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हज़रत क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार-ए-काकी के मजमूआ’-ए-मल्फ़ूज़ात फ़वाइदुस्सालिकीन का मुताला’ अज़ जनाब मौलाना अख़्लाक़ हुसैन देहलवी साहब

हज़रत क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार-ए-काकी के मजमूआ’-ए-मल्फ़ूज़ात  फ़वाइदुस्सालिकीन का मुताला’ अज़ जनाब मौलाना अख़्लाक़ हुसैन देहलवी साहब

फ़वाइदुस्सालिकीन फ़ारसी नुस्ख़ा मतबूआ सन1310 हिज्री सन1891 ई’सवी मतबूआ’ मुज्तबाई, दिल्ली ,इंडिया, हजम 36  सफ़हात,  साइज़ 20 X 26

ये किताब क़ुतुबल-अक़्ताब हज़रत ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार ओशी  अल-मुतवफ़्फ़ा सन 633 हिज्री के गिराँ-क़दर मल्फ़ूज़ात  का मजमूआ’ है जिसे हज़रत बाबा फ़रीद मसऊ’द गंज शकर मुतवफ़्फ़ा सन 670 हिज्री ने मुदव्वन फ़रमाया था, ये मजमूआ’–ए-मल्फ़ूज़ात  सात मजालिस पर मुश्तमिल है हर मज्लिस के आग़ाज़ में लफ़्ज़-ए-मज्लिस और उसका शुमारा क़लम से लिखा हुआ है, जिससे मजालिस की तर्तीब ब-ख़ूबी वाज़ेह हो जाती है, इब्तिदाईया में है:

“अज़ ज़बान-ए-फ़क़ीर-ए-हक़ीर बंदा-ए-दरवेशां बल्कि ख़ाक-ए-क़दम-ए-इशां फ़रीद मसऊ’द अजोधनी (फ़वाइदुस्सालिकीन सफ़हा-2)

अस्ल-ए-ईं नुस्ख़ा सहीह न-बूद हर-चंद कि नुस्ख़ा-ए-

दीगर पैदा शुद ताहम फ़ीमा बैन मुग़ायरते

याफ़्त: शुद लेकिन ब-क़दर-ए-वस्अ’ दर दफ़-ए’-

अग़्लात कोशीद:  आमद

तर्जुमा:

इस नुस्ख़ा की अस्ल या’नी वो नुस्ख़ा जिस

से मतबूआ’ नुस्ख़ा मनक़ूल है, सहीह थी

और अगरचे दूसरा नुस्ख़ा भी दस्तयाब हुआ था

लेकिन दोनों में फ़र्क़ बहुत था

लिहाज़ा ब-क़दर-ए-इमकान रफ़-ए’-अग़्लात की कोशिश की है

मौलवी अब्दुल अहद मरहूम ने जो भी तसहीह फ़रमाई, वो बसा ग़नीमत और लाइक़-ए-शुक्रिया है ता-हम मतबूआ’ नुस्ख़ा भी अग़्लात से पाक नहीं है लेकिन अगर वो तबा’ ना करते तो मुम्किन था कि हम उसके मुताला’ की सआ’दत से महरूम रहते, क्या अच्छा होता जो मौसूफ़ ये भी लिख देते कि नुस्ख़ा-ए-दीगर में मुतबादिल क्या-क्या कुछ था, और जो नुस्खे़ उन्हें दस्तयाब हुए थे, वो किस-किस अ’ह्द के मक्तूबा थे, क्योंकि ऐसे नुस्ख़ों का रिवाज भी रहा है। जो अन-पढ़ अ’क़ीदत-मंद अच्छे अच्छे ख़ुश-नवीसों से नक़ल कराते, और तबर्रुकन अपने पास रखते थे, जो उ’मूमन सेहत से आ’री होते थे

मतलूबुत्तालिबीन नाम से फ़वाइदुस्सालिकीन का उर्दू तर्जुमा भी मौलवी अ’ब्दुल अहद मरहूम ने सन 1316 हिज्री सन 1898 ईसवी में मतबा’ मुज्तबाई दिल्ली से शाए’ किया था, उसके मुतर्जिम मुहम्मद बैग नामी कोई ज़ी-होश आ’लिम थे, उन्हें इस मजमूआ-ए-मल्फ़ूज़ात  के नाक़िस होने का एहसास था, उन्होंने दीबाचा में लिखा है:

