आत्म-स्वीकारोक्ति
मैं कह नहीं सकती,
बेवफ़ा उसको भी,
हाँ! मैंने देखा है,
उसकी वफ़ा को भी।
रही होगी कोई भी,
मजबूरी तभी तो,
छोड़ गया तन्हां,
यूँ, यहाँ मुझको भी।
तन्हां कहना भी,
शायद गलत होगा,
वह मौजूद रहता है,
तन-मन में अभी भी।
जुदा है जिस्म अभी,
है ना असर मुझ पर,
पर तुम समझते हो,
कायर उसे अभी भी।
हमारा न था कभी भी,
जिस्मानी रिश्ता,
आत्मिक रिश्तों को,
ना समझोगे कभी भी।
गुजर रहा अभी,
जीवन, ख़ुशी में “राही”,
शक राधा-कृष्ण पर,
न करता कोई भी।