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मृत्युभोज: एक प्रथा जिसे हमने कुप्रथा बना दिया!


सामाजिक कार्यक्रमों में एवं सोशल मीडिया पर मृत्युभोज को एक कुरीति कहा जा रहा हैं। सोचने वाली बात ये है कि जब मृत्युभोज के खिलाफ समाज मे इतना रोष है तो फिर आज भी समाज में मृत्युभोज का आयोजन बड़े पैमाने पर क्यों किया जाता है? गरीब लोग कर्ज लेकर भी मृत्युभोज का आयोजन क्यों करते है? असल में मृत्युभोज करवाने का जो मूल उद्देश्य था वो गलत नहीं था। आज दिखावे के चक्कर में मृत्युभोज की प्रथा को हमने कुप्रथा बना दिया है। 

मृत्युभोज की शुरुआत कैसे हूई? 
हमारे पुर्वजों ने मृत्युभोज की शुरुवात बहुत सोच-समझ कर की थी। प्रियजन की मृत्यु से परिवार के लोग बेहद दुखी रहते थे। दुखी रहते वे खाना तक नहीं खाते थे जिससे वे बीमार पड़ कर अशक्त हो जाते थे। कुछ लोग तो सदमे में आत्महत्या तक कर लेते थे। जाने वाले के साथ कोई जा नहीं सकता, चाहे वह उसका कितना ही प्रिय क्यों न हो! अपने प्रियजन की मृत्यु के दु:ख से बाहर आना हर इंसान के लिए जरुरी है। इसलिए ये व्यवस्था की गई कि मृतक के खास परिचित एवं रिश्तेदार 12-13 दिन मृतक के परिजनों के पास ही रहेंगे और परिवार वालों को धीरज बंधा कर उनका दुख कम करने की कोशिश करेंगे। परिचित एवं रिश्तेदार मृतक के घर पर अनाज, फल, वस्त्र और अन्य सामग्री लेकर जाते थे ताकि मृतक के परिवार पर आर्थिक बोझ न पडे। इसी सामग्री से खाना बनता था। रिश्तेदार मृतक के परिवार वालों को प्यार से मनुहार कर खाना खाने बाध्य करते थे। लेकिन इस दौरान भोजन सादा ही रहता था ताकि परिवार वालों को ख़राब न लगे। फ़िर 12 वे या 13 वे दिन ऐसे सभी परिचित या रिश्तेदार जमा होते थे जो अब तक न आ पाएं हो। मृतक का परिवार इन सभी के भोजन की व्यवस्था करता था जिसे मृत्युभोज कहा जाता था।
सिर्फ़ राजा महाराजा लोग एवं अमीर लोग पूरे गांव का भोज रखते थे। आम इंसान ज्यादा लोगों को मृत्युभोज नहीं देता था और न ही मृत्युभोज में ढेर सारे पकवान बनाए जाते थे। इस तरह मृत्युभोज की शुरुआत हुई।  

मृत्युभोज मौत का जश्न नहीं हैं! 
परिजन की मृत्यु से हुई क्षति तेरह दिनों के बाद न तो पुर्ण होती हैं और न ही उनसे बिछड़ने का गम समाप्त होता हैं। दुख प्रकट करने दूर-दूर से आये रिश्तेदारों और परिचितों को भोजन कराना उचित है। लेकिन पूरे समाज को भोज कराने का क्या कारण है? क्या मौत का जश्न मनाने के लिए मृत्युभोज का आयोजन किया जाता है? हमें यह समझना होगा कि मृत्युभोज मौत का जश्न नहीं है। 

मृत्युभोज की प्रथा गलत नहीं थी हमने उसे कुप्रथा बना दिया!! 
• दुख प्रकट करने बाहर से आए हुए लोगों को खाना खिलाना गलत नहीं था। लेकिन एक गरीब व्यक्ति जिसके घर खाने के लिए पर्याप्त भोजन उपलब्ध न हो उसे मृतक की आत्मा की शांति के लिए मृत्युभोज के लिए मजबूर करके हमने इसे कुप्रथा बना दिया! क्योंकि मृत्युभोज के लिए उसे कर्ज लेना पड़ेगा और वो गरीब व्यक्ति कर्ज के बोझ से बरबाद हो जाएगा। कुछ लोगों का कहना होता है कि समाज किसी व्यक्ति पर कर्ज लेकर मृत्युभोज करवाने के लिए दबाव नहीं डालता। कोई भी व्यक्ति अपनी मर्जी से मृत्युभोज करवाता है। सोचने वाली बात ये है कि भले ही समाज मृत्युभोज के लिए दबाव न डालता हो लेकिन हर व्यक्ति को लगता है कि यदि मैं ने मृत्युभोज नहीं करवाया तो समाज में मेरी बदनामी होगी...इसी डर से न चाहते हुए भी कर्ज लेकर गरीब लोग मृत्युभोज करवाते है। 
• मृत्युभोज गलत नहीं है, गलत है...जिस बेटे ने जीते-जी माता-पिता को एक ग्लास पानी न पिलाया हो उसके द्वारा लोकलाज के डर से मृत्युभोज करवाना! 
• मृत्युभोज गलत नहीं है, गलत हैं...मृत्युभोज में ढेर सारे व्यंजन परोसकर अपनी संपन्नता का प्रदर्शन करना! अपनी संपन्नता प्रदर्शित करने के लिए ज्यादा से ज्यादा लोगों को भोज देना। मृत्युभोज सिर्फ़ खास परिचित और रिश्तेदारों को ही दिया जाना चाहिए एवं मृत्युभोज में हलवा-पूरी न बना कर सादा भोजन ही बनाना चाहिए। यदि आपको अपनी संपन्नता का प्रदर्शन करना ही हैं तो मृतक के नाम पर किसी अनाथालय में दान दीजिए, किसी गरीब की सहायता कीजिए या स्कूल-कॉलेजो में मृतक के नाम पर कुछ राशी का इनाम घोषित कीजिए ताकि वो राशी हर साल प्रथम आने वाले छात्र को उपहार स्वरुप दी जाएं। इससे छात्रों को प्रेरणा मिलेगी और मृतक का नाम भी होगा। 
• मृत्युभोज गलत नहीं है, गलत है...आने वाले मेहमानों को स्मृतिचिन्ह देना।  पहले आने वाले मेहमानों को स्मृतिचिन्ह इसलिए दिए जाते थे ताकि मेहमानों को यह एहसास दिला सके कि मृतक के दुनिया से चले जाने के बाद भी उसके संबंधियों का घर से नाता बना रहे। परिवार व रिश्तेदार एकजुट रहें। पहले के जमाने में सभी परिचित एवं रिश्तेदार मृतक के घर कुछ न कुछ लेकर जाते थे। तो ऐसे में यदि वे परिचित एवं रिश्तेदारों को स्मृतिचिन्ह देकर बिदा करते थे तो भी उन पर आर्थिक बोझ नहीं पड़ता था। लेकिन अब मृतक के घर कुछ लेकर जाने की प्रथा बंद होने से स्मृतिचिन्ह का अतिरिक्त भार मृतक के परिवार वालों पर पड़ता हैं। 
• मृत्युभोज गलत नहीं है, गलत है...आने वाले मेहमानों की अनुचित अपेक्षाएं! कई मेहमान ऐसे दु:खी माहौल में भी परिवार वालों के दु:ख की पर्वा न कर सिर्फ़ खुद की सुविधाओं के बारे में सोचते है जो गलत है। 

