मफ़लर लपेटे फ़र का पहाड़ी फिरन में आ
ऐ गुलबदन, जमाल उसी पैरहन में आ
हर सिम्त ढूँढती है तुझे ज़िन्दगी मेरी
पर तू खबर किए ही बिना फिर नयन में आ
साया न साय-दार दरख़्तों के क़ाफ़िले
आ फिर उसी पलाश के दहके चमन में आ
भेजा है माहताब ने इक अब्र सुरमई
लहरा के आसमानी दुपट्टा गगन में आ
तुझ सा मुझे क़ुबूल है, ज़्यादा न कम कहीं
आना है ज़िन्दगी में तो अपनी टशन में आ
महसूस कर सकूँ में तुझे साँस-साँस में
ख़ुशबू के जैसे घुल में बसन्ती पवन में आ
ख़ुद को जला के देता है ख़ुर्शीद रौशनी
दिल में अगर अगन है यही फिर हवन में आ
ख़ानाबदोश हो के यूँ भटकोगे कब तलक
अब लौट कर कभी तो दिगम्बर वतन में आ
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