Get Even More Visitors To Your Blog, Upgrade To A Business Listing >>

स्त्री को लेकर प्रबुद्ध समाज का नजरिया

Thursday, 22 March 2012 


लगा
एक पूरी नदी उछल कर मुझे डुबो देगी
पर मुझे डर न था
मारे जाने की सदियों की धमकियों के बीच
मन ठहरा था आज     -  वर्तिका नंदा
स्त्री विमर्श के इस युग में जहां देह की मुक्ति से लेकर उनकी आर्थिक मुक्ति तक की बातें होती रहती हैं और स्त्री काफी हद तक बदली भी है। पर व्यावहारिक स्तर पर आज भी स्त्री को लेकर समाज का नजरिया बदला नहीं है। यहां तक कि तथाकथित शिक्षित और पत्रकार लेखक कहे जाने वाले लोगों में भी चीजें एक भाषिक छल के भीतर अपने पुराने रूप में वर्तमान हैं।
उदाहरण के तौर पर नयी पीढी के एक नवतुरिया पत्रकार ऐसे तो चूतिया शब्द, जिसका पत्रकारिता जगत में बडे पैमाने पर व्यवहार होता है, के प्रयोग पर रोष भरी शब्दावली में आपत्ति व्यक्त करते हैं, पर जब अपने ही एक साथी के स्त्री मित्र को लेकर नकारात्मक राय जाहिर करनी होती है तो वे बेबाकी से कह डालते हैं कि वह तो एकदम पाजी है, औरतों के पीछे कुत्ते की तरह भागता है। यहां देखें कि चूतिया गाली और औरतों के पीछे कुत्ते की तरह भागने में क्या अंतर है।
जैसे ही आप अपनी हाजिरजवाबी में किसी को औरतों के पीछे कुत्ते की तरह भागने वाला कहते हैं तो अपनी नासमझी में स्त्री जमात को भी न केवल कुतिया कह डालते हैं बल्कि उसे बेवकूफ और मूर्ख की सनातनी उपाधि से नवाज डालते हैं। अगर आप स्त्री को विकसित और बराबरी का मानते हैं तो क्या उसमें यह विवेक नहीं कि वह अपने पीछे किसे आने दे रही है, इसे समझ सके।
इसी तरह एक कथाकर महोदय एक बार अपने साथियों को अपनी कहानी का कच्चा ड्राफ्ट सुना रहे थे। वहां एक मित्र सपत्नीक उपस्थित थे। कहानी सांप्रदायिकता के खिलाफ उचित ढंग से मोर्चा खोल रही थी। कहानी पाठ के बाद मित्रों की राय मिल जाने के बाद उन्होंने मित्र की पत्नी से भी राय पूछी, उन्होंने कहानी के इस पहलू पर नाराजगी जताते हुए अपना सांप्रदायिक नजरिया जाहिर किया। 
इस पर मित्र हंसते हुए बस 'क्या भाभी, क्या भाभी' कहते रहे, बजाय उस विषय पर अपना नजरिया मजबूती से रखने के वे वहां किसी भी बहस से बच गए, क्योंकि भाभी जी को नाराज करना उन्हें उचित नहीं लगा, भविष्य के अपने स्वागत का ख्याल आ गया होगा। यही कथाकार महोदय पुरुषों से किसी विषय पर मतभेद होने पर मारपीट पर उतारू हो जाते हैं। दरअसल, उनका यह चरमपंथी रवैया ही उन्हें स्त्रियों के मामलें में दूसरे चरम पर ले जाकर चुप्पी या चापलूसी का हथियार थमा देता है।
आज का पुरुष स्त्री का प्रियपात्र बने रहने के साथ ही सामाजिकता के दबाव से भी बचकर निकल जाना चाहता है, नतीजा न तो वह स्त्री का विश्वास प्राप्त कर पाता है न नया समाज बना पाता है। नयी-नयी अफसरी में आयी एक लडकी का तबादला कुछ दूर हो गया. तब कुछ दिन उसने नयी जगह पर घर लेने की बजाय कुछ दिन अपनी कार से आफिस जाना तय किया। उनके एक सीनियर अधिकारी का भी तबादला उसी जगह उसी जगह हुआ था। 
लड़की ने अधिकारी महोदय को सहज ढंग से कहा कि 'सर आप मेरे ही साथ आफिस चला कीजिए जब तक किराये का कमरा आदि नहीं लेते हैं।' अधिकारी खुशी-खुशी गाड़ी  में बैठ गये. रास्ते भर वे समाज में स्त्री के प्रति गलत नजरिये पर रोशनी भी डालते रहे, फिर जब आफिस नजदीक आया तो बोले - 'ऐसा है, मुझे यहीं उतार दीजिए।' लडकी की समझ में बात नहीं आयी. सोचा कोई काम होगा, पर अधिकारी महोदय वहां से पैदल आफिस आ गये। लौटते में फिर लड़की ने उन्हें रास्ते में साथ बिठा लिया, पर घर आने के कुछ पहले ही वे फिर गाड़ी से उतर गये और पैदल घर गये। लड़की  को बहुत झटका लगा उनके इस व्यवहार से। यह एक आम रवैया है।
समाज को बदलने निकले लोग भी अपनी पत्नियों को कूपमंडूक बना रहने देते हैं, इस डर से कि उनका परिवार न टूटे, कि कल को उनकी अर्धांगिनी उन पर ही उंगली न उठाने लगे। पर एक युवा लडकी के साथ की अभिलाषा भी पाले रखते हैं। साथियों की अभिलाषा तमाम लडकियां भी पालती है और बनाती भी हैं, पर उन्हें क्या-क्या झेलना पड़ता है। और परिवार बचाने की जुगत में कैसा परिवार बचाते हैं वे। 
