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बुलबुल के पंखों पर सावरकर: आखिर हम हमारी भावी पीढ़ी को क्या सीखाना चाहते है?


दोस्तों, हमारे देवी-देवताओं की सवारियों का वर्णन हमारे धार्मिक ग्रंथों में आता है। जैसे शंकर जी का वाहन नंदी, विष्णु जी का गरूड़, लक्ष्मी जी का उल्लू, सरस्वती जी का हंस और गणेश जी का चूहा आदि। चूंकि ये सब देवी देवता है...सभी तरह की शक्तियों से परिपूर्ण है...इसलिए उनकी अथाह शक्ति से कुछ भी संभव हो सकता है। 

शायद आप सोच रहे होंगे कि ये सब तो सबको पता है तो फिर मैं ये क्यों बता रही हूं। बात कुछ ऐसी है कि कर्नाटक के सरकारी स्कूल की 8 वीं कक्षा के बच्चों को अजीबोगरीब शिक्षा दी जा रही है। उनकी किताब में एक पैराग्राफ है जिसमें लिखा गया है, "जिस कमरे में सावरकर बंद थे, वहां एक छोटा सा सुई के बराबर सुराख भी नहीं था। यहां तक कि हवा भी मुश्किल से आती जाती थी। लेकिन किसी तरह उनके कमरे में एक बुलबुल आया करती थी, जिसके पंख पर बैठकर वो मातृभूमि की सैर किया करते थे!" 

इस अजीब सी शिक्षा के बारे में बात करने से पहले यह जानना जरूरी है कि सावरकर को जेल क्यों हुई थी और जेल से रिहा होने के लिए क्या था उनका माफीनामा? 
1910-11 तक सावरकर क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल थे। वे पकड़े गए और 1911 में उन्हें अंडमान की कुख्यात जेल में डाल दिया गया। उन्हें 50 वर्षों की सज़ा हुई थी, लेकिन सज़ा शुरू होने के कुछ महीनों में ही उन्होंने अंग्रेज़ सरकार के समक्ष माफीनामा डाला कि उन्हें रिहा कर दिया जाए। उनका माफीनामा स्वीकृत न होने पर उन्होंने कई याचिकाएं लगाईं। अपने माफीनामे में उन्होंने अंग्रेज़ों से यह वादा किया कि "यदि मुझे छोड़ दिया जाए तो मैं भारत के स्वतंत्रता संग्राम से ख़ुद को अलग कर लूंगा और ब्रिटिश सरकार के प्रति अपनी वफ़ादारी निभाऊंगा।" अंडमान जेल से छूटने के बाद उन्होंने यह वादा निभाया भी। 

अब आते है बुलबुल की सवारी पर। ये बात एक छोटा बच्चा भी आसानी से समझ सकता है कि इतनी हल्की (महज 25 ग्राम से कम वजन की) और इतनी छोटी (लंबाई 15 सेंटीमीटर से 26 सेंटीमीटर तक) चिड़िया के पंखों पर कोई इंसान कैसे सवार हो सकता है? लेखक को या उनके प्रशंषको को इतनी सरल सी बात समझ में क्यों नहीं आई? और भी कई सवाल पैदा होते है जैसे कि 
• क्या सावरकर देवता थे या किसी देवता के अवतार थे जो बुलबुल के पंखों पर सवार हो सकते थे? यदि हां, तो यह बात आज तक किसी इतिहासकार ने जनता को क्यों नहीं बताई? 
• क्या सावरकर हैरी पॉटर या सुपर मैन जैसे एक काल्पनिक पात्र थे जो चीड़िया पर सवार हो सकते थे?  
• जब कमरे में जाने के लिए सुई के बराबर भी सुराख नहीं था तो बुलबुल कमरे में कैसे आती जाती थी? क्या बुलबुल मिस्टर इंडिया के नायक की तरह अदृश्य होकर कमरे में आती जाती थी? या खुद सावरकर कमरे की दीवार के आरपार अदृश्य होकर जेल से बाहर निकलकर बुलबुल की सवारी करते थे? शायद अदृश्य होकर जेल के बाहर निकलने के कारण ही जेल के बाहर तैनात सुरक्षाकर्मियों को वो दिखते नही थे! 
• सावरकर बुलबुल पर बैठकर जेल से बाहर आ ही जाते थे, तो वापस जेल में क्यों जाते थे ? 
• जब इतनी सैर सपाटे की बुलबुल उड़ान की सुविधा प्राप्त थी, तो इतने सारे माफीनामे लिखने की क्या जरूरत थी? 

इन सवालों के जवाब से कर्नाटक के स्कूल में जो पढ़ाया जा रहा है उस बात की सच्चाई पता चल जाती है।

दोस्तो, क्या आपको पता है कि हमारे देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य क्या है? हमारा सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि हमारे देश और समाज में मनुष्य के दिमाग में अज्ञानता, अंधविश्वास, धर्मांधता और पाखंडों का कचरा हजारों साल से भरा जा रहा था, भरा जा रहा है और न जाने कब तक भरा जाता रहेगा! सबसे बड़ा खेल हमारे यहां का शासक वर्ग और सरकारें खेलती रही हैं। उन्होंने कभी भी जनता को बौद्धिक रूप से मुक्त करने की, उसे आजाद करने की, उसे अपने पैरों पर खड़ा होने की शिक्षा दी ही नहीं और वह आज भी यह चाहता है कि हमारे देश की जनता धर्मांधता, अज्ञानता, अंधविश्वास और पाखंडों के साम्राज्य में रची बसी रहे। वह अपने विवेक का, ज्ञान बुद्धि का, लॉजिक का इस्तेमाल ही ना करें। 

हकीकत यह है कि कुछ लोगों को छोड़कर, यहां की अधिकांश जनता उपरोक्त कपोल कल्पित बातों और मनगढ़ंत कथाओं को सच माने बैठी हुई है। वह आज के वैज्ञानिक युग में भी हकीकत को, ज्ञान को, तर्क वितर्क को और वैज्ञानिक संस्कृति को अपनाने को तैयार नहीं है। मोदी सरकार ने नई शिक्षा नीति लागू की तो उम्मीद थी कि अब मौलिक एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण को और अधिक महत्व मिलेगा लेकिन हुआ क्या? मोदीजी की आत्मकथा में मोदीजी मगरमच्छ को उठाकर घर लाते हैं, माँ के डांटने पर वापस छोड़ देते हैं और सावरकर की जीवनी में जेल में बंद इंसान बुलबुल चिड़िया में बैठकर भारत भूमि का भ्रमण करते हैं? 

माना कि इतिहास में सबका जिक्र जरूरी है लेकिन थोड़ी तर्कशक्ति को जरूर जगह दीजिए अन्यथा बच्चे बड़े होकर हसेंगे कि हमें क्या पढ़ाया गया? हमारी शिक्षा व्यवस्था पहले ही कमजोर है उसे और कमजोर नहीं करना चाहिए। झूठ परोसकर हम कभी सत्य से नहीं जीत सकते। इसलिए भावनात्मक नहीं तथ्यात्मक बनिये। हम भारत में मौलिक शिक्षा चाहते हैं, जिसमें बच्चों की तर्कशक्ति बढ़े। हमें इस बात का जरूर ख्याल रखना होगा कि हम हमारी भावी पीढ़ी को क्या सीखाना चाहते है? 

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