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नहीं तो अजल से यही है फ़साना ...

इसी चापलूसी की सीढ़ी से आना.
बुलंदी की छत पे जो तुमको है जाना.
 
कई बार इन्सानियत गर जगे तो, 
कड़ा कर के दिल से उसे फिर हटाना.
 
भले सच ये तन कर खड़ा सामने हो,
न सोचो दुबारा उसे बस मिटाना.
 
न वादा न यारी न रिश्तों की परवाह,
सिरे से जो एहसान हैं भूल जाना.
 
उठाया है तो क्या गिराना उसे ही,
यही रीत दुनिया की है तुम निभाना.
 
नहीं हैं ये अच्छे नियम ज़िन्दगी के,
करें क्या, है ज़ालिम मगर ये ज़माना.
 
सभी मिल के बदलें तो शायद ये बदलें,
नहीं तो अजल से यही है फ़साना.



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