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आम सा ये आदमी जो अड़ गया ...

सच के लिए हर किसी से लड़ गया.
नाम का झन्डा उसी का गढ़ गया.

 

ठीक है मिलती रहे जो दूर से,
धूप में ज्यादा टिका जो सड़ गया.

 

हाथ बढ़ाया न शब्द दो कहे, 
मार के ठोकर उसे वो बढ़ गया.

 

प्रेम के नगमों से थकेगा नहीं,
आप का जादू कभी जो चढ़ गया.

 

होश ठिकाने पे आ गए सभी,
वक़्त तमाचा कभी जो जड़ गया.

 

बाल पके, एड़ियाँ भी घिस गईं,
कोर्ट से पाला कभी जो पड़ गया.

 

जो न सितम मौसमों के सह सका,
फूल कभी पत्तियों सा झड़ गया.

 

तन्त्र की हिलने लगेंगी कुर्सियाँ,
आम सा ये आदमी जो अड़ गया.



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