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हज़रत ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन मुनव्वर निज़ामी

क़दीम तअ’ल्लुक़

हज़रत सुल्तानुल-मशाइख़ महबूब-ए-इलाही के मुरीदों और ख़ुलफ़ा में दो बुज़ुर्ग ऐसे हैं जिनको कई पुश्त से निस्बत की सआ’दत हासिल थी।एक हज़रत बाबा साहिब के नवासे हज़रत ख़्वाजा सय्यिद मोहम्मद इमाम निज़ामी बिन हज़रत ख़्वाजा बदरुद्दीन इस्हाक़ और दूसरे हज़रत ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन मुनव्वर इब्न-ए-ख़्वाजा बुर्हानुद्दीन बिन हज़रत ख़्वाजा जमालुद्दीन हान्स्वी ।
हज़रत ख़्वाजा जमाल हान्स्वी हज़रत बाबा साहिब के बड़े जलीलुल-क़द्र और बर्गुज़ीदा ख़ुलफ़ा में थे। यहाँ तक कि हज़रत बाबा साहिब अपने मुरीदों को ख़िलाफ़त देने के बा’द हुक्म देते थे कि हांसी जाकर जमाल हान्स्वी से इसकी तस्दीक़ कराओ। चुनांचे सुल्तानुल-मशाइख़ को भी ख़िलाफ़त के साथ हांसी  जाने का फ़रमान मिला था।हज़रत जमाल हान्स्वी ने इस शे’र के साथ ख़िलाफ़त-नामे की तस्दीक़-ओ-ताईद की थी कि-

ख़ुदा-ए-जहाँ रा हज़ाराँ सिपास।
कि गौहर सपुर्द: ब-गौहर-शनास।।

ख़ुदा का हज़ार हज़ार शुक्र कि मोती उसको सौंपा गया जो मोती का क़द्र-शनास है।

सुल्तानुल-मशाइख़ और हज़रत क़ुतुबुद्दीन मुनव्वर के दादा हज़रत जमाल हान्स्वी आपस में पीर-भाई थे और हज़रत  जमाल हान्स्वी इरादत और ख़िलाफ़त दोनों में महबूब-ए-इलाही से सीनियर थे।लेकिन:

‘जिसको पिया चाहे वही सुहागन कहलाए’

महबूब-ए-पाक बाबा साहिब के ख़ास मंज़ूर-ए-नज़र थे। इसलिए हज़रत जमाल हान्स्वी भी उनकी बड़ी इ’ज़्ज़त किया करते थे। और महबूब-ए-पाक की उ’मरी के बावजूद उनको खड़े हो कर ता’ज़ीम दिया करते थे।अलबत्ता जब हज़रत महबूब-ए-इलाही को ख़िलाफ़त मिल गई तो उन्होंने खड़े हो कर ता’ज़ीम देने का मा’मूल तर्क कर दिया।हज़रत महबूब-ए-इलाही के दिल में एक दफ़्आ’ ख़्याल गुज़रा कि शायद हज़रत जमाल को मेरी ख़िलाफ़त पसंद नहीं आई है।हज़रत जमाल ने इस ख़याल को महसूस कर के फ़ौरन कहा कि मौलाना निज़ामुद्दीन खड़े हो कर ता’ज़ीम देने का मा’मूल मैंने इस वजह से छोड़ा है कि अब मुझमें और आप में ख़ास मोहब्बत है।पस इस यगानगत और मोहब्बत में एक दूसरे को ता’ज़ीम देने की कुछ ख़ास ज़रूरत नहीं रही।

एक दफ़्आ’ हज़रत महबूब-ए-इलाही हज़रत जमाल हान्स्वी,  ख़्वाजा शम्स दबीर वग़ैरा मुरीद हज़रत बाबा साहिब से रुख़्सत होने लगे तो मुरीदों के दस्तूर के मुताबिक़ हज़रत जमाल हान्स्वी ने बाबा साहिब से दर्ख्वास्त की कि कुछ वसिय्यत फ़रमाइए।हज़रत बाबा साहिब ने फ़रमाया कि हमारी वसिय्यत यही है कि मौलाना निज़ामुद्दीन को अपनी मुसाहबत में ख़ुश रखना।

