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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #168 ☆ हॉउ से हू तक ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख हॉउ से हू तक। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 168 ☆

☆ हॉउ से हू तक

‘दौलत भी क्या चीज़ है, जब आती है तो इंसान खुद को भूल जाता है, जब जाती है तो ज़माना उसे भूल जाता है।’ धन-दौलत, पैसा व पद-प्रतिष्ठा का नशा अक्सर सिर चढ़कर बोलता है, क्योंकि इन्हें प्राप्त करने के पश्चात् इंसान अपनी सुधबुध खो बैठता है … स्वयं को भूल जाता है। तात्पर्य यह है कि धन-सम्पदा पाने के पश्चात् इंसान अहं के नशे में चूर रहता है और उसे अपने अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। उस स्थिति में उसे कोई भी अपना नज़र नहीं आता…सब पराए अथवा दुश्मन नज़र आते हैं। वह दौलत के नशे के साथ-साथ शराब व ड्रग्स का आदी हो जाता है। सो! उसे समय, स्थान व परिस्थिति का लेशमात्र भी ध्यान तक नहीं रहता और संबंध व सरोकारों का उसके जीवन में अस्तित्व अथवा महत्व नहीं रहता। इस स्थिति में वह अहंनिष्ठ मानव अपनों अर्थात् परिवार व बच्चों से दूर…बहुत…दूर चला जाता है और वह अपने सम्मुख  किसी के अस्तित्व को नहीं स्वीकारता। वह मर्यादा की सभी सीमाओं को लाँघ जाता है और रास्ते में आने वाली बाधाओं के सिर पर पाँव रख कर आगे बढ़ता चला जाता है और उसकी यह दौड़ उसे कहीं भी रुकने नहीं देती।

धन-दौलत का आकर्षण न तो कभी धूमिल पड़ता है; न ही कभी समाप्त होता है। वह तो सुरसा के मुख की भांति निरंतर बढ़ता चला जाता है। यह प्रसिद्ध कहावत है…’पैसा ही पैसे को खींचता है।’ दूसरे शब्दों में इंसान की पैसे  की हवस कभी समाप्त नहीं होती…सो! उसे उचित-अनुचित में भेद नज़र आने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। धन कमाने का नशा उस पर इस क़दर हावी होता है कि वह राह में आने वाले  आगंतुकों-विरोधियों को कीड़े-मकोड़ों की भांति रौंदता हुआ आगे बढ़ता चला जाता है। इस मन:स्थिति में वह पाप-पुण्य के भेद को नकार; अपनी सोच व निर्णय को सदैव उचित ठहराता है।

इस दुनिया के लोग भी धनवान अथवा दौलतमंद  इंसान को सलाम करते हैं अर्थात् करने को बाध्य होते हैं…  और यह उनकी नियति होती है। परंतु दौलत के खो जाने के पश्चात् ज़माना उसे भूल जाता है, क्योंकि  यह तो ज़माने का चलन है। परंतु इंसान माया के भ्रम में सांसारिक आकर्षणों व दुनिया-वी चकाचौंध में इस क़दर खो जाता है कि उसे अपने आत्मज भी अपने नज़र नहीं आते; दुश्मन प्रतीत होते हैं। एक लंबे अंतराल के पश्चात् जब वह उन अपनों के बीच लौट जाना चाहता है, तो वे भी उसे नकार देते हैं। अब उनके पास उस अहंनिष्ठ इंसान के लिए समय का अभाव होता है। यह सृष्टि का नियम है कि जैसा आप इस संसार में करते हैं, वही लौटकर आपके पास आता है। यह तो हुई आत्मजों अर्थात् अपने बच्चों की बात, जिन्हें अच्छी परवरिश व सुख- सुविधाएं प्रदान करने के लिए वह दिन-रात परिश्रम करता रहा; ठीक-ग़लत काम करता रहा…परंतु उन्हें समय व स्नेह नहीं दे पाया, जिसकी उन्हें दरक़ार थी; जो उनकी प्राथमिक आवश्यकता थी।

‘फिर ग़ैरों से क्या शिक़वा कीजिए… दौलत के समाप्त होते ही अपने ही नहीं, ज़माने अर्थात् दुनिया भर के लोग भी उसे भुला देते हैं, क्योंकि वे संबंध स्वार्थ के थे;  स्नेह सौहार्द के नहीं।’ मैं तो संबंधों को रिवाल्विंग चेयर की भांति मानती हूं। आपने मुंह दूसरी ओर घुमाया; अवसरवादी बाशिंदों के तेवर भी बदल गए, क्योंकि आजकल संबंध सत्ता व धन-संपदा से जुड़े होते हैं… सब कुर्सी को सलाम करते हैं। जब तक आप उस पर आसीन हैं, सब ठीक चलता है; आपको झूठा मान-सम्मान मिलता है, क्योंकि लोग आपसे हर उचित-अनुचित कार्य की अपेक्षा रखते हैं। वैसे भी समय पर तो गधे को भी बाप बनाना पड़ता है… सो! इंसान की तो बात ही अलग है।