एक वामपंथी क्रांतिकारी पुरुष का बेटा जब नौकरी करने लगा तो उनकी पत्नी ने उनकी क्रांतिकारिता से पल्ला झाड़ा और भविष्य में बेटे आदि की भलाई के लिए एक पंडित से ग्रह दशा दिखा कर पति महोदय को कहा कि उन्हें एक महीना घर से बाहर रहना पड़ेगा क्योंकि राहु के खतरे से बचने का यही उपाय है। अब पति महोदय कभी बेटी के यहां रहते हैं, कभी अपने किसी मित्र के यहां।
समाज बदलेगा तो पिछले पारिवारिक ढांचे टूटेंगे ही और नये बनेंगे भी। संबंध भी नये बनेंगे और पिछले टूटेंगे। कुछ लोग रोना रोते हैं कि महानगरीय ढांचे में पुराने पारिवारिक संबंध नहीं रहे, पर ऐसा नहीं है।
पुराने संबंधों की जगह तमाम नये संबंध सामने आए हैं। पहले परिवार में साली, भाभी आदि तमाम संबंध रहते थे जो लडके-लड़कियों को शिक्षित करते थे और उनकी मदद करते थे। उनमें एक रागात्मक संबंध भी होता था। आज महानगरों में लडके-लडकियों के ऐसे तमाम रागात्मक संबंध हैं, जिन्हें आप पहचान नहीं पाते और उनमें पुराने आदिम संबंध तलाशते हुए सब नष्ट होने की बात करते हैं।
कोई भी लड़की जब महानगर में नौकरी करती है तो उसे भी कई साथियों की जरूरत पड़ती  है। उनकी अपनी संख्या पुरुषों के मुकाबले बहुत कम रहती है इसलिए वे मात्र लड़कियों से संबंध बनाकर अपना काम नहीं चला सकतीं। अब जो पुराने किस्म के लोग हैं और पुराने किस्म के प्रेमी भी, वे इसे समझ नहीं पाते। एक ओर स्नेह भरे सारे संबंधों को प्रेम की कोटि में रख उनके लिए मुश्किलें पैदा करते हैं, दूसरी ओर उन्हीं में से किसी एक से प्रेम भी करना चाहते हैं।
ऐसे में लड़की जब अपने कई मित्रों के साथ स्नेह भरा संबंध बनाती है तो वह उसकी जरूरतों की उपज होता है। उसके पास यहां जीजा, भाभी जैसे पारंपरिक संबंध नहीं होते, तो वह नये संबंध बनाती है। एक पत्रकार महोदय के आफिस में ऐसी ही एक लड़की काम करती थी जो मेरे शहर के पड़ोस से आती थी। अब पत्रकार महोदय रोज उसकी एक कहानी लेकर आते कि आज लड़की ने बस में उनका हाथ पकड़े रखा कुछ देर, तो आज अपने मेल का पासवर्ड दे दिया. लड़की ने विश्वास कर या विश्वास पैदा करने के लिए यह किया आदि । 
पर पत्रकार महोदय का रोना कई तरह का था कि भैया उसके मेल में कई प्रेमियों के मेल होते हैं। कि एक लडका अपनी गाडी से उसे सुबह छोडने आता है दूसरा शाम में ले जाता है। फिर शहीदी मुद्रा में यह भी बताते हैं कि वे पक्के प्रेमी हैं उसका साथ देते रहते हैं, बावजूद इसके।
वे नहीं समझ पाते कि यह एक महानगरीय नौकरीपेशा लडकी की जीवनशैली है जो पारंपरिक कसौटी पर खरी नहीं उतर सकती। उसके कई रागारत्मक संबंध होंगे। फिर जरूरत और अकेलेपन के दबाव के अनुसार वह भी अपना चुनाव रखेगी सामने। तब उन्हें अपने इन्हीं स्नेहिल बंधुओं में से चुनना होगा। तब कुछ का दिल टूटेगा ही। अगर उन्होंने उसे दिल से ले लिया है तो।
आगे पत्रकार महोदय ने कोशिश की कि पारिवारिक मित्र होने के चलते मैं लडकी के घर में उनके विवाह की बात चलाऊ। वे अक्सर रोते आते कि भाभी कुछ कीजिए। यह कितनी हास्यास्पद बात है कि एक युवा जो महानगर में पत्रकारिता कर रहा है अपने साथ काम करने वाली लडकी से हुए अपने तथाकथित प्रेम को विवाह में बदलने के लिए पारंपरिक सामंती तरीका अपनाते हुए पारिवारिक दबाव बनाने की कोशिश करता है। जबकि वह एक आधुनिक-शिक्षित लड़की है जो उस पर इतना विश्वास करती है, पर वह उसे हासिल करने की सामंती वृति में अपने विवेक को ताखे पर रख देता है।   
वह लडकी एक वाम शिक्षित पृष्ठभूमि के परिवार से आती है जहां अपवादस्वरूप ऐसा माहौल पिता की तरफ से मिलता है कि उनकी चारों लड़कियां पढ़-लिखकर अपने लिए लड़का  चुनती हैं। वैसे परिवार में एक वैज्ञनिक चेतना वाला पत्रकार अपनी मित्र पर विश्वास करने की बजाय पिछले रास्ते से घुसने की असफल कोशिश करता है। यह हमारे समाज की विडंबनाएं हैं।