” इस में ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी के मल्फ़ूज़ात  हैं, जिनको हज़रत बाबा साहब ने ख़ुद जमा’ कर के मुरत्तब किया है, ग़ालिबन ये किताब बड़ी होगी, जो मुरूर-ए-ज़माना से पूरी नहीं मिलती, (मतलूबुत्तालिबीन सफ़हा 2)

मुतर्जिम का ये एहसास बिला-शुबहा बजा-ओ-दुरुस्त है, क़लमी नुस्ख़ों को इसी तरह देखना और परखना चाहिए, फ़वाइदुस्सालिकीन ब-ज़ाहिर मौजूदा सूरत में कामिल नहीं है, शाह मुहम्मद बूलाक़ मरहूम ने रौज़तुल-अक़्ताब तालीफ़ सन 1124 हिज्री सन 1712 ई’सवी (मतबूआ सन 1305 हिज्री 1887 ईसवी मतबा’ हिन्द  दिल्ली) में फ़वाइदुस्सालिकीन से एक रिवायत नक़ल की है, जो फ़वाइदुस्सालिकीन के मतबूआ’ फ़ारसी नुस्ख़ा में नहीं है, और वो ये है-

“वक़्ते दर ख़िदमत-ए-ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन क़व्वालाँ दर रसीदंद-ओ-ईं बैत रा ब-सूरत-ए-ज़ेबा-ओ-आहंग-ओ-दिलरुबा आग़ाज़ गर्दानीदंद, बैत:

सुरूद चीस्त कि चंदीं फ़ुसून-ए-इ’श्क़ दर-दस्त

सुरूद महरम-ए-इ’श्क़स्त-ओ-इ’श्क़ महरम-ए-ऊस्त

ख़्वाजा ईं बैत दर गिरफ़्त-ओ- हफ़्त शबाना रोज़ बेहोश मांद, मैल ब- तआ’म-ओ- शराब न-दाश्त अम्मा वक़्त-ए-नमाज़ ब-बेहोसही बाज़ मी-मांद-ओ- नमाज़ रा ब-दस्तूर क़ियम मी-गुज़ाश्त

(रौज़ातुल-अक़्ताब सफ़हा 63-64)

गुमान-ए-ग़ालिब ये है कि मतबूआ नुस्ख़ा किसी ऐसे नुस्खे़ से मनक़ूल है कि जो दस्तयाब शूदा कुछ औराक़-ए-परेशाँ का मजमूआ’ था, फ़वाइदुस्सालिकीन के कुछ क़दीम नुस्खे़ हिन्द-ओ-पाक के मो’तबर कुतुब-ख़ानों (लाइब्रेरीयों) में  महफ़ूज़ हैं, मेरे इ’ल्म में इसका एक क़दीम नुस्ख़ा जो सन 1096 हिज्री सन 1684 ई’सवी का मकतूब है ख़ुदाबख़्श पब्लिक लाइब्रेरी पटना के ज़ख़ीरा-ए-मख़तूतात की ज़ीनत है, तलाश-ओ-तजस्सुस से बहुत मुम्किन है कि इस से भी क़दीम–तर कोई नुस्ख़ा दस्तयाब हो जाएगा। बहर-हाल मतबूआ’ नुस्ख़ा बहालत-ए-मौजूदा जैसा कुछ है सालिकान-ए-राह़-ए-तरीक़त के लिए ख़िज़्र-ए-राह और अ’क़ीदत-मंदों के लिए सुरमा-ए-चश्म है ।

फ़वाइदुस्सालिकीन की क़दामत:

फ़वाइदुस्सालिकीन की क़दामत और इसके इस्तिनाद का अहम-तरीन-ओ- मो’तबर सुबूत ये है कि हज़रत महबूब-ए-इलाही के बुज़ुर्ग ख़लीफ़ा मौलाना बुरहानुद्दीन ग़रीब मुतवफ़्फ़ा सन 732 हिज्री सन 1331 ई’सवी ने अपने लाइक़-तरीन मुरीद मौलाना रुकनुद्दीन इ’माद दबीर काशानी से तसव्वुफ़ में किताब शमाइलुल- अत्क़िया-ओ-दलाइल-अत्क़िया मुरत्तब कराई थी, उसकी फ़िहरिस्त माख़ज़ात में फ़वाइदुस्सालिकीन भी है जो उसकी क़दामत की बय्यिन दलील है, और इससे फ़वाइदुस्सालिकीन के जा’ली होने का वस्वसा रफ़ा’ हो जाता है

