदारनाथ अग्रवाल के सामने नारी की स्वतंत्रत अस्मिता की स्थापना जन-जन में स्थापित करने का बहुत बड़ा प्रश्न था। देश में सड़ी गली परंपराओं को तोड़ना जो स्त्री को एक भोग्य वस्तु से अधिक नहीं समझती थीं। नारी को स्वतंत्र और पुरुषों के समान बनाने तथा उसे जन-जन में स्थापित करने का महान प्रश्न था। अत: केदार ने दाम्पत्य-प्रेम को सर्वोपरि सत्य माना है। दाम्पत्य जीवन जहाँ पति-पत्नी के बीच बराबरी का संबंध हो, पत्नी जहाँ आश्रिता नहीं बल्कि एक साथी और सहभागी के रूप में मान्य हो। दाम्पत्य प्रेम एक बंधन नहीं बल्कि अभूतपूर्व संभावनाओं का द्वार हो। यही कारण है, जहाँ अधिकतर तत्कालीन कवि अपनी प्रेमिकाओं के प्रति अनुभूतियों और विविध सौंदर्य छवियों को अभिव्यक्ति कर आत्मगौरान्वित होते हैं। उसी समय केदार स्वयं को पत्नी प्रेमी घोषित करते हैं। “मैं मूलतः पत्नी प्रेमी रहा हूँ और मेरी प्रेम की कविताएँ उन्हीं के प्रेम और सौंदर्य की कविताएँ हैं।” 2 जमुन जल तुम पृ.15 यहाँ पर यह कहना उचित होगा की केदार पूर्व के कवि निराला भी अपनी पत्नी के प्रेम पर लट्टू हैं। किंतु जहाँ केदार ने दाम्पत्य जीवन को प्रगतिशील जीवन के आदर्श के रूप में स्थापित करते हैं जबकि निराला लोक जीवन की छबि प्रस्तुत करते हैं-    
रँग गई पग पग धन्य धरा
हुई जग जगमग मनोहरा।  3 गीतिका- सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
      केदार कृषक, मजदूर और प्रकृति के जितने निकट हैं, उतने ही गृह जीवन के भी निकट हैं। उनकी कविता में पत्नी के प्रति उत्कट प्रेम की सहज अभिव्यक्ति के साथ बच्चों के प्रति भी उनकी सहज वत्सल्यता प्रकट हुई है। यद्पि इस प्रकार के भाव सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराल’ की लम्बी कविता ‘सरोज स्मृति’, बाब नागार्जुन पुत्र के जन्म पर लिखी कविता ‘दुंतरित मुस्कान’ और त्रिलोचन आदि तत्कालीन कवियों के द्वारा लिखी गई हैं, किंतु केदार जी की कविताओं में गाँव का जो सोंधापन है वह अन्यत्र कहाँ मिल सकता है। बेटी के जन्म पर केदार कहते हैं-
नवल अंग नन्हा-सा तेरा
तितली-सा दिखलाता है।
पानी की मछली-सा चंचल
तब स्वभाव मन भाता है
अहा, तुझको प्यार करूँ,
बिटिया तुझे दुलार करूँ। 4 जमुन जल तुम पृ.21
      केदार का जीवन आम आदमी की तरह है। उनका प्रेम आम आदमी के प्रेम का आनंद बरसाने वाला है। उनकी दृष्टि में उनकी पत्नी-प्रिया के रूप और सौंदर्य में जितनी मिठास है वैसी मिठास, वैसा माधुर्य न गीतों में है, न कविता में। धर्म-कर्म में वह मिठास असंभव है। पत्नी जो सुखों में साथ दे या नहीं किंतु दुख हरने के लिए सदैव तत्पर रहती है। गाँव या शहर के सामान्य जन के लिए उनकी पत्नी ही उनकी शक्ति होती है, वही मनोरंजक होती है, वही कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाली साथी होती है। उसी पत्नी की स्वतंत्र, सुखद और सहचरी रूपों के आनंद को केदार धर्म-फल के आनंद से उत्तम मानते हैं। क्योंकि हिंदू समाज में बहुत से ऐसे कर्मकाण्ड है जिसको निभाने के लिए पत्नी को दूर रखना पड़ता है। इस लिए केदार स्त्री के पत्नी रूप को धर्म-फल से ऊपर सिद्ध कर समाज को अंधविश्वासों से मुक्त करना चाहते हैं तथा स्त्री की सच्ची और सहयोगी शक्ति को स्थापित करना चाहते है।
है न इतना गीत में रस
है न इतना काव्य में रस
रूप में जिताना तुम्हारे
प्राण प्यारी, है भरा रस।
धर्म फल फीका बहुत है
कर्म फल फीका बहुत है
फिर चखाओ प्राण प्यारी।
प्रेम फल मीठा बहुत है। 5 जमुन जल तुम पृ. 67
केदार के लिए पत्नी शक्ति दायनी है, प्रेम स्वरूपा और आनन्दी है। पत्नी प्रिया की अनुपस्थिति में चाँदनी, फूल तथा पेड़-पौधे की हरियाली मन के अंधकार और सूनेपन को दूर नहीं कर पाते। क्योंकि पत्नी प्रेम और सौंदर्य ही कवि में प्राणों का संचार करने वाले होते हैं। उसी के कारण प्राकृतिक उपादान भी सुखकर लगते है। उसके संतप्त जीवन में विद्रोह की तरंगे भरते हैं। उसकी मुस्कान ही शोषण को जलाकर राख करने की प्रेरणा देती रहती है। वास्तव में केदार लोक के कवि है और वह लोक परंपराओं में आधुनिकता की धार ला कर आम आदमी के सामने सुष्ठ और सकारात्मक मार्ग प्रदर्शित करते हैं जिससे आम आदमी पत्नी और परिवार की शक्ति पर भरोसा और विश्वास कर सके। इस प्रकार आम आदमी निराशा, डर और कठिनाइयों के बीच रास्ता सहजता से खोज सकता है और आत्मविश्वासी बना रह सकता है। इसलिए केदार जी कहते हैं-
प्राणमयी मुस्कान तुम्हारी,
जब कूलों को पार करेगी।
दीन-दुखी मेरे जीवन में,
तब विद्रोही ज्वार भरेगी।
ज्वालामयी मुस्कान तुम्हारी,
जब शोषण को क्षार करेगी।
      पर पीड़ित मेरे जीवन में,
      तब आशा-उद्गार भरेगी। 6 जमुन जल तुम पृ.75
कवि अपनी पत्नी-प्रिया की इस मुस्कान को हृदय से महसूस करता है। इसी मुस्कान की शक्ति से, वह संसार की विपत्तियों से लड़ने का हौसला रखता है। पत्नी द्वारा माथे पर लिया गया चुम्बन तिलक के समान है, जो उसे जीवन के घमासान में अडिग रहने की प्रेरणा देता है। भारतीय संस्कृति है कि जब माता अपने पुत्र को रण-क्षेत्र में भेजती है तो माथे पर चुम्बन का तिलक लगाती है। माँ का चुम्बन पुत्र को युद्ध क्षेत्र में आये घनघोर संकट में शक्ति देता है और उसका पुत्र विकट परिस


This post first appeared on जनजन की आवाज़ (PEOPLE'S VOIC, please read the originial post: here

Share the post

केदारनाथ अग्रवाल के काव्य में दाम्पत्य प्रेम

×

Subscribe to जनजन की आवाज़ (people's Voic

Get updates delivered right to your inbox!

Thank you for your subscription

×