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अनिकेतन की यात्रा

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हर रोज ड्योडी पर बैठे-बैठे
डूबते सूर्य से ताप लेने का प्रयास करता हूँ मैं
और पूछता रहता हूँ अपनी तन्हाई से...

“ए प्रिये ,
कब तक इस अतृप्त प्यास में
आकंठ यूँ ही डूबा रहूँगा मैं  
कब तक रहूँगा यूँ व्याकुल , कुंठित
कब तक जकड़ा रहूँगा मैं तुम्हारे पाश में”

झुँझलाते हुए वह बोलती है
“मत भूल ए निर्मोही ,
अनिकेतन है तू ,पुरवाई की तरह
अत्यंत है तेरा गंतव्य
और यथार्थ मार्ग से है तू अनभिज्ञ
भटकना है तुझे अभी अनंत शून्य में
और सहना है जो है असहनीय

आज ध्येय की कसोटी पर
वेदी पर हैं तेरे अपने
कभी आहुति देनी है तुझे उनकी अभिलाषाओं की  
और कभी दमन करना है अपनी भावनाओं का

इस गंतव्य के अपरिभाषित मार्ग में
साक्षात् होना है तुझे अभी
अनैतिक , अप्राकृतिक दशाओं से
कभी विश्वासपात्रों का घात सहना है
और कभी दो-चार होना है  
परिचितों के अपरिचित व्यवहार से”

फिर अपने अधरों पर
हलकी मुस्कान लिए वह कहती है

“हे प्रियतम ,
इस अपरिमित मार्ग में
तेरी संगिनी मैं ही तो हूँ 
तुझे पल-पल प्राप्त होने वाली
पीड़ा की सहभागी मैं ही तो हूँ 
क्यों मुझे तू समझता है पराया
इस विशाल मनःमरुथल में
तेरा एक-मात्र शाद्वल में ही तो हूँ "

"तन्हाई" का ये प्रतिउत्तर सुन
निरुत्तर हो जाता है ये मन
और इस अनिकेतन की ऊसर यात्रा का
जन्म ले लेता है एक और दिन



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अनिकेतन की यात्रा

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