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जंगली गुलाब ...

लम्बे समय से गज़ल लिखते लिखते लग रहा है जैसे मेरा जंगली-गुलाब कहीं खो रहा है ... तो आज एक नई रचना के साथ ... अपने जंगली गुलाब के साथ ...

 

प्रेम क्या डाली पे झूलता फूल है ... 
मुरझा जाता है टूट जाने के कुछ लम्हों में
माना रहती हैं यादें, कई कई दिन ताज़ा

 

फिर सोचता हूँ प्रेम नागफनी क्यों नहीं 
रहता है ताज़ा कई कई दिन, तोड़ने के बाद 
दर्द भी देता है हर छुवन पर, हर बार  
 
कभी लगता है प्रेम करने वाले हो जाते हैं सुन्न  
दर्द से परे, हर सीमा से विलग 
बुनते हैं अपन प्रेम-आकाश, हर छुवन से इतर

 

देर तक सोचता हूँ, फिर पूछता हूँ खुद से
क्या मेरा भी प्रेम-आकाश है ... ? 
कब, कहाँ, कैसे, किसने बुना ...
पर उगे तो हैं, फूल भी नागफनी भी
क्यों ...

 

कसम है तुम्हें उसी प्रेम की
अगर हुआ है कभी मुझसे, तो सच-सच बताना  
प्रेम तो शायद नहीं ही कहेंगे उसे ...

 

तुम चाहो तो जंगली-गुलाब का नाम दे देना ... 



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