भारतीय सनातन संस्कृति में महिलाओं का स्थान बहुत सम्मानजनक व गरिमामयी रहा हैं। काल के विभिन्न परिस्थितियों में त्याग और बलिदान की उच्चतम पराकाष्ठा को जीवंत करने वाली ये प्रतिमूर्तियां आज भी अपने विविधता व चुनौतीपूर्ण भूमिकाओं से सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनैतिक व पारिवारिक पृष्टभूमि को सींचित कर रही हैं।
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वैश्वीकरण की अंधी भागदौड़ में कई तथाकथित बुद्धिजीवियों ने हमारे धार्मिक पृष्भूमि, संस्कृति, पराम्पराओ, वर्त-त्योहारों, उत्सवों व मान्यताओं पर प्रश्न चिन्ह खड़े किये हैं, फिर भी हमारी बहनें अपने भाई की सुख व समृद्धि प्राप्ति की कामना लिए श्रावण मास की पूर्णिमा को रक्षाबंधन, दीपावली के तीसरे दिन भाईदूज और झारखंड की आदिवासी बहनें करमा पूजा में प्रकृति की पूजा कर अपने भाइयों की सलामती के लिए प्रार्थना करती हैं। अखंड शौभाग्यवती व अपने वर की कुशलता-सम्पन्नता का कामना लिए पत्नीयां भाद्रपद शुक्ल पक्ष की तृतीया के दिन हरतालिका तीज करती हैं, तो वही ज्येष्ठ मास के उष्ण झोकों को पराजित करती हुई वट सावित्री व्रत करती हैं।
संतान की लंबी आयु, आरोग्य व कल्याण की कामना संग माताएं भिन्न तीज-त्यौहार कर देवता-पितर से आराधना करती हैं। इनमें पूर्वाचल विशेषतः बिहार का छठ पर्व से लेकर जिउतिया पूजा के तीन दिवसीय उत्सव के भिन्न-भिन्न रंग हैं, तथापि विविधता की इस रंगोली में एक ही सार्वभौमिक कामना समाहित हैं।
मैं इस आलेख के माध्यम से कल से आरम्भ हो रहे माताओं के त्रिदिवसीय संतान कामना पर्व जीवित्पुत्रिका के सन्दर्भ में लघु-चर्चा करूँगा। आश्विन माह की कृष्ण अष्टमी को प्रदोषकाल में माँ जीवित्पुत्रिका (कई जगहों पर जिउतिया और जितिया नाम से आयोजित) नामक निर्जला व्रत पुरे विधि-विधान से निष्ठापूर्वक करती हैं।
महापर्व छठ की भांति जितिया व्रत के पहले दिन को नहाई खाई कहा जाता है। महिलाएं प्रातःकाल से ही जल्दी जागकर घर-आँगन की गोबर से लिपाई व साफ-सफाई कर खीरा या झींगा के पत्तो में चील व सियारिन को दातुन-पानी देकर उत्सव में शामिल होने के लिए आमंत्रित करती हैं। स्नानादि के पश्चात दही-चूड़ा व गुड़ का प्रसाद साल के पत्तो पर से अर्पित किया जाता हैं। अष्टमी प्रारंभ से पहले ही महिलाये सात्विक भोजन करती हैं।
बड़ी दुर्घटनोपरांत यदि किसी व्यक्ति का बाल भी बांका न हो तो हमारे यहाँ एक कहावत हैं कि जरूर उसकी माँ ने खर जितिया व्रत किया होगा। व्रत के दूसरे दिन को खर जितिया कहा जाता है। जितिया व्रत का मुख्य दिन महिलाएं हलक से जल तक ग्रहण नहीं कर पुरे दिन निर्जला उपवास रखती है। प्रदोषकाल में महिलाएं ईख की डार से सजे मण्डप तले पुरे श्रद्धा और विश्वास के साथ जीमूतवाहन की पूजा कर कथा सुनती है।
व्रत का पारण अगले दिन प्रातःकाल किया जाता है।
‘कोस-कोस पर बदले पानी, चार कोस पर वाणी’ वाले हमारे प्रदेशो में हरेक व्रत-त्यौहार को मानाने के तौर-तरीको में तनिक परिवर्तन स्वाभाविक हैं, किन्तु पर्व-त्योहारों के इस चकाचौंध में सब माताओ का अपने शिशु के प्रति मर्म एक हैं।
सीमाओं पर तैनात पहरेदार जवानों के सम्मान में ‘ऐ मेरे वतन के लोगों‘ लिखकर जनमानस के नैनों में पावन अश्रुजल छलकाने वाले प्रसिद्ध कवि और गीतकार प्रदीप इन माताओं के प्रतिनिधित्व में लिखते हैं…
अपनी माँ की किस्मत पर मेरे बेटे तू मत रो
मैं तो काँटों में जी लुंगी जा तू फूलों पर सो
अपनी माँ की किस्मत पर…
तू ही मेरे दिन का सूरज तू मेरी रात का चंदा
एक दिन तो देगा तू ही मेरे अंत समय में कन्धा
मेरा देख के उजड़ा जीवन तू आज दुखी मत हो
मैं तो काँटों में जी लुंगी जा तू फूलों पर सो
अपनी माँ की किस्मत पर…
हसने के ये दिन हैं तेरे रोने से तेरा क्या नाता
रोने के लिए तो बेटा जनी है जगत में माता
मेरे लाल ये आंसू देदे अपनी दुखिया माँ को
मैं तो काँटों में जी लुंगी जा तू फूलों पर सो
अपनी माँ की किस्मत पर…
हमारी माई संगे-संग आपकी माई को भी गोड़ छूकर प्रणाम करते हैं।
जय हो…
जिंदाबाद…!
©पवन Belala Says 2018
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