"सुनिता (कामवाली) के बेटी की शादी में उपहार में क्या देना है?" शिल्पा ने पंकज (उसके पति) से पूछा।
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''500 रुपए का लिफाफा दे देना। वैसे तो 500 रुपए भी ज्यादा ही होते है। लेकिन दे दे देना...गरीब के काम आयेंगे!"
''दे देना मतलब? क्या आप नहीं चलोगे शादी में? उसने कई बार जोर देकर कहा है कि सपरिवार आना।"
''अरे यार...समझा करो! तुम जा रही हो न। अब मैं उसके यहां जाते अच्छा भी लगुंगा क्या? कुछ तो मेरी हैसियत का सोचा करो!"
कुछ दिनों बाद...
''शिल्पा, कल बॉस के बेटे की शादी है। हम सभी चलेंगे।''
''उपहार में क्या देंगे?"
''कम से कम 5100 रुपए तो देना ही पड़ेगा!"
''5100 रुपए ज्यादा नहीं होंगे? हमारा महीने का बजट गडबड़ा जाएगा।"
''इससे कम देंगे तो बॉस क्या सोचेंगे? इज्जत का सवाल है। देना ही पड़ेगा!"
शादी के एकाध महीने बाद...
शिल्पा की बॉस के पत्नि से फोन पर बात होती है।
''आप लोग शादी में आए नहीं?"
''हम तो सपरिवार आए थे!"
"ओ...हो...वो क्या है इतने मेहमानों में ख्याल ही नहीं रहा!"
शिल्पा सोचने लगी कि जिनको ये ही नहीं पता कि हम शादी में आए थे या नहीं, उन्हें हमारे द्वारा (महीने का बजट बिगाड़कर) दिए 5100 रुपए कहां याद होंगे! काश, इतने रुपए हमने सुनिता के बेटी की शादी में दिए होते तो वो उस उपहार को जिंदगी भर याद रखती!!
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