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लाहुल -स्पीती यात्रा वृत्तांत -- 5 (चंद्रताल )


काज़ा से  हम चंद्रताल झील देखने के लिए रवाना हुए. इस ट्रिप पर आने से पहले मैंने लाहुल स्पीती पर कुछ यात्रा संस्मरण पढ़े थे .उसमे सबसे ज्यादा जिन स्थानों को देखने की इच्छा  थी वो था भारत-तिब्बत  सीमा पर बसा अंतिम गाँव 'चितकुल' और 'चंद्रताल झील'. झील का सबने ऐसा वर्णन किया था कि बस लग रहा था कब वो घड़ी आये और मैं झील के सामने हूँ . चंद्रताल में चन्द्रभागा पहाड़ियों में स्थित चन्द्रा ग्लेशियर की वजह से हमेशा पानी भरा रहता है  . कहा जाता है कि युधिष्ठिर सशरीर स्वर्ग जाने के लिए इंद्र के रथ पर सवार होकर  यहीं से चले थे . इस झील का पानी पल पल रंग बदलता है. कभी गहरा नीला, कभी फिरोजी नीला तो कभी आसमानी .नीले रंग के हर शेड इस पानी में दिखते हैं. पानी इतना साफ़ है कि बगल की हिमाच्छादित चोटयों की परछाईं पानी में ऐसी लगती हैं मानो झील में ही कोई पहाड़ उग आया हो. 

रास्ते में एकाध विदेशी तो इन पहाड़ी रास्तों पर साइकिल से जाते दिखे. कुछ दूर जाने पर एक लम्बे चौड़े ,बढ़ी हुई दाढ़ी और लम्बे बालों वाले विदेशी ने गाड़ी को हाथ दिखाया . बिलकुल आदि मानव लग रहा था. हमने गाड़ी रोक कर उन्हें और उनके पार्टनर को लिफ्ट दी . पुरुष ऑस्ट्रिया से थे और महिला ऑस्ट्रेलिया की  थीं. बातचीत होने लगी.पता चला पुरुष का  ये भारत का आठवां ट्रिप है . वे हमारे देश के बारे में हमसे ज्यादा जानते थे ,सुदूर दक्षिण, उत्तरांचल, सभी जगहों के छोटे छोटे शहरों का नाम वे इतनी सहजता से ले रहे थे कि हमें ही झेंप हो आई. मैं जब भी विदेशियों को इस तरह घूमते देखती थी तो सोचती थी आखिर ये इतने लम्बे लम्बे ट्रिप मैनेज कैसे कर लेते हैं. इसमें तो बहुत पैसे लगते हैं और नौकरी में इतनी छुट्टी तो मिलती नहीं.अपने देश में तो यही देखती हूँ, मुश्किल से हफ्ते-पन्द्रह दिनों की छुट्टी लोग निकाल पाते हैं . उनलोगों ने बताया कि वे नौकरी कर पैसे जमा कर लेते हैं और फिर घूमने निकल जाते हैं. जिस देश में जाते हैं,वहाँ भी काम कर लेते हैं. महिला ने बतया कि तमिलनाडू में पन्द्रह दिनों तक उसने वृक्षारोपण का कार्य किया .फ्रांस में दोनों जन घोड़ों की देखभाल कर लेते थे .और फिर इनके ज्यादा खर्चे भी नहीं. भी नहीं .वे लोग ज्यादा से ज्यादा लिफ्ट लेकर ही चलते हैं या फिर बसों में सफर करते हैं. होटल में नहीं रुकते,अक्सर 'होम स्टे' करते हैं. जिसमे बहुत कम पैसे लगते हैं. पर्यटन स्थलों  पर ;होम स्टे' का बहुत चलन है. स्थानीय लोग अपने घर में एकाध कमरे यात्रियों को होटलों की अपेक्षा बहुत कम किराए पर दे देते हैं .खाने का भी इंतजाम कर देते हैं. इस तरह  उन्हें भी घर बैठे अच्छे पैसे मिल जाते हैं और घुमक्कड़ लोगों के पैसे भी बच जाते हैं. 2 बजे के करीब हम 'लोसार' पहुँच गए. इन विदेशी युगल को वहीँ उतरना था .वहाँ से वे मनाली जाने के लिए लिफ्ट का इंतज़ार करने लगे . स्टेफी को मेरी एक अंगूठी बहुत अच्छी लगी .सफर में मैं हमेशा नकली टॉप्स, अंगूठी ही पहनती हूँ..कहीं गिर भी जाए तो चिंता नहीं. और यूँ ही नहीं कहते नकली चीज़ें ज्यादा चमकती है. अंगूठी के नग की चमक स्टेफी को भा गई थी. और मैंने वो अंगूठी उतार कर उसे पहना दी. वो बिलकुल घबरा कर ना ना कहने लगी .फिर मैंने समझाया कि असली नहीं है, बहुत सस्ती है . स्टेफी बार बार गले  मिल कर थैंक्स कहने लगी . वो ऑस्ट्रियन भी मुस्करा रहा था.