पहली का चाँद

हज़रत जमाल हान्स्वी का विसाल बाबा साहिब के सामने ही हो गया था।उनकी एक ख़ादिमा थीं जो पैग़ाम-ए-सलाम लेकर अक्सर बाबा साहिब के पास जाया करती थीं।उनको बाबा साहिब मादर-ए-मोमिनाँ कहते थे।हज़रत जमाल के विसाल के बा’द मादर-ए-मोमिनाँ उनके फ़र्ज़न्द ख़्वाजा बुर्हानुद्दीन को जो ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन मुनव्वर के वालिद थे हज़रत बाबा साहिब की ख़िदमत में ले गईं। ख़्वाजा बुर्हानुद्दीन उस वक़्त बहुत छोटे थे।बाबा साहिब ने उनकी बड़ी ता’ज़ीम तकरीम की और मुरीद करने के बा’द वही ख़िलाफ़त-नामा और तबर्रुकात जो हज़रत जमाल को दे रखे थे ख़ुर्द-साल ख़्वाजा बुर्हानुद्दीन को भी अ’ता कर दिए।और फ़रमाया कि जिस तरह जमालुद्दीन को हमारी तरफ़ से इजाज़त थी तुमको भी है।अलबत्ता तुम्हारे लिए ये ज़रूरी है कि मौलाना निज़ामुद्दीन (या’नी हज़रत सुल्तानुल-मशाइख़) की ख़िदमत में रहना। मादर-ए-मोमिनाँ ने ये सुनकर अ’र्ज़ की कि बुर्हानुद्दीन तो अभी “बाबा’’(बच्चा) है ख़िलाफ़त का बोझ कैसे उठा सकता है।हज़रत बाबा साहिब ने फ़रमाया कि चौदहवीं का चाँद पहली तारीख़ को “बाबा’’ ही होता है फिर ब-तदरीज कमाल को पहुंचता है!

बर्ग-ए-तूत अस्त कि गश्त: अस्त ब-तदरीज अतलस

तकमील

ख़्वाजा बुर्हानुद्दीन हज़रत बाबा साहिब के फ़रमान के मुताबिक़ हर साल महबूब-ए-इलाही की ख़िदमत में हाज़िर हो कर तर्बियत हासिल करते रहे आख़िर-कार दर्जा-ए-कमाल को पहुंच गए मगर उन्होंने कभी किसी को मुरीद नहीं किया।जो भी उन के पास मुरीद होने आता उसे हज़रत महबूब-ए-इलाही के पास भेज देते।अगर हज़रत महबूब-ए-पाक फ़रमाते कि जिस तरह मुझे बाबा साहिब की ख़िलाफ़त है उसी तरह आपको भी है आप मुरीद क्यों नहीं करते तो उस वक़्त भी वो यही फ़रमा   देते कि आप जैसे बुज़ुर्ग के होते हुए मेरे लिए ये काम मुनासिब नहीं है।

तीसरी पुश्त

हज़रत ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन ख़ानदानी और पैदाइशी दरवेश थे। एक तरफ़ उनको हज़रत इमाम अबू हनीफ़ा की औलाद-ए-अमजाद से होने का शरफ़ हासिल था तो  दसरी तरफ़ हज़रत महबूब-ए-पाक से ख़ुलूस-ओ-इरादत में उनकी तीसीरी पुश्त थी।  वो इ’ल्म-ओ-अ’मल और इ’श्क़-ओ-मोहब्बत के ला-ज़वाल ख़ज़ानों से ऐसे माला-माल थे कि उसकी मिसाल मुश्किल से मिलती है।सुल्तानुल-मशाइख़ का फ़ैज़ उनके रग-ओ-रेशे में जारी-ओ-सारी था।आँख खोलते ही उन्होंने अपने घर को महबूबी नेअ’मतों से मा’मूर देखा था।इसलिए दिल्ली में हाज़िरी का इत्तिफ़ाक़ कम होने के बावजूद वो सर से पैर तक निज़ामी रंग में रंगे हुए थे।

