क्या कहूँ आज के दिन को..
जिंदगी के एक नए अद्ध्याय का आरम्भ या एक पुराने का अंत
समय दो पल बैठ कर विचारने का मौका तो दे
तब सोचूं कि,
जो पाया है कालातीत वर्षों में उसे बैठ कर सँजोऊँ या
फिर कुछ चीजों को चुनकर फैंक दूँ किसी काले गहरे से कुँए में
डरता हूँ कि कहीं जिंदगी और लंबी न हो जाये
और सु-अवसरों , सु-यादों की तस्वीरें
मेरे जेहन से गायब न हो जाएँ
डरता हूँ कि,
जीने का प्रयत्न करते हुए, मरते इस समाज में
किसी और से आगे निकलने की घुड़-दौड़ में
कहीं उन हाथों से साथ न छूट जाये
जिनका हाथ थाम के मैंने चलना सीखा है
समय मौका दे तो हिसाब करूँ
कि क्या ,
अब अपने दौड़ते कदमों को थाम लेना चाहिए
या फिर कुछ और देर तक इस आपाधापी का हिस्सा बनना चाहिए