जल्द ही ओढ़ लेगा सन्यासी चुनर
की रात का गहराता साया
मेहमान बन के आता है रौशनी के शहर
मत रखना हिसाब मुरझाए लम्हों का
स्याह से होते किस्सों का
नहीं सहेजना जख्मी यादें
सांसों की कच्ची-पक्की बुग्नी में
काट देना उम्र से वो टुकड़े
जहाँ गढ़ी हो दर्द की नुकीली कीलें
और न निकलने वाले काँटों का गहरा एहसास
की हो जाते हैं कुछ अच्छे दिन भी बरबाद
इन सबका हिसाब रखने में
वैसे जंगली गुलाब की यादों के बारे में
क्या ख्याल है ...
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