वो अंतिम साल के अंतिम दिनों की गिनती करती बूढ़ी सी दिसम्बर की एक अलसायी सी सुबह थी। तापमान किसी चुनाव के दौरान नेताओं के मुंह से निकले निम्नतम स्तर की आरोप-प्रत्यारोप और सनसनीखेज बयानों तरह आज गिर चुका था। थर्मामीटर का पारा आज फिर चुनाव के पूर्व विपक्षी गठबन्धन की एकता की भांति एकजुट होकर अपनी शक्ति प्रदर्शन कर रही थीं। आसमान ने काले कलूटे अंधेरे के रजाई का त्याग कर मखमली कोहरे की सफेद चादर ओढ़ ली थी। ठंड में ठिठुरते हरे-हरे पत्तों से ओस की बूंदें रह-रह कर टपक रही थी। खिड़की के बाहर कौओं का एक जोड़ा ठंड में आज कुछ ऊँची आवाज में ही काउं-काउं करते हुए कलरव राग गुनगुना रहे थे। सूर्य देवता तक अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने के लिए कोहरे संग जदोजहद कर रहे थे, जिससे उनका रंग लाल लाल हो चुका था।
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इसी जद्दोजहद के मध्य अचानक दीवाल घड़ी पर नजर दौड़ाने पर मैंने महसूस किया कि दीवाल में टंगी घड़ी माता की सबसे छोटकी बहुरिया अपने 7 वे आशिक़ को गले लगाने वाली हैं। अब मैं मूकदर्शक बनकर कबतक खामोश रजाई के अंदर दुबकर रहा सकता था। अंततः अरविंद केजरीवाल जैसे शांत-शुशील अपने क्रांतिकारी मन को हार्दिक पटेल बनाकर बिस्तर से बाहर पहला कदम रखा। उफ्फ हाय रे ये बेदर्द ठंड, मार ही डाला रे बाप।
परंतु सर पर गुजरात चुनाव के समान जिम्मेवारियों की पहाड़ थीं, जिमसें मैं ठहरा वो हार्दिकवा टाइप का लौंडा, असफलता तो भाईवा तय थीं, पर बाबा ई क्या है न कि आप बिना तनिक डांनस का प्रैक्टिस-वरेक्टिस किये आंगन को ठेड़ा-मैरह कैसे कह सकते हैं, EVM पर दोषारोपण कैसे कर सकते हैं। सो फाइनली, आप समझ ही रहे हैं…।
इस ठंड में कितना लिखवाओगे भाई
और क्या….कभी टाइम निकाल कर आओ हवेली में, अदरक वाली चाय पिलाते हैं तुमको।