ख़िलाफ़त

हज़रत ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन मुनव्वर और हज़रत नसीरुद्दीन चिराग़ दिल्ली को साथ-साथ ख़िलाफ़त अ’ता हुई थी।पहले हज़रत ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन मुनव्वर को पास बुलाकर ख़िर्क़ा-ए-ख़िलाफ़त और वसिय्यत से सरफ़रारज़ फ़रमाया और दो रकअ’त शुक्राने के पढ़ने का हुक्म दिया।फिर हज़रत चिराग़ दिल्ली को ख़िर्क़ा-ए-ख़िलाफ़त अ’ता हुआ।जब ये दोनों नमाज़-ए-शुक्राना अदा कर के हाज़िर हुए तो इर्शाद हुआ कि दोनों एक दूसरे से गले मिलो और एक दूसरे को मुबारक-बाद दो। फिर फ़रमाया कि तुम दोनों भाई हो।अव्वल-ओ-आख़िर का ख़याल न करना।

ख़िलाफ़त के बा’द जब ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन मुनव्वर सुल्तानुल-मशाइख़ से रुख़्सत होने लगे तो हज़रत ने फ़रमाया कि तुम्हारे दादा शैख़ जमालुद्दीन हान्स्वी को किताब अ’वारिफ़ुल-मआ’रिफ़ का एक नुस्ख़ा हज़रत बाबा साहिब ने ख़िलाफ़त के वक़्त अ’ता फ़रमाया था।लेकिन जब मैं बाबा साहिब की ख़िलाफ़त से मुशर्रफ़ हो कर हांसी गया तो हज़रत जमाल हान्स्वी ने अ’वारिफ़ का ये नुस्ख़ा मुझे दे दिया और कहा कि हज़रत बाबा साहिब ने ये किताब मुझे बड़ी ने’मतों के साथ अ’ता फ़रमाई थी।अब मैं इस उम्मीद में आपकी नज़्र करता हूँ कि शायद मेरे किसी फ़र्ज़न्द को आपकी इरादत की सआ’दत नसीब हो और उस वक़्त आप इस किताब को दीनी और दुनियावी ने’मतों के साथ उसे अ’ता कर दें।लिहाज़ा अब मैं हर क़िस्म की ने’मतों के साथ ये किताब तुमको सौंपता हूँ।

शख़्सियत

पुश्तैनी पीर-ज़ादा होने की वजह से हज़रत क़ुतुबुद्दीन मुनव्वर की तबीअ’त में इस्ति़ग़ना और वक़ार ब-दर्जा-ए-अतम था। ख़िल्क़त के हुजूम और उमरा की इमारत को वो कभी ख़ातिर में नहीं लाते थे।निहायत इस्तिक़ामत के साथ अपने आबाई गोशे में मस्कन-गुज़ीं रहते थे।उनका ये इस्तिग़ना और वक़ार दर्द-ओ-मोहब्बत में आरास्ता था।तक़रीर बड़ी दिल-कश फ़रमाते थे।जो आदमी उनकी गुफ़्तुगू सुन लेता था मोहब्बत की आग अपने सीने में लेकर उठता था।पीर से इस दर्जा मोहब्बत थी उनका नाम-ए-नामी आते ही हज़रत रोने लगते और इस क़दर रोते कि हाज़िरीन को भी रोना आ जाता।

