आज मनुष्य का प्रकृति से रिश्ता टूट गया है। वसंत ऋतु का आना अब अनुभव करने के बजाय कैलेंडर की तारीखों से जाना जाता है। जनवरी-फ़रवरी के तोतलेबाजी में अमावास्या, एकादशी और पूर्णिमा के सामान कई विशेष दिन, माह और ऋतु हमारे लिए महत्वविहीन से हो चले हैं। दादा नाना के पञ्चाङ्ग को हमारे मोबाइल ने घर से बाहर का रास्ता दिखाया हैं।
ऋतुओं में परिवर्तन पहले की तरह ही आज भी तनिक ऊँच-नीच संग स्वभावतः घटित होते रहते हैं। पत्ते झड़ते हैं, कोपलें पूफटती हैं, हवा बहती है, ढाक के जंगल दहकते हैं, कोमल भ्रमर अपनी मस्ती में झूमते हैं, पर हमारी निगाह टीवी, मोबाइल, फेसबुक, व्हाट्सऐप, टविटर, यूट्यूब के स्टेटस और पोस्ट्स से आगे बढ़कर उनपर नहीं जाती। हम निरपेक्ष बने रहते हैं।
प्रस्तुत कविता वसंत आया के माध्यम से कवि रघुवीर सहाय जी आज के मनुष्य की आधुनिक जीवन शैली पर व्यंग्य किया है। लोग भूल गए हैं काव्य संग्रह पर साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित रघुवीर जी ने प्रस्तुत कविता के माध्यम से जीवन की विडंबना और छिपी हुई भावनाओं को कविता में बिम्बों और प्रतीकों के सुंदर प्रयोग संग प्रस्तुत किया हुआ है।
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जैसे बहन ‘दा’ कहती है
ऐसे किसी बँगले के किसी तरु( अशोक?) पर कोइ चिड़िया कुऊकी
चलती सड़क के किनारे लाल बजरी पर चुरमुराये पाँव तले
ऊँचे तरुवर से गिरे
बड़े-बड़े पियराये पत्ते
कोई छह बजे सुबह जैसे गरम पानी से नहायी हो-
खिली हुई हवा आयी फिरकी-सी आयी, चली गयी।
ऐसे, फ़ुटपाथ पर चलते-चलते-चलते
कल मैंने जाना कि बसन्त आया।
और यह कैलेण्डर से मालूम था
अमुक दिन वार मदनमहीने कि होवेगी पंचमी
दफ़्तर में छुट्टी थी- यह था प्रमाण
और कविताएँ पढ़ते रहने से यह पता था
कि दहर-दहर दहकेंगे कहीं ढाक के जंगल
आम बौर आवेंगे
रंग-रस-गन्ध से लदे-फँदे दूर के विदेश के
वे नन्दनवन होंगे यशस्वी
मधुमस्त पिक भौंर आदि अपना-अपना कृतित्व
अभ्यास करके दिखावेंगे
यही नहीं जाना था कि आज के नग्ण्य दिन जानूंगा
जैसे मैने जाना, कि बसन्त आया।