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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 49 – Representing People – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  कथा श्रंखला  “Representing People …“ की अगली कड़ी ।)   

☆ कथा कहानी  # 49 – Representing People – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

सिर्फ शीर्षक इंग्लिश में है पर श्रंखला हिन्दी में ही रहेगी.

1977 से 1980 और फिर 1989 से 2014 तक के वर्षों के बीच बनी केंद्र सरकारों का ध्यान, येन केन प्रकारेण विघटन से बचने के लिये समझौतों में ही निकल जाता रहा. भ्रष्टाचार और एक के बाद एक घोटाले, सरकारों की कमजोरी और नियत पर शक पैदा कर रहे थे. इस बीच ही आंतकवाद अपने चरम पर था और आतंकवादियों के होसले बुलंद. नागरिक भयभीत थे कि कब कोई घटना, उन पर संकट बन जाये. जनआकांक्षा स्थिर सरकार और मजबूत, निर्भीक और स्वतंत्र नेतृत्व चाहती थी. वर्तमान सत्तारूढ़ दल ने जनआकांक्षा को पहचाना और नये चेहरे के साथ चुनावी समर में कदम रखा. ये भी जनआकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व था, लोग जो चाहते थे और जिस बात की कमी महसूस कर रहे थे, वो विकल्प उनके सामने था. बाकी जो हुआ, वह कहने की ज़रूरत नहीं है. पर शायद हर शासक और नेतृत्व को ये समझने की जरूरत है कि वो अपने एजेंडे और कार्यप्रणाली से ऊपर वरीयता, इस बात पर दें कि लोग क्या चाहते हैं और क्या ये उनके लिये आवश्यक, न्यायोचित है. वरना हर वो नेतृत्व जो लोगों को भ्रमित करता है या फिर खुद भी भ्रम में रहता है, अक्सर अपना प्रतिनिधित्व का अधिकार खो बैठता है और निर्मम इतिहास उसे डस्टबिन के सुपुर्द ही करता है.

कॉलेजों और विश्वविद्यालयों का रिप्रसेंटेशन, सामान्यतः निकटगामी मुद्दों के लिये ही होता है, शिक्षण संस्थान खुलने या नहीं खुलने का, एडमीशन में पक्षपात का, डोनेशन और फीस का, कॉलेजों, हॉस्टल की आंतरिक व्यवस्था का, परीक्षा होने या नहीं होने का, रिजल्ट में अनावश्यक देरी, शिक्षण संस्थानों के नियंत्रकों द्वारा छात्रों के लिये अहितकर निर्णयों के लिये. अगर छात्र संघ के चुने हुये (और सुलझे हुये भी), प्रतिनिधि हैं तो अक्सर मामले बातचीत से हल हो जाते हैं जब तक कोई राजनैतिक दखलंदाजी न हो तो, वरना महानगरीय शिक्षण संस्थानों में ये प्रतिष्ठा का सवाल भी बन जाता है. जब प्रतिनिधित्व तो हो पर आंदोलन का निर्णय कोई और ही, अपने फायदे के लिये ले रहा हो. फिर तो छात्रसंघ के ये पदाधिकारी, छात्रों के प्रतिनिधि नहीं बल्कि किसी परिपक्व और शातिर राजनेता के मोहरे बन जाते हैं .शिक्षण संस्थानों में अगर चुने हुये प्रतिनिधि न हों तो कोई भी आंदोलन अपनी जायज़ मांगों से भटककर गलत दिशा पकड़ लेता है. मुझे सागर विश्वविद्यालय के शिक्षण सत्र 1972-73 का एक वाकया याद है जब चार हॉस्टल के छात्रों को निलंबित कर दिया गया था और निर्वाचित प्रतिनिधि न होने के कारण, प्रोटेस्ट को गलत दिशा देने वाला छात्र तो फरार हो गया पर भीड़ के रूप में फालोअर्स के लिए नुकसानदेह रहा.

कॉलेज और विश्वविद्यालयों से लेकर हर संस्थानों और राजनैतिक परिदृश्य में भी, जिम्मेदार, परिपक्व और समझदार नेतृत्व आवश्यक होता है वरना आंदोलन निष्कर्ष हीन और अहितकर ही होते हैं. आंदोलनों की सफलता यही है कि प्रतिनिधित्व और पदासीन एक टेबल पर आकर मामले को हल करने का प्रयास करें हमारे वेज़ सेटलमेंट, वार्तालाप से ही हल हुये हैं और जहाँ न्यायालय जाना पड़ा वहाँ बस तारीख पर तारीख और वकील की फीस दर फीस. ये स्थिति प्रबंधन के लिये सर्वश्रेष्ठ होती है क्योंकि वो अगले दस बीस सालों के लिये चिंतामुक्त हो जाता है. हम पैंशनर्स इसे साक्षात अनुभव कर रहे हैं. नादान हैं वो लोग जो फैसले और राहत का इंतजार करते हैं.

Representing the people का अर्थ यही है कि उनकी न्यायोचित मांगों को आवाज और ताकत दी जाय, वो सुनी जायें और उनके समाधान मिलें. मुंबई में कपड़ा मिलों के बंद होने का कारणों का विश्लेषण यह भी इंगित करता है कि एक कारण मार्केट परिदृश्यों को नजरअंदाज कर मज़दूर नेता दत्ता सामंत द्वारा अनाप शनाप मांगे रखना और नतीजा मिलों के बंद होने से मजदूरों को बेरोजगार होना पड़ा. मांग और देने वाले के अस्तित्व के बीच का असंतुलन ही पब्लिक सेक्टर की असफलता का कारक बना और सरकारों को निजीकरण की तरफ बढ़ना पड़ा. निजीकरण, बेहतर सर्विस के पर्दे में छुपी अभिजात्य सोच को प्रोत्साहित करता है और श्रमजीवियों को टॉरगेट के नाम पर टाइमलेस और लिमिट लेस शोषण के रास्ते खोलता है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण, होम डिलीवरी वाले कोरियर बॉय हैं जिन्हें फिक्स टाइम में आर्डर की डिलीवरी करनी पड़ती है वरना आर्थिक नुकसान और नौकरी से हाथ धोने की स्थिति का सामना करना पड़ता है. ये युवक बाकायदा डिग्री धारक होते हैं और बेरोजगारी के कारण, अपनी बाइक सहित इन समस्याओं के जाल में उलझे रहते हैं. कौन हैं जो इनको रिप्रसेंट करेंगे. ये वह लडाई है जो लग्जरी और मजबूरी के बीच लड़ी जा रही है and no body is representing these people.  

श्रंखला जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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