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मृगतृष्णा


अपने लक्ष को आत्मसाध किये
यथार्थ मार्ग की तलाश लिए
मीलों लंबी इस ऊसर-भूमि मैं
अकेला खड़ा हूँ मैं

जब अस्वीकृतियों की तीव्र आंच समेटे
असफलता के तेज थपेड़े
मेरे कदमो को रोकते हैं
मायूसी की काली आधियाँ
अवसादों  के भयावह चक्रवात बनाकर
निरंतर मुझे पीछे ढकेलने का प्रयास करते हैं

तब मुझे सामने एक किरण दिखाई देती है
           
मैं प्रफुल्लित होकर सोचता हूँ
अब तो पथ पहचान चुका में
संघर्षों का प्रतिफल भी  
शायद दूर नहीं अब
बाधाओं को पार कर आंखिर
पहुँच जाऊँगा मैं गंतव्य तक
फिर किरण का अनुगमन करते
निकल पड़ता हूँ उसी दिशा में

पर , अपनी पूरी मनःशक्ति लगाकर
थका-प्यासा मीलों चलने पर
खुद को पाता हूँ फिर एक मुहाने पर
चारों तरफ जहाँ उम्मीदों की रेत भरी है

पथरा जाती है फिर चेतना मेरी
आत्मविश्वास जड़ें खोने लगता है
तन्हाईयाँ भी मुझसे कहने लगती हैं
"मूर्ख सा तू अब लगने लगता है,
ढूंढ ले कोई आसान लक्ष तू
छोड़ उसको, जो हतोत्साहित करता है"  

फिर गहरे असमंजस में पड़ा
में सोचता हूँ
इस लक्ष का अनुकरण छोड़कर
क्या उचित है अब लौटना
या जो जाता हो उस गंतव्य तक
फिर से ढूँढू वह मार्ग नया

तब फिर मुझे सामने फिर एक किरण दिखाई देती है

मन में फिर से उर्जा समेटे
अपनी नियति को जांचने
फिर उसी किरण को केंद्र बनाये
चल पड़ता हूँ उसी राह में
और फिर पाता हूँ गुमनाम अँधेरा

क्या लक्ष को पाने की इस प्यास में
मृगतृष्णा का ये दौर
यूँ ही चलता रहेगा
या पाउँगा कभी मैं निर्धारित लक्ष
या भटकता रहूँगा
यूँ ही जीवन पर्यंत














  


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मृगतृष्णा

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