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सुनकर क्‍या तुम भला करोगे मेरी भोली आत्‍मकथा?

दांते ने कहा था कि हर लेखक अपने लेखन के ज़रिये अपनी कहानी सुना रहा होता है। या दूसरे शब्दों में कहें तो हर लेखक अपनी आत्मकथा लिखता है। यह बात केवल दांते के समय और समाज पर लागू नहीं होती। आदिकवि और वेदव्यास अपने ग्रंथों के रचयिता ही नहीं, उनकी घटनाओं के साक्षी भी रहे हैं। भर्तृहरि से लेकर निराला, अज्ञेय, और शमशेर सरीखे कवि भी अपनी बात कहते नज़र आते हैं। कविता में यह विचार कई तात्कालिक प्रश्नों के रूप में भी देखने को मिलता है – चाहे वह कविता में मौलिक अनुभवों का प्रश्न हो या कवि के अहम् की तलाश का। कविता में पाठक स्वभावतः कवि को ही देखता है।

यही बात उपन्यासों पर भी लागू होती है। अज्ञेय की ‘शेखर : एक जीवनी’ (1941) से लेकर मैत्रेयी पुष्पा की ‘कस्तूरी कुण्डल बसै’ (2003) तक दांते के विचार अपने स्वाभाविक रूप में आज भी प्रासंगिक हैं। उपन्यासों में मौजूद आत्मकथात्मक और जीवनी परक लेखन पर कई महत्वपूर्ण मनोवैज्ञानिकों ने अपनी बात रखी है। लेकिन इस विषय पर इनमें कोई एक मत स्थापित नहीं हो पाया है। इनके अलग-अलग पक्षों को सामने लाना इस लेख का एक उद्देश्य भी है।

इस सन्दर्भ में एक किस्सा याद आता है। प्रेमचंद ने ‘हंस’ के आत्मकथा केन्द्रित अंक के लिए सामग्री जुटाते समय जयशंकर प्रसाद से कुछ लिख भेजने का आग्रह किया था। प्रसाद ने गद्य कम लिखा है, पर जितना लिखा है वह अमूल्य है। इस अंक के लिए भी प्रसाद ने गद्य न लिखकर ‘आत्मकथ्य’ नाम की एक सुन्दर कविता रचकर प्रेमचंद को भेजा था, जिसका कुछ अंश प्रस्तुत है –

छोटे से जीवन की कैसे बड़े कथाएँ आज कहूँ?
क्‍या यह अच्‍छा नहीं कि औरों की सुनता मैं मौन रहूँ?
सुनकर क्‍या तुम भला करोगे मेरी भोली आत्‍मकथा?
अभी समय भी नहीं, थकी सोई है मेरी मौन व्‍यथा।

प्रसाद इस कविता में भले ही अपनी आत्मकथा लिखने से संकोच करते नज़र आते हैं, मगर बात बिलकुल उलटी है। यह कविता आत्मकथा लिखने से बचने की कोशिश करती हुई कवि के अहम् के सबसे नजदीक है। प्रसाद विनम्र होकर स्वीकारते हैं उनकी आत्मकथा सुनने लायक नहीं है, मगर ऐसा कहते हुए वे एक सुन्दर विरोधाभास पैदा करते हैं। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कहा है कि छायावादियों के लिए विषय अपने आप में कैसा है? यह मुख्य बात नहीं थी। बल्कि मुख्य बात यह थी कि विषयी के चित्त के राग से अनुरंजित होने के बाद विषय कैसा दीखता है? विषय इसमें गौण हो गया और कवि प्रमुख। प्रसाद की इस कविता में विषय और विषयी दोनों कवि खुद है। यही इस कविता का सुन्दर पैराडॉक्स है।

डॉ रामविलास शर्मा ने ठीक पहचाना है कि किसी भी छायावादी का दार्शनिक पक्ष इतना सुलझा हुआ नहीं है, जितना प्रसाद का। प्रसाद के ये गुण काफी हद तक अज्ञेय में भी देखने को मिलते हैं। इनकी कविताओं में कवि का अहम्, जिसे अंग्रेजी ‘राइटरस वॉइस कहते हैं, अकेले में अपने पाठक के मन में झांकता मालूम पड़ता है। अपनी प्रातः संकल्प’ नाम की कविता में अज्ञेय लिखते हैं, जो प्रसाद की बात से अलग नहीं –

आओ, भाई !
राजा जिस के होगे, होगे :
मैं तो नित्य उसी का हूँ जिस को
           स्वेच्छा से दिया जा चुका !

दांते की बात की और भी स्तरें हैं। लेखक के अनुभव और अहम् ही नहीं, उसके विचार और मनोदशा भी मिलकर लेखन और लेखक बीच के संबंध तय करते हैं और उन्हें जटिलता प्रदान करते हैं।

आत्मकथा की बात चली है तो बाणभट्ट को याद किये बिना बात बढ़ाई नहीं जा सकती। हजारीप्रसाद द्विवेदी की यह महान कृति अपने रूप में आत्मकथात्मक होकर भी काल्पनिक है। लेखक खुद कहता है इस इसे आत्मकथा न समझा जाए। लेकिन बात यहाँ समाप्त नहीं होती। बाणभट्ट की समकालीनता अद्वितीय है। आज़ादी के बाद हिंदी के लेखकों के सामने एक बड़ा प्रश्न राजाश्रय का था। क्या लेखक को सत्ता का पक्षधर होना चाहिए? आचार्य द्विवेदी की ही तरह उनका नायक भी इसी समस्या से जूझता नज़र आता है। अपनी मनोदशा में बाणभट्ट खुद आचार्य द्विवेदी का ही प्रतिरूप है। इस सन्दर्भ में ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ आचार्य द्विवेदी की सच्ची आत्मकथा के काफी नज़दीक है।

इस सन्दर्भ में उत्तराधुनिक्तावादियों का तर्क उलटा है। मिकेल फूको का तर्क यह है कि लेखन को उसके लेखक से अलग