लक्ष्मी का तो स्वभाव ही चंचल है, वह एक स्थान पर ठहरती ही कहाँ है। जब तक वह मानव के पास रहती है, सब उससे पूछते हैं ‘हॉउ आर यू’ और लक्ष्मी के स्थान परिवर्तन करने के पश्चात् लोग कहते हैं ‘हू आर यू।’ इस प्रकार लोगों के तेवर पल-भर में बदल जाते हैं। ‘हॉउ’ में स्वीकार्यता है—अस्तित्व-बोध की और आपकी सलामती का भाव है, जो यह दर्शाता है कि वे लोग आपकी चिंता करते हैं…विवशता-पूर्वक या मन की गहराइयों से… यह और बात है। परंतु ‘हॉउ’ को ‘हू’ में बदलने में पल-भर का समय भी नहीं लगता। ‘हू’ अस्वीकार्यता बोध…आपके अस्तित्व से बे-खबर अर्थात् ‘कौन हैं आप?’ ‘कैसे से कौन’ प्रतीक है स्वार्थपरता का; आपके प्रति निरपेक्षता के भाव का; अस्तित्वहीनता का तथा यह प्रतीक है मानव के संकीर्ण भाव का, क्योंकि उगते सूर्य को सब सलाम करते हैं और डूबते सूर्य को निहारना भी लोग अपशकुन मानते हैं। आजकल तो वे बिना काम अर्थात् स्वार्थ के ‘नमस्ते’अथवा ‘दुआ सलाम’ भी नहीं करते।

इस स्थिति में चिन्ता तथा तनाव का होना अवश्यंभावी है। वह मानव को अवसाद की स्थिति में धकेल देता है; जिससे मानव लाख चाहने पर भी उबर नहीं पाता। वह अतीत की स्मृतियों में अवगाहन कर संतोष का अनुभव करता है। उसके सम्मुख प्रायश्चित करने के अतिरिक्त दूसरा विकल्प होता ही नहीं। सुख व्यक्ति के अहं की परीक्षा लेता है, तो दु:ख उसके धैर्य की…दोनों स्थितियों अथवा परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने वाले व्यक्ति का जीवन सफल कहलाता है। यह भी अकाट्य सत्य है कि सुख में व्यक्ति फूला नहीं समाता; उस के कदम धरा पर नहीं पड़ते…वह अहंवादी हो जाता है और दु:ख के समय वह हैरान-परेशान होकर अपना धैर्य खो बैठता है। वह अपनी नाकामी अथवा असफलता का ठीकरा दूसरों के सिर पर फोड़ता है। इस उधेड़बुन में वह सोच नहीं पाता कि यह संसार दु:खालय है और सुख बिजली की कौंध की मानिंद जीवन में दस्तक देता है…परंतु बावरा मन उसे स्थायी समझ कर अपनी बपौती स्वीकार बैठता है और उसके जाने के पश्चात् वह शोकाकुल हो जाता है।

सुख-दु:ख का चोली दामन का साथ है। एक के जाने के पश्चात् ही दूसरा आता है। जिस प्रकार एक म्यान में दो तलवारों का रहना असंभव है; उसी प्रकार दोनों का एक छत्र-छाया में रहना भी असंभव है। परंतु सुख-दु:ख को साक्षी भाव से देखना अथवा सम रहना आवश्यक है। दोनों अतिथि हैं–जो आया है, उसका लौटना भी निश्चित है। इसलिए न किसी के आने की खुशी, न किसी के जाने का ग़म-शोक मनाना चाहिए। हर स्थिति में सम रहने का भाव सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम है। इसलिए सुख में अहं को शत्रु समझना आवश्यक है और दु:ख में अथवा दूसरे कार्य में धैर्य का दामन छोड़ना स्वयं को मुसीबत में डालने के समान है। जीवन में कभी भी किसी को छोटा समझ कर किसी की उपेक्षा मत कीजिए, क्योंकि आवश्यकता के समय पर हर व्यक्ति व वस्तु का अपना महत्व होता है। सूई का काम तलवार नहीं कर सकती। मिट्टी, जिसे आप पाँव तले रौंदते हैं; उसका एक कण भी आँख में पड़ने पर इंसान की जान पर बन आती है। सो! जीवन में किसी तुच्छ वस्तु व व्यक्ति की कभी भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए… उसे स्वयं से अर्थात् उसकी प्रतिभा को ग़लती से भी कम नहीं आँकना चाहिए।

पैसे से सुख-सुविधाएं तो खरीदी जा सकती हैं, परंतु मानसिक शांति नहीं। इसलिए दौलत का अभिमान कभी मत कीजिए। पैसा तो हाथ का मैल है; एक स्थान पर कभी नहीं ठहरता। परमात्मा की कृपा से पलक-झपकते ही रंक राजा बन सकता है; पंगु पर्वत लाँघ सकता है और अंधा देखने लग जाता है। इस जन्म में इंसान को जो कुछ भी मिलता है; उसके पूर्वजन्म के कर्मों का फल होता है…फिर अहं कैसा? गरीब व्यक्ति अपने कृतकर्मों का फल भोगता है…फिर उसकी उपेक्षा व अपमान क्यों? इसलिए मानव को हर स्थिति में सामंजस्य बनाए रखना चाहिए…यही सफलता का मूल है। समन्वय, सामंजस्यता का जनक है, उपादान है; जो जीवन में समरसता लाता है। यह कैवल्य अर्थात् अलौकिक आनंद की स्थिति है, जिसमें ‘हॉउ आर यू’ और ‘हू आर यू’ का वैषम्य भाव समाप्त हो जाता है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: [email protected], मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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