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उनके इक परफ़्यूम की शीशी अब तक है ...

यादों से तेरी यूँ हाथ छुड़ाता हूँ.
एड़ी से इक सिगरेट रोज़ बुझाता हूँ.

मुमकिन है मेहमान ही बन कर आ जाएँ,
रोटी का इक पेड़ा रोज़ गिराता हूँ.

छत पर उनको ले जाता हूँ शाम ढले,
ऐसे भी मैं तारे रात सजाता हूँ.

बातें मीठी तीखी अदरक जैसी है,
चुस्की-चुस्की जो मैं चाय पिलाता हूँ.

इक दिन इठला कर तितली भी आएगी,
आँगन में इक ऐसा पेड़ उगाता हूँ.

आदम-कद जो ले आए थे तुम उस-दिन,
उस टैडी के अब-तक नाज़ उठाता हूँ.

पीली सी वो चुन्नी भी खूँटी पर है,
जिसके साथ लिपट कर रात बिताता हूँ.

उनके इक परफ़्यूम की शीशी अब तक है,
आते जाते उसको रोज़ लगता हूँ.



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