कहा जाता है कि हज़रत क़ुतुबुद्दीन मुनव्वर के ख़िलाफ़ मुख़ालिफ़ों ने सुल्तान मोहम्मद तुग़लक़ के कान भरने शुरूअ’ किए।उसको हज़रत का मुख़ालिफ़ बना दिया।लेकिन सुल्तान को कोई बहाना नहीं मिलता था कि हज़रत को तकलीफ़ पहुंचाए।आख़िर एक तरकीब उसकी समझ में आई कि हज़रत को जागीर दे दी जाए।फिर जागीर के सिलसिले में कोई बहाना ढूंढ कर हज़रत के ख़िलाफ़ कार्रवाई की जाए।चुनांचे अपने क़ाज़ी ख़्वाजा कमालुद्दीन को दो गाँव का फ़रमान देकर हज़रत के पास भेजा और हिदायत कर दी कि किसी न किसी तरह हज़रत से ये जागीर क़ुबूल करा लेना।

क़ाज़ी साहिब हांसी आए और फ़रमान को आसतीन में छुपाकर हाज़िर-ए-ख़िदमत हुए।मगर हज़रत उनकी आमद की ख़बर सुनते ही ताक़-ए-सफ़ा में जा बैठे जहाँ कभी हज़रत बाबा साहिब तशरीफ़ फ़रमा रह चुके थे।क़ाज़ी कमालुद्दीन सद्र-ए-जहाँ ने हज़रत की ख़िदमत में बादशाह की तरफ़ से इख़्लास-ओ-मोहब्बत का इज़हार करने के बा’द जागीर का फ़रमान पेश किया।

फ़रमान को देखकर हज़रत क़ुतुब मुनव्वर ने कहा कि जिस वक़्त सुल्तान नासिरुद्दीन मुल्तान की तरफ़ जा रहा था और सुल्तान ग़ियासुद्दीन नाएबुस्सल्तनत था सुल्तान ने अपने नाएब के ज़रिऐ’ इसी तरह हज़रत बाबा फ़रीदुउद्दीन गंज शकर की ख़िदमत में दो गाँव का फ़रमान भेजा था।मगर हज़रत बाबा साहिब ने ग़ियासुद्दीन से फ़रमा दिया था कि हमारे पीरों ने इस क़िस्म की चीज़ें क़ुबूल नहीं की हैं।इनके ख़्वाहिश-मंद और बहुत से हैं उनको दो।पस क़ाज़ी साहिब आपका फ़र्ज़ तो ये है कि अगर हम अपने पीरों की रविश के ख़िलाफ़ चलें तो आप हमको रोकें और नसीहत करें।लेकिन आप तो उल्टा मुझे एक ऐसे काम की तरफ़ बुला रहे हैं जो हमारे पीरों के तरीक़े के सरासर ख़िलाफ़ है।क़ाज़ी कमाल ये सुनकर खिसयाने हो गए और मुआ’फ़ी मांग कर रुख़्सत हो गए और बादशाह के पास जाकर निहायत उ’म्दगी के साथ हज़रत क़ुतुब मुनव्वर की करामत-ओ-अ’ज़्मत का तज़्किरा किया जिससे उसका दिल नर्म हो गया।