0
Sha
Comments 

Ajai Kumar misra 2012-03
 
Kumar Mukul Ji ka yah lekh vartman mahanagari sabhyata aur sankriti ka ek aina hai. Hum kitane pragatisheel soch wale banane ki koshish karate hon lekin hamare ander ek chhudra manasikata bhi chhipi hai, ek taraf yah bhashan diya jata hai ki purushon aur auraton mein hamein anter nahin karana chahiye wahin doosari taraf jab hum apane kisi parichit ko kisi ladaki ya aurat ke saath jate huye ya baat karate hue dekhate hain to wahan hamari mansikata badal jati hai.
 r. chetan kranti 2012-03
 
चरित्र की इस फांक की जड़ में विचारों और सरोकारों का सिर्फ कारोबारी उपयोगितावाद तक सीमित हो जाना है. हम लोग विचार को ओढकर निकलते हैं जिस तरह धुले हुए कपडे जिनको दफ्तर का काम निबटाकर वापस उतार दिया जाता है शाम को. औरत के बदलाव के साथ कदम मिलाकर न चल पाने की अक्षमता तो इसका कारण है ही.
राजीव2012-03
मेरा अनुमान है इस घटना के सभी जीवित पात्र दिल्ली में हैं और बिहार की राजधानी पटना से वास्ता रखते हैं. लगता है चोट कमोबेश सभी पर लगी है जो इस कहानी के पात्र या श्रोता जो भी हैं. ऐसे विमर्शों में चटखारे लेने का चलन है. लेकिन मुकुल ने नाम लिए बगैर चर्चा का अच्छा सस्पेंस बनाये किया है. जो मुद्दे इस लेख में गिनाये गये हैं उसके पात्र हम सब हैं.

धर्मेन्द्र 2012-03-22 16:08
शीर्षक लगाना चाहिए था 'वामपंथ के सांस्कृतिक सांढ़'.बहुत अच्छा मुकुल भाई. इस तरह की बहसों से वामपंथियों में एक बार चर्चा का माहौल गर्म हों जाता है और वह गर्मी भी महसूस करते हैं अन्यथा वह जम्हाई ही लेते रहते हैं. वैसे वो कौन हैं जो जिनकी शादी अभी नहीं हुई है, कहिये तो मैं उनका जुगाड़ लगा दूँ.

Nisha Rani 2012-03-22
mukul ji achha likha hai aapne khaskar patrkaar mahoday ke baare me. hamare aaspas aise vichitra jeevon ki bharmaar hai. roj aise logon ko ladkiyan jhelne ko mazboor hain.
Quote
एक शुभेच्छु 2012-03-22 
वाह क्या लिखा है कुमार मुकुल ने, मजा आ गया. पर पूरी इमानदारी नही बरती है लिखने मे. महोदय अगर अपने कुछ अन्य वामपंथी मित्रो को नाम सहित उद्घातित करते तो...... ...........


This post first appeared on कारवॉं Karvaan, please read the originial post: here

Share the post

स्त्री को लेकर प्रबुद्ध समाज का नजरिया

×

Subscribe to कारवॉं Karvaan

Get updates delivered right to your inbox!

Thank you for your subscription

×