मैंने ड्राइवर सौरभ से कहा, 'यहीं खाना खा लेते हैं पर वो बोला, 'नहीं नहीं आगे खायेंगे ' .मैंने सोचा ,'ये तो इसी रास्ते पर आता जाता है...इसे ज्यादा पता होगा,शायद इसकी कोई फेवरेट जगह भी हो  " .पर आगे ऐसा सुनसान और बीहड़ रास्ता था ,कि एक चाय की टपरी भी नहीं थी .सौरभ  का भूख से बुरा हाल  था . हमलोग बिस्किट,नमकीन लेकर चलते थे. पर ऐसे सुनसान खतरनाक पहाड़ी रास्तों पर धूप में मजदूरों को काम करते देख मुझे इतना बुरा लगता कि हर बार मैं गाड़ी रोक कर उन्हें सबकुछ दे देती .बल्कि उन्हें देने के लिए ,स्पेशली जूस, बिस्किट वगैरह खरीद कर रखने भी लगी थी . थोड़ी देर पहले ही मैंने गुलाबी दुपट्टे ओढ़े, कुम्हलाये चेहरे वाली कुछ कोमलांगियों को सब दे दिया था .'कुंजुम पास ' के पास दूर से ही रंग बिरंगे प्रेयर फ्लैग्स टंगे देख हमें आस बंधी .सौरभ ने कहा, 'यहाँ जरूर कोई ढाबा होगा' . पर वहाँ सिर्फ बड़े बड़े प्रेयर  ड्रम्स जिन्हें गोल गोल घुमाते हैं ,लगे हुए थे .बुद्ध की एक मूर्ति थी और रंगीन पताके टंगे हुए थे. हिमालय की सफेद चोटियाँ ,इतनी  पास लग रही थीं कि लग रहा था बस कुछ कदम की दूरी पर हैं (जबकि काफी दूर थीं ) .थोड़ी फोटोग्राफी कर हम आगे चल दिए. लाहुल स्पीती के सारे रास्ते तो खराब ही हैं पर चंद्रताल का रास्ता ख़ासा ऊबड़खाबड़ है .कई जगह रास्ते पर ही झरना बह  रहा था .कहीं कहीं हमें उतर कर पैदल चल रास्ता पार करना पड़ा. पानी इतना बर्फीला  था कि दो मिनट में ही जान निकल गई . चंद्रताल के पास पहुँचते दूर से ही कुछ टेंट नजर आने लगे पर हमने कहा कि झील के बिलकुल पास वाले टेंट में रुकेंगे . हलांकि झील के पास टेंट लगाने की  मनाही है ताकि झील की प्राकृतिक सुन्दरता बरकरार रहे  और मानव जाति उसे कोई नुक्सान ना पहुंचा सकें. यह एक बहुत ही अच्छा कदम है . थोडा और आगे बढ़ने  पर कई सारे रंग बिरंगे टेंट लगे हुए दिखे..कहीं जीप ,मोटरसाइकिल , मिनी बस लगी हुई थी .काफी सारे लोग नजर आ रहे थे . पूछने पर पता चाल, यही अंतिम पड़ाव है.इसके बाद टेंट लगाने की  मनाही है. तेंग जिंग ने हमें टेंट दिखाया .हमने सामान रखा और उस से फरमाईश की जो कुछ भी सबसे जल्दी बन सकता है, बना कर हमें खिलाये 'उसने कहा, सब्जी डली खिचड़ी बनवा दे रहा है. हम सहर्ष तैयार हो गए. मिनी बस के लोग 'चंद्रताल' देखने  जाने के लिए बस में सवार हो रहे थे . सौरभ को भूख भी लगी थी और थोड़ी देर में रात हो जाती. तेंग जिंग ने मेरी दुविधा देख कर कहा , ' आज तो पूर्णिमा है...चांदनी में चंद्रताल झील देखना एक अनोखा अनुभव है ' कैम्प के सारे लोग जायेंगे . वो लकडियाँ ले कर चलेगा. झील के किनारे कैम्प फायर भी होगा. 