एक दफ़्आ’ सुल्तान मोहम्मद तुग़लक़ हांसी के चार कोस के फ़ासले पर मुक़ीम था।वहाँ से उसने मुख़्लिसुल-मुल्क  निज़ामुद्दीन को हांसी भेजा ताकि वहाँ के क़िले’ की शिकस्त-ओ-रेख़्त का मुआ’इना करे।ये शख़्स मुजस्सम ज़ुल्म था। हांसी  में जब वो हज़रत क़ुतुबुद्दीन मुनव्वर के मकान के पास से गुज़रा तो पूछने लगा कि किस का मकान है।लोगों ने बताया कि सुल्तानुल-मशाइख़ के ख़लीफ़ा शैख़ क़ुतुबुद्दीन मुनव्वर यहाँ रहते हैं। ये सुन कर वो कहने लगा कि तअ’ज्जुब है कि बादशाह इस शहर के क़रीब मुक़ीम है और ये उससे मिलने नहीं जाते।फिर बादशाह के पास आकर उससे भी यही बात कही कि फ़ुलाँ बुज़ुर्ग यहाँ रहते हैं मगर आपसे मिलने नहीं आते।बादशाह को अपनी शाही का ग़ुरूर था।उसने फ़ौरन हसन बरहना नामी को भेजा कि हज़रत को बुलाया जाए।हसन बरहना हज़रत के मकान पर पहुंचा और अपने शाही कर्र-ओ-फ़र्र को दूर छोड़कर ख़ुद हज़रत की चौखट पर जा बैठा। हज़रत उस वक़्त बाला-ख़ाने पर थे।इ’बादत से फ़ारिग़ हो कर उन्होंने नूर-ए-बातिनी से महसूस फ़रमा लिया कि हसन बरहना नामी आदमी चौखट पर बैठा है।चुनांचे हज़रत ने अपने साहिब-ज़ादे को नीचे भेजा कि हसन को बुला लाओ।हसन ने हाज़िर हो कर सलाम अ’र्ज़ किया और कहा कि बादशाह ने आपको बुलाया है।

हज़रत ने पूछा कहा इस जाने में मेरा इख़्तियार है या नहीं? हसन ने जवाब दिया कि मुझे हुक्म मिला है कि जिस तरह हो सके ले आओ।हज़रत ने कहा अल्लाह तआ’ला का शुक्र है कि मैं अपने इख़्तियार से बादशाह के पास नहीं जाता।फिर घर वालों को मुख़ातब कर के कहा कि तुम सबको ख़ुदा के सुपुर्द करता हूँ।मुसल्ला कंधे पर डाल हाथ में अ’सा लिए पैदल रवाना हो गए।हसन बरहना ने जब रू-ए-अनवर पर बुजु़र्गी की अ’लामत देखीं तो अदब से अ’र्ज़ किया कि यहाँ से शाही बारगाह बहुत दूर है।आप पैदल न चलें घोड़ा मौजूद है। हज़रत ने जवाब दिया घोड़े की कुछ ज़रूरत नहीं है।मुझमें पैदल चलने की ताक़त है।जब अपने आबा-ओ-अज्दाद के मद्फ़न के क़रीब पहुंचे तो हसन से इजाज़त ले कर फ़ातिहा पढ़ी और मज़ारों के पाइं खड़े हो कर कहा कि मैं आपके रौज़े से अपने इख़्तियार के साथ नहीं जा रहा।मुझे मजबूर किया गया है। चंद बंदगान-ए-ख़ुदा या’नी मेरे लवाहिक़ीन बे-ख़र्च हैं।ये कह कर रौज़े से बाहर आए तो एक शख़्स कुछ रुपया लिए खड़ा था।हज़रत ने पूछा क्या है।उसने अ’र्ज़ की मैंने ने किसी काम के लिए मन्नत मानी थी वो पूरा हो गया।अब मैं ये रुपया बतौर-ए-शुक्राना लाया हूँ क़ुबूल फ़रमइए।हज़रत ने ये रुपया घर भिजवा दिया और चार कोस पैदल चल कर शाही दरबार में पहुंचे।मगर बादशाह हज़रत से नहीं मिला और दिल्ली रवाना हो गया और हज़रत को साथ रखा।दिल्ली जाकर मुलाक़ात के लिए बुलवाया।बादशाह का वली-अ’ह्द फ़िरोज़ तुग़लक़ फ़क़ीर-दोस्त आदमी था।उसने हज़रत से कहा कि लोगों ने बादशाह को आपके ख़िलाफ़ भड़का रखा है इसलिए आप मुलाक़ात के वक़्त जहाँ तक हो सके नर्मी, तवाज़ो’ और अख़्लाक़ का बर्ताव फ़रमाएं ताकि उसकी ग़लत-फ़हमी दूर हो जाए।