मृत्युभोज क्यों नहीं करना चाहिए? 
• महापुरुषों ने मृत्युभोज का जोरदार ढंग से विरोध किया है। जिस भोजन को बनाने का कृत्य जैसे आटा गूंथा जाता है तो रोकर एवं पूड़ी बनाई जाती है तो रोकर यानि हर कृत्य आँसुओं से भीगा हुआ होता है। यहाँ तक कि खाना खिलाने वाला खाना खिलाता है तो आंसू बहा कर और खाना खाने वाला भी खाता है तो आंसू बहा कर। ऐसे आंसुओं से भीगे निकृष्ट भोजन एवं तेरहवीं भोज का पूर्ण रूपेण बहिष्कार कर समाज को एक सही दिशा देनी चाहिए। 
• जानवर भी अपने साथी के बिछड़ जाने पर उस दिन चारा नहीं खाते है और अपने आप को बुद्धिमान मानने वाला इंसान अपनों की मृत्यु पर हलवा-पूड़ी खाकर शोक मनाने का ढोंग रचता है...इससे निंदनीय कोई कार्य हो ही नहीं सकता! 
• मृत्युभोज शास्त्र सम्मत नहीं है। किसी भी धर्म ग्रन्थ में मृत्युभोज का विधान नहीं है बल्कि महाभारत के अनुशासन पर्व में लिखा है कि मृत्यु भोज खाने वाले की ऊर्जा नष्ट हो जाती है। 
• अंतिम संस्कार 16 वां संस्कार है। 17 वां संस्कार मृत्युभोज कहां से आ गया? यह किसी के लिए दिखावा है, तो ज्यादातर के लिए मजबूरी कि समाज क्या कहेगा...! ऐसा दिखावा किस काम का, जो गरीब को कर्जदार बना दे। 

मृत्युभोज बिल्कुल बंद होना चाहिए। दोस्तों, हम मृत्युभोज करवाने वाले को तो मना नहीं कर सकते लेकिन यदि हम स्वयं ऐसे आयोजनों में न जाए तो धीरे-धीरे ही सही लोगों को लगने लगेगा कि मृत्युभोज में लोग नहीं आते है...और इस सोच के चलते शायद इस कुप्रथा पर अंकुश लग जाए! 

मृत्यु भोज पर एक कविता पढ़ी थी उसका यहां उल्लेख करूंगी- 

जिस आँगन में पुत्र शोक
 से बिलख रही माता, 
 वहाँ पहुच कर स्वाद जीभ का 
तुमको कैसे भाता? 

पति के चिर वियोग में 
व्याकुल युवती विधवा रोती, 
बड़े चाव से पंगत खाते 
तुम्हें पीर नहीं होती? 

मरने वालों के प्रति अपना 
 सद्व्यवहार निभाओ, 
 धर्म यही कहता है बंधुओ 
मृतक भोज मत खाओ! 

चला गया संसार छोड़ कर
 जिसका पालन हारा, 
 पड़ा चेतना हीन जहाँ 
पर वज्रपात दे मारा। 
 खुद भूखे रह कर भी 
परिजन तेरहबी खिलाते, 
 अंधी परम्परा के पीछे 
जीते जी मर जाते! 

इस कुरीति के उन्मूलन का 
 साहस कर दिखलाओ, 
 धर्म यही कहता है बंधुओ, 
मृतक भोज मत खाओ!! 

 दोस्तों, ये मेरे अपने विचार हैं...जरुरी नहीं कि आप इससे सहमत ही हो। आप की क्या राय है टिप्पणी के माध्यम से जरूर बताइएगा। 

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