Get Even More Visitors To Your Blog, Upgrade To A Business Listing >>

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 118 ☆ जागिए – जगाइए ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना जागिए – जगाइए । इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 118 ☆

जागिए – जगाइए  

जरा सी आहट में नींद टूट जाती है, वैसे भी अधूरी नींद के कारण ही आज इस उच्च पद पर विराजित हैं। बस अंतर इतना है कि पहले पढ़ने के लिए ब्लैक कॉफी पीकर जागते थे। अब कैसे ब्लैक मनी को व्हाइट करे इस चिंतन में रहते हैं। अब तो कॉफी से काम नहीं चलता अब  शराब चाहिए गम गलत करने के लिए।

भ्रष्टाचार की पालिश जब दिमाग में चढ़ जाती है तो व्यक्ति गरीब से भी बदतर हो जाता है। सोते-जागते बस उसे एक ही जुनून रहता है कि कैसे अपनी आमदनी को बढ़ाया जाए। उम्मीद की डोर थामें व्यक्ति इसके लिए क्या- क्या कारगुजारियाँ नहीं करता।

वक्त के साथ- साथ लालच बढ़ता जाता है, एक ओर उम्र साथ छोड़ने लगती है तो वहीं दूसरी ओर व्यक्ति रिटायरमेंट के करीब आ जाता है। अब सारे रुतबे छूटने के डर से उसे पसीना छूट जाता है। ऐसे में पता चलता है कि हार्ट की बीमारी ने आ घेरा। बढ़ा हुआ ब्लड प्रेशर दवाइयों से भी काबू नहीं आ रहा। ऐसे में उतार- चढ़ाव भरी जिंदगी भगवान का नाम भी नहीं ले पा रही है। समय रहते जो काम करने चाहिए थे वो किए नहीं। बस निन्यानवे का चक्कर वो भी गलत रास्ते थे। बच्चों को विदेश भेजकर  पढ़ाया वो भी वहीं सेटल हो गए। इतने बड़े घर में बस दो प्राणी के अलावा पालतू कुत्ते दिखते। जीवन में वफादारी के नाम पर कुत्तों से ही स्नेह मिलता। अपनी अकड़ के चलते पड़ोसियों से कभी नाता जोड़ा नहीं। वैसे भी धन कुबेर बनने की ललक हमें दूर करती जाती है।

जीवन के अंतिम चरण में बैठा हुआ व्यक्ति यही सोचता है ये झूठी कमाई किस काम की, जिस रास्ते से आया उसी रास्ते में जा रहा है। काला धन विदेशी बैंकों में जमा करने से भला क्या मिलेगा। देश से गद्दारी करके अपने साथ-साथ व्यक्ति सबकी नजरों में भी गिर जाता है। सदाचार की परंपरा का पालन करने वाले देश में भ्रष्टाचार क्या शोभा देता है। सारी समस्याओं की जड़ यही है। आत्मा की आवाज सुनने की कला जब तक हमारे मनोमस्तिष्क में उतपन्न नहीं होगी तब तक ऐसे ही उथल-पुथल भरी जीवन शैली का शिकार हम सब होते रहेंगे।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

The post हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 118 ☆ जागिए – जगाइए ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆ appeared first on साहित्य एवं कला विमर्श.

Share the post

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 118 ☆ जागिए – जगाइए ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

×

Subscribe to ई-अभिव्यक्ति - साहित्य एवं कला विमर्श (हिन्दी/मराठी/अङ्ग्रेज़ी)

Get updates delivered right to your inbox!

Thank you for your subscription

×