हज़रत दरबार में दाख़िल हुए तो उनके साहिब-ज़ादे नूरुद्दीन साहिब पीछे पीछे चल रहे थे।उनको कभी शाही कर्र-ओ-फ़र्र देखने का इत्तिफ़ाक़ नहीं हुआ था इसलिए वो उमरा-ओ-रुऊसा की शान-ओ-शौक़त देखकर किसी क़दर हरासाँ हुए।हज़रत ने नूर-ए-बातिनी से इसको महसूस किया और पलट कर साहिब-ज़ादे से कहा।

“बेटा तमाम बुजु़र्गी और अ’ज़्मत अल्लाह तआ’ला ही को हासिल है!” जब बादशाह ने हज़रत को आते देखा तो उनकी तरफ़ से तग़ाफ़ुल बरत कर तीर-अंदाज़ी के खेल में मसरूफ़ हो गया।मगर हज़रत क़रीब तशरीफ़ लाए और बादशाह ने नज़र भर कर हज़रत को देखा तो फ़ौरन मुतवज्जिह हो कर मुसाफ़हा किया और कहने लगा कि मैं आपकी विलाएत में हाज़िर हुआ था लेकिन आपने मेरी तर्बियत नहीं फ़रमाई और मुलाक़ात तक न की।हज़रत ने जवाब दिया कि मैं एक दरवेश हूँ।अपने आपको बादशाहों की मुलाक़ात के लाएक़ नहीं पाया। बस एक कोने में बैठ कर सब के लिए दुआ’ करता हूँ।इस लिए आप मुझे दरबार-दारी से मा’ज़ूर समझें।हजरत की इस खरी गुफ़्तुगू से मोहम्मद तुग़लक़ बहुत मुतअस्सिर हुआ और अपने वली-अ’ह्द फ़िरोज़ तुग़लक़ से कहने लगा कि हज़रत का जो मक़्सद भी हो पूरा किया जाए। हज़रत ने फ़ौरन कहा कि मेरा मक़्सूद ज़ात-ए-इलाही और अपने आबा-ओ-अज्दाद का रौज़ा है।मुझे वहाँ वापस जाने की इजाज़त दी जाए।

हज़रत के रवाना होने के बा’द मोहम्मद तुग़लक़ कहने लगा कि अब तक मैंने जितने मशाइख़ से भी मुलाक़ात की है उन सब के हाथ मुसाफ़हे के वक़्त काँपते हुए महसूस किए लेकिन शैख़ क़ुतुबुद्दीन मुनव्वर ने बड़ी सख़्ती से मेरा हाथ पकड़ा और आपके चेहरे पर मैंने अन्वार का मुशाहदा किया।इस से पता चला कि उनकी बाबत लोगों ने हसद की बिना पर मुझसे शिकायत की थी वर्ना हक़ीक़त में हज़रत वली-ए-कामिल हैं। उसके बा’द उसने मौलाना ज़ियाउद्दीन बर्नी को एक लाख सिक्के देकर हज़रत की ख़िदमत में भेजा।हज़रत ने उनको क़ुबूल करने से इन्कार कर दिया।बादशाह के पास इस इन्कार की ख़बर पहुंची तो उसने कहा अगर एक लाख क़ुबूल नहीं करते तो पच्चास हज़ार ही पेश करो।मगर हज़रत ने उसे भी इन्कार किया कि इस दरवेश को तो दो-सेर खिचड़ी और थोड़ा सा घी काफ़ी हो जाता है।इन हज़ारहा सिक्कों का क्या करेगा। मौलाना ज़ियाउद्दीन बर्नी और फ़िरोज़ तुग़लक़ ने बड़ी आ’जिज़ी के साथ अ’र्ज़ की कि हज़रत कम-अज़-कम दो हज़ार ज़रूर क़ुबूल फ़रमा लें।इस से कम का ज़िक्र हम बादशाह के सामने नहीं कर सकते क्योंकि वो इस में सुबकी महसूस करेगा। इन लोगों के मजबूर करने से हज़रत ने दो हज़ार सिक्के ले लिए मगर उस में से कुछ रुपया हज़र



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