हम भी खुश हो गए बल्कि अपने  भाग्य पर इतराने ही लगे .अब चारों तरफ नजर डाली . जहाँ टेंट लगा था वो जगह चारों तरफ पहाड़ियों से घिरी हुई थी . लग रहा था कोई बड़ा सा कटोरा है और हम सब उसके अंदर चल फिर रहे हैं. घिरे  खूब तेज हवा चल रही थी . मैं आँखें मूँद सब आत्मसात करने की कोशिश कर रही थी. कभी सपने में भी नहीं सोचा था .आबादी से इतनी दूर पहाड़ियों के  मध्य खुले आसमान तले  ऐसे टेंट में कभी रह पाउंगी .वहाँ सारी सुविधाएं थी. एक बड़े से टेंट को डायनिंग हॉल का रूप दे दिया गया था . छोटी छोटी चौकियों सी मेजें लगी हुई थीं..जमीन पर बैठकर खाना था .कुछ और युवा लडके  लडकियां भी आ गई थीं. वे लोग मनाली से आ रहे थे .एक नई चीज़ भी लगी और देखकर ख़ुशी भी हुई. लड़के लड़कियों का मिला जुला ग्रुप था .दो ग्रुप मुंबई से ही थे. एक ग्रुप में तीन लडकियां और एक लड़का. एक में तीन लड़के और एक लडकी थी.एक ग्रुप हैदराबाद से था उनमें पांच लडके और एक लडकी थी. हैदराबाद का ग्रुप प्लान कर पूर्णिमा के दिन ही चंद्रताल देखने आया था .बाकियों का संयोग था . खाना खा कर टेंट में थोड़ी देर  आराम किया ,फिर चाय पी और आठ बजे के करीब बीस पच्चीस लोगों का दल चंद्रताल झील की तरफ चल पड़ा....झील बिलकुल पास नहीं थी
.थोड़ी दूर  तक गाड़ी से जाकर फिर एक छोटी सी पहाड़ी और फिर एक छोटा सा नाला पार कर झील के पास पहुंचा जा सकता  था ..पूर्णिमा तो थी पर चाँद बादलों की ओट में था .मैंने आशंका जताई तो तेंग जिंग ने कहा, 'अभी हवा चलेगी और बादलों को उड़ा ले जायेगी .मुश्किल से घंटे भर में चाँद पूरी तरह निकल आएगा '.तेंग जिंग के साथ काम करने वालों ने कम्बल ,लकडियाँ, मिटटी तेल की बोतल उठा रखी  थी. झील अँधेरे में डूबी थी . मोबाईल के टॉर्च से पानी देखा...पानी में हाथ डाला....पानी इतना ठंढा था ,मानो करेंट लग गया हो. तब तक लकड़ियों को जमा कर जला दिया गया था और सब घेर कर बैठ गए थे . गाना बजाना भी होने लगा .तेंग जिंग के साथ के एक छोटे लड़के ने बड़ी मीठी आवाज़ में एक के बाद एक पहाड़ी गाने सुनाये . पर मेरा मन नहीं लग रहा था.बार बार नजर बादलों की तरफ चली जाती . सब मुझे आश्वस्त करते...बस थोड़ी देर में ही बादल उड़ जायेगे . लेकिन घंटे पर घंटे गुजरते गए . ऐसे खुले में पहाड़ों के बीच ,अनजान लोगों के साथ कैम्प फायर करना भी कम रोमांचक नहीं था .पर मुझे तो चंद्रताल देखना था :( .आखिर घड़ी का काँटा बारह  पार कर गया तो हैदराबाद वाल ग्रुप उठ गया .उन्हें सुबह मनाली के लिए निकलना था और रात में मनाली से दिल्ली की बस पकडनी थी . उनके ड्राइवर और सौरभ में अच्छी दोस्ती हो गई थी .सौरभ ने कहा , 'हम भी साथ ही निकल चलेंगे.रास्ते में कहीं गाड़ी अटकी तो एक दूसरे  की सहायता कर पायेंगे .' मन मसोस कर मैं भी उठ गई .मुंबई वाल ग्रुप तेंग जिंग के साथ वहीँ रुक गया .उन्हें काज़ा जाना था, सुबह निकलने की कोई जल्दी नहीं थी. मैंने सौरभ से कहा, 'जाने से पहले सुबह एक बार झील तक ले आना " उसने हामी भरी . फिर मोबाइल के टॉर्च की रौशनी में हम वही नाला और पहाड़ी पार करते टेंट में आकर सो गए . 

हमलोग तो सुबह उठकर झील से मिलने के लिए तैयार हो गए पर 'सौरभ महाशय' उठें ही ना. तेंग्ज़िंग,उसके साथ के सारे लडके भी सो रहे थे .जब दूसरा ग्रुप  मनाली जाने के लिए बिलकुल तैयार हो गया तो सौरभ हडबडाते हुए उठा और  बड़े रुआंसे स्वर में बोला...' ऐसे रास्ते पर ड्राइव कर शरीर इतना थक गया था ,उठ नहीं पाया .अब अगर इनलोगों के साथ नहीं गए और गाड़ी कहीं  फंस गई तो बहुत मुश्किल होगी. आपलोगों ने देखा ही है, दूर दूर तक दूसरी गाड़ी नहीं दिखती .वैसे आप जैसा कहें, लेकिन गाड़ी चार चार घंटे फंसी रह जाती है. " उसकी बात सुन,.सब वापस जाने के लिए तैयार हो गए . उलटा मुझे समझाते रहे, ' टेंट में रही, बारह बजे रात में   ट्रेकिंग की ,झील के  के किनारे कैप फायर किया, ये क्या कम है " ....कम तो नहीं है फिर भी चंद्रताल तो नहीं देख पाई ना :( (मेरा छोटा बेटा अपूर्व अपने दोस्तों संग 'चंद्रताल' देख  आया  ) शायद कभी मैं भी जाऊं .

























चन्द्रताल जिसे देखने से वंचित रहे :(


चन्द्रताल





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