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फ़िल्म पंगा : अधूरे सपनों को पूरा करने की जद्दोजहद

हमारे देश क्या पूरे संसार में ही कुछ वर्ष पहले तक लड़के/लड़कियों के काम सुनिश्चित थे।उन्हें शादी कर घर और बच्चे की देखभाल करनी है और लड़के को नौकरी कर पैसे कमाना है।धीरे धीरे बदलाव आए लड़कियाँ पढ़ने लगीं, नौकरी करने लगीं लेकिन घर और बच्चे की जिम्मेवारी आज भी उनकी ही है।(अपवाद छोड़कर)

पर जब लड़कियाँ पढ़ रही होती हैं,बढ़ रही होती हैं,उनके भी कई शौक होते हैं। वे खेलती हैं, पेंटिंग करती हैं, गाने गाती हैं,लिखती हैं पर फिर वही शादी-बच्चे और सबकुछ बैकसीट पर। पर अगर कोई शादी-बच्चे के बाद भी वापस अपनी कला,अपने खेल में वापस लौटना चाहे तो उसे उसके पूरे परिवार,दोस्त, सहकर्मी सबके सहयोग की जरूरत होती है।खुद पर भी बहुत मेहनत करनी होती  है।समय आगे निकल गया होता है और हर क्षेत्र में बहुत बदलाव आ गए होते हैं। उस लेवल तक खुद को लाने के लिए कड़े परिश्रम की आवश्यकता होती है।

फ़िल्म 'पंगा' एक कबड्डी खिलाड़ी की इसी यात्रा और संघर्ष की कहानी है। पति और समाज ने खेल में उसकी सफलता देखी है ।पर उसके बेटे ने सिर्फ उसका 'मम्मी रूप' ही देखा है। वो एक कड़ी बात कह देता है, 'रेलवे में टिकट ही तो काटती हो।' हालांकि बेटे के मुँह से ये ताना अच्छा नहीं लगता पर आजकल बच्चे ऐसा बोलते हैं और कार्टून देखकर तो उनकी भाषा और लहजा बिल्कुल ही बदल गया है।पर जब बच्चे को पता चलता है कि उसकी माँ राष्ट्रीय स्तर की कबड्डी खिलाड़ी रह चुकी है तो वह उनके कम बैक के लिए बहुत जोर देता है। सेरेना विलयम्स का उदाहरण भी देता है पर एक बात समझ नहीं आई। फ़िल्म के लेखक/निर्देशक ने मैरी कॉम का उदाहरण क्यों नहीं दिया। पश्चिम की तरफ देखने की आदत हमारी जाएगी नहीं 😏

जया निगम के कम बैक की मेहनत बहुत तफ़सील से दिखाई गई है।अक्सर किसी खेल पर बनी फिल्म में खेल कम होता है,इमोशन और ड्रामे ज्यादा होते हैं।पर इसमें बहुत सारा कबड्डी भी है। कंगना की ट्रेनिंग, अड़चनें, असफलता और फिर सफलता सब देखने को मिलती है।
फ़िल्म में एक रोचक दृश्य है। किसी की दमित इच्छाएं, अवचेतन में किसी भी रूप में निकल सकती हैं। सबलोग फिल्म देखने जाएंगे नहीं, इसलिए बता देती हूँ ,जया नींद में लात चलाती हैं। तो नए-नवेले पतियों, पत्नी की इच्छा रोकने की कोशिश मत करना।और लड़कियों तुम्हें भो आइडियाज मिल गए हैं 😀

पति के रूप में जस्सी गिल का काम बहुत अच्छा है।फ़िल्म देखकर ही सही ऐसे संवेदनशील,समर्पित, हेल्पफुल,प्यार करने वाले पतियों की संख्या में इज़ाफ़ा हो तो बेहतर :)  नीना गुप्ता माँ के छोटे से रोल में हर दृश्य में अपनी छाप छोड़ जाती हैं। सिनेमा अब निरूपा राय वाली माँ के इमेज से बहुत आगे निकल गया है। माँ अपनी ज़िंदगी भी जीती है, बेटी से असहमति भी दिखाती है और समय पड़ने पर उसकी सहायता भी करती है।हालांकि बच्चे के मुँह से नानी का मजाक कुछ अच्छा नहीं लगता। हर बच्चा अपनी नानी के बहुत करीब होता है (जैसा मैंने अब तक देखा है)।
ऋचा चड्ढा ने बिंदास दोस्त की भूमिका बहुत अच्छी निभाई है । सिर्फ लड़के ही नहीं, अब लड़कियाँ भी अपना सबकुछ छोड़कर अपनी सहेली की सहायता के लिए आ सकती हैं।

फ़िल्म क्वीन से ही 'कंगना रनौत' ने साबित कर दिया है कि वे बड़ी कुशलता से पूरी फिल्म अपने कंधे पर ढो सकती हैं। माँ-खिलाड़ी हर रोल में उनका अभिनय बहुत सहज है। अब उनकी फैन फॉलोइंग भी जबरदस्त हो गई है। मेरी एक फ्रेंड जिसे फिल्मों में खास रुचि नहीं है, उसने जैसे ही सुना कि नायिका कंगना रानौत है, ना उसने फ़िल्म का नाम पूछा ना विषय और फ़िल्म देखने को तैयार हो गई।

'निल बटे सन्नाटा' के बाद निर्देशक 'अश्विनी अय्यर तिवारी' की फ़िल्म 'पंगा' से पता चलता है,उनमें  छोटे छोटे क्षण पकड़ने की अद्भुत क्षमता है। फ़िल्म में जरा भी बोझिलता नहीं है। पूरी फिल्म में एक खुशनुमा अहसास छाया रहता है। उनसे आगे भी ऐसी फिल्मों की उम्मीद बनी रहती है जहाँ स्त्री कभी भी आस नहीं छोड़ती और डिप्रेशन में नहीं जाती बल्कि हर हाल में ज़िन्दगी जीना नहीं छोड़ती।

ये फ़िल्म महिलाओं से ज्यादा पुरुषों को देखनी चाहिए। महिलाएं तो अपनी इच्छाएं/सपने जानती ही हैं। पुरुषों को प्रेरणा लेनी चाहिए कि किस तरह वे उनके सपने पूरे करने में सहायक हो सकते हैं ।


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