इसके अ’लावा फ़वाइदुस्सालिकीन की क़दामत का सुबूत ये भी है कि इस की बा’ज़ रिवायतें इन किताबों में भी मनक़ूल हैं जो अदब-ए-सूफ़िया बे-मिस्ल और निहायत दर्जा मुस्तनद मानी जाती हैं। गोया कि फ़वाइदुस्सालिकीन मुस्तनद-ओ-मो’तबर कुतुब-ए-तसव्वुफ़ का माख़ज़ भी है

ये भी है कि मुआ’सिर किताबों में किसी किताब का या किसी वाक़िआ’ का ज़िक्र ना होना उसके अ’दम वजूद की दलील नहीं, हर अहल-ए-क़लम का अपना नुक़्ता-ए-नज़र होता है। जो कुछ वो लिखता है, अपने ही सवाब-दीद से लिखता है ऐसा भी मुम्किन है कि बा’ज़ मा’लूमात किसी की दस्त-रस से बाहर हों और हर वक़्त दस्तयाब ना हो सके हों  ऐसी ही वजूद की बिना पर ज़िंदा अहल-ए-क़लम की किताबों के इब्तिदाई मतबूआ’ नुस्खे़ बा’द के मतबूआ’ नुस्ख़ों से मुख़्तलिफ़ होते हैं लिहाज़ा अगरचे दौर–ए-निज़ामी का ज़िक्र सियरुल-औलिया में नहीं है, लेकिन इसका वजूद मुसल्लम है, इसी तरह अगर फ़वाइदुस्सालिकीन का ज़िक्र सराहतन फ़वाइदुलफ़वाद –ओ- ख़ैरुल-मजालिस और सियरुल-औलिया में नहीं है, तो न सही, ये उसके अ’दम वजूद की दलील नहीं, उसका वजूद दीगर मो’तबर शवाहिद से मुसल्लम है, और उस के मुंदरिजात बज़ात-ए-ख़ुद उसके वजूद की और उस की क़दामत की बय्यिन दलील हैं, वाक़िआ’त की नौई’यत भी कुछ ही होती है, मौलाना सय्यद सबाहुद्दीन अब्दुर्रहमान साहब रक़म-तराज़ हैं:-

“हज़रत ख़्वाजा मुई’नुद्दीन चिश्ती के फ़ुयूज़-ओ-बरकात से हिन्दोस्तान इस्लाम के नूर से मुनव्वर हो गया, वो वारिसुन्नबी फ़िल-हिंद हो कर यहाँ  जल्वा-अफ़रोज़ रहे, मगर तबक़ात-ए-नासिरी ताजुलल-मासर और फ़ख़्र-ए-मुदीर की तारीख़-ए-मुबारक शाही जैसी मुआसिर तारीख़ों में उनके कारनामों का मुतलक़ ज़िक्र नहीं, उनका इस्म गिरामी भी उन तारीख़ों के सिफ़ात में ढ़ूढ़ने से भी नहीं मिलता। अब कोई ऐ’ब-जू अहल-ए-क़लम ये दा’वा करे कि उनके कारनामों को बा’द के तज़्किरा-निगारों ने महज़ घड़ लिया है, तो ये हिन्दोस्तान के मुस्लमानों की रुहानी तारीख़ पर शदीद ज़र्ब-ए-कारी लगानी होगी”

(माहनामा मआरिफ़ ,आ’ज़म गढ, मार्च सन 1979 ई’सवी 174)

सुल्तान नासिरुद्दीन महमूद मुतवफ़्फ़ा सन 664 हिज्री सन 1265 ईसवी का और उस के लश्कर का हज़रत बाबा साहब की ख़िदमत में हाज़िर होने का ज़िक्र असरारुल-औलिया(सफ़हा 82) और फ़वाइदुल-फ़ुवाद सफ़हा145) मैं मौजूद है, लेकिन तबक़ात-ए-नासिरी में नहीं है, जो उस अ’ह्द की मो’तबर तारीख़ है, और सुल्तान नासिरुद्दीन महमूद से मंसूब-ओ-मुअ’नवन है, तो क्या इन बुज़ुर्गों पर बद-गुमानी की जा सकती है, जिनके मल्फ़ूज़ात  का मजमूआ मज़कूरा किताबें हैं, जिनके सादिक़ुल-क़ौल होने में शुबहा को भी दख़्ल नहीं है, इसलिए अगर फ़वाइदुस्सालिकीन का ज़िक्र-ओ-हवाला फ़वादुल-फ़ुवाद विर्द-ए-निज़ामी, ख़ैरुल-मजालिस और सियरुल-औलिया में नहीं है, तो क्या मुज़ाइक़ा है, वो बज़ात-ए-ख़ुद मुस्तनद है, क्योंकि उसके वजूद-ओ-क़दामत के दीगर मुस्तनद-ओ-मो’तबर शवाहिद दस्तयाब होते हैं, लिहाज़ा ये मानना होगा कि फ़वाइदुस्सालिकीन बिलाशुबहा क़दीम मजमूआ-ए-मल्फ़ूज़ात  है और मुस्तनद-ओ-मो’तबर है । क्योंकि उसके वजूद-ए-क़दामत के दीगर मुस्तनद-ओ-मो’तबर शवाहिद दस्तयाब  होते हैं, लिहाज़ा ये मानना होगा कि फ़वाइदुस्सालिकीन बिला शुबहा क़दीम मजमूआ-ए- मल्फ़ूज़ात  है और मुस्तनद –ओ-मो’तबर है।

तारीख़ी इंदिराजात:

क़दीम-तरीन कुतुब-ए-मल्फ़ूज़ात  अनीसुल-अर्वाह और दलीलुल आ’रिफ़ीन के मुताला’ से ये हक़ीक़त आश्कारा है कि कुतुब-ए-मल्फ़ूज़ात  में तारीख़ी इंदिराजात का रिवाज अ’ह्द-ए-क़दीम में न था, फ़वाइदुस्सालिकीन में जो तारीख़ी इंदिराजात हैं वो भी मश्कूक–ओ-मुश्तबा और ना-तमाम हैं, गुमान-ए-ग़ालिब ये है कि किसी ने सियरुल-औलिया (सफ़हा 91) की इल्हाक़ी इ’बारत से मुतअस्सिर हो कर तारीख़ी इंदिराजात की सई’ की है लेकिन कर नहीं सका है। और ना-तमाम ही छोड़ देना पड़ा है, क्योंकि बैअ’त-ओ-इरादत का जो सन 584 हिज्री इसमें मर्क़ूम है, वही फ़वाइदुस्सालिकीन में है। और बिलकुल ग़लत है, जिसका ज़िक्र आइन्दा आएगा, लिहाज़ा ये ख़याल क़रीन-ए-क़ियास है कि क़दीम कुतुब-ए-मल्फ़ूज़ात  के मिस्ल फ़वाइदुस्सालिकीन में भी तारीख़ी इंदिराजात न थे।

फ़वाइदुस्सालिकीन के फ़ारसी नुस्खे़ (मतबूआ’ सन 1310 हिज्री 1892 हिज्री मतबा’ मुज्तबाई दिल्ली में जो तारीख़ी इंदिराजात मुताला’ में आए हैं, वो सई’-ए-नाकाम की निशान-देही करते हैं और वो ये हैं:-

1.मज्लिस-ए-अव्वल… न दिन न तारीख़ न महीना न सन

2.मज्लिस-ए-दोउम… न दिन न तारीख़ न महीना न सन

3.मज्लिस सेउम…अगर तारीख़ भी होती, तो तक़्वीम तस्दीक़ या तरदीद कर सकती

4.मज्लिस-ए-चहारुम… तारीख़ भी होती तो तक़्वीम तस्दीक़ या तरदीद कर सकती

5. मज्लिस-ए-पंजुम… दिन और तारीख़ दोनों न-दारद

6.मज्लिस-ए-शशुम. रोज़-ए-जुमा, शव्वाल।तारीख़ न-दारद ,ज़िलहिज्जा के बा’द शव्वाल है तो सन-ए-मज़कूर चे मानी दारद

7.मज्लिस-ए-हफ़्तुम, रोज़ चहार-शंबा।।।। तारीख़ न महीना सनए-मज़कूर अ’जब शय है

क्या बिला तहक़ीक़ इन अधूरे और बेतुके इंदिराजात को मो’तबर माना जा सकता है। और उन पर ए’तिमाद किया जा सकता है

मतलूबुत्तालिबीन (मतबूआ सन 1312 हिज्री सन 1898 ई’सवी) मतबा’ मुज्तबाई दिल्ली फ़वाइदुस्सालिकीन का उर्दू तर्जुमा है ।

इसमें ख़ला को पुर करने की कुछ कोशिश की है, मगर उतनी ही कि पहली और छठ्ठी के तारीख़ी इंदिराज में क़दरे तसर्रुफ़ किया है, बाक़ी फ़ारसी नुस्खे़ के मुताबिक़ है सन 584 हिज्री है जो ग़लत है ।

हश्त बहिश्त ख़्वाजगान-ए-चिशत के आठ मजमूआ-ए-मल्फ़ूज़ात का उर्दू तर्जुमा है, जिसमें फ़वाइदुस्सालिकीन का तर्जुमा भी शामिल है, इसमें पहली दूसरी और पांचवें मज्लिस के तारीख़ी इंदिराज में क़दरे तसर्रुफ़ किया है, बाक़ी फ़ारसी नुस्खे़ के मुताबिक़ हैं, सन वही सन 584 हिज्री जो ख़िलाफ़-ए-वाक़िआ’ है ।

मौलवी ग़ुलाम अहमद ख़ान बिर्याँ मरहूम ने सन 1310 हिज्री में मजमूआ’-ए- मल्फ़ूज़ात-ए-ख़्वाजगान-ए-चिश्त के नाम से पाँच कुतुब-ए-मल्फ़ूज़ात का उर्दू तर्जुमा शाए’ किया था, जिसमें फ़वाइदुस्सालिकीन का तर्जुमा भी है, मगर सिर्फ़ छ: मजालिस का तर्जुमा है , बल्कि छठ्ठी मज्लिस भी ना-तमाम है, सातवीं मज्लिस का तर्जुमा शामिल ही नहीं है। तारीख़ी इंदिराजात इसमें भी ना-तमाम हैं। अलबत्ता मज्लिस-ए-दोउम-ओ-चहारुम और पंजुम में मुकम्मल हैं, मगर ग़लत हैं तक़्वीम से उनकी तस्दीक़ नहीं होती, सन अ’जूबा-ए-रोज़गार है, और वो है सन 648 हिज्री अगरचे मौलवी ग़ुलाम अहमद ख़ां बिर्याँ मरहूम ने उर्दू सियरुल-औलिया के नाम से सन 1320 हिज्री 1902 ईसवी में ख़ुद सियरुल-औलिया, का तर्जुमा कर के शाए किया था। जिसके सफ़हा 62-63 मैं क़ुतुबल-अक़्ताब हज़रत ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार ओशी के सन-ए-वफ़ात सन 633 हिज्री का ज़िक्र मौजूद है, हैरत है कि फिर उन्होंने सन 648 क्यों लिखा है, इन कारिस्तानियों से ये हक़ीक़त आश्कारा है, कि इन साहिबों के पेश-ए-नज़र फ़वाइदुस्सालिकीन का कोई क़दीम-ओ-मुस्तनद ऐसा नुस्ख़ा नहीं है जो सहीह तारीख़ी इंदिराजात का हामिल होता , और ये इंदिराजात हरगिज़ किसी सहीह नुस्ख़े से मन्क़ूल नहीं हैं। बल्कि मा-बा’द की जिद्दत का समरा हैं जो सरासर ग़लत है, और इस यक़ीन के लिए कामिल गुंजाइश है कि फ़वाइदुस्सालिकीन तारीख़ी इंदिराजात से क़तअ’न मुबर्रा है, और ये इंदिराजात हरगिज़ इस लाइक़ नहीं कि उन पर ए’तबार किया जाए, या तन्क़ीद के लिए उन्हें मेहवर बनाया जाये, बिला-शुबहा इन्हें मुस्तरद  क़रार दिया जाएगा ।

सियरुल-औलिया की इल्हाक़ी इ’बारत:

सियरुल-औलिया (चिरंजी लाल ऐडीशन) मैं अगरचे मुतअ’द्दिद इल्हाक़ी इ’बारतें हैं,मगर हमारे मौज़ू से मुतअ’ल्लिक़ सिर्फ़ वो इ’बारत है जो सफ़हा 91 पर है, जिसका आग़ाज़ पोशीदा न-मांद से होता है, और वो मजमूआ है हज़रत बाबा साहब के सिनीन-ए-विलादत-ओ-इरादत और वफ़ात वग़ैरा का जिसके सारे ही सन ख़िलाफ़-ए-वाक़िआ हैं, इन्हीं में सन-ए-इरादत सन 584 हिज्री है, और यही फ़साद की जड़ है, इन सब का तज्ज़िया करना होगा, ताकि मफ़रूज़ा सन-ए- इरादत सन584 का ग़लत होना वाज़ेह हो जाए तवालत के ख़ौफ़ से अस्ल इ’बारत नक़ल नहीं करता, उसका लुब्ब-ए-लुबाब नक़ल किए देता हूँ-

1.हज़रत बाबा साहब का सन-ए-विलादत 569 हिज्री

2 .हज़रत बाबा साहब का सन-ए- इरादत 584 हिज्री

3. उ’म्र ब-वक़्त-ए-बैअ’त-ओ-इरादत 15 साल

4.۔वफ़ात के वक़्त हज़रत बाबा साहब की उ’म्र 95 साल

5.हज़रत बाबा सहब का सन-ए-वफ़ात 664 हिज्री

6 .बैअ’त-ओ-इरादत के बा’द मुद्दत-ए-हयात 80 साल

दरयाफ़्त-तलब अम्र ये है कि इन मा’लूमात का माख़ज़ क्या है, जो सरसरा ग़लत है, और जिसकी तस्दीक़ फ़वाइदुल-फ़ुवाद और सियरुल–औलिया , बल्कि दीगर मुस्तनद कुतुब-ए-तारीख़ से भी नहीं होती, इसमें सन-ए-बैअ’त-ओ-इरादत 584 हिज्री है, हमारे नज़दीक इससे फ़वाइदुस्सालिकीन में तारीख़ी इंदिराज की कोशिश की गई है जो ना-तमाम रही, और जिसमें कामयाबी न हो सकी

इल्हाक़ी इ’बारत के ख़िलाफ़ शवाहिद:

नाज़िरीन को हैरत होगी कि न सिर्फ़ सन584 हिज्री की बल्कि जुमला मफ़रूज़ा इल्हाक़ी सिनीन की तरदीद हज़रत महबूब-ए-इलाही के बयानात से हो जाती है अगरचे ये मौज़ूअ’ तफ़्सील-तलब है, लेकिन मैं निहायत इख़्तिसार से ज़ब्त-ए-तहरीर में लाने की कोशिश करता हूँ-

1۔ अमीर-ए-ख़ुर्द किरमानी नाक़िल हैं, और लिखते हैं:

“हज़रत महबूब-ए-इलाही ने ख़ुद अपने मुबारक क़लम से लिखा है, कि 25 जमादी-उल-अव्वल सन 669 जुमा’ के दिन बा’द नमाज़-ए-जुमा’ हज़रत बाबा साहब ने मुझे बुलाया, और अपना लुआ’ब-ए-दहन-ए-मुबारक मेरे मुँह में डाला, (सियरुल-औलिया123)”

ये बयान तारीख़ी ए’तबार से मुकम्मल है , दिन भी है, तारीख़ भी है, महीना भी है, और सन भी है, हत्ता कि वक़्त भी है, तक़्वीम आज भी इसकी तस्दीक़ करती है, ये बयान बताता है कि हज़रत बाबा साहब सन 669 हिज्री में ब-क़ैद-ए-हयात थे, अमीर-ए-ख़ुर्द किरमानी ने हज़रत महबूब-ए-इलाही का एक बयान और भी नक़ल किया है, जो अ’ता-ए-सनद-ए-ख़िलाफ़त से मुतअ’ल्लिक़ है, लिखा है:-

” हज़रत महबूब-ए-इलाहीका इरशाद है कि 13 रमज़ान-उल-मुबारक सन 669 हिज्री को हज़रत बाबा साहब ने मुझे बुलाया। और दरयाफ़्त फ़रमाया, कि निज़ाम तुम्हें याद है जो मैंने कहा था, मैंने अ’र्ज़ किया जी हाँ याद है, फ़रमाया काग़ज़ लाओ ताकि इजाज़त-नामा (ख़िलाफ़त नामा) लिखा जाये, काग़ज़ ला दिया और ख़िलाफ़त-नामा लिखा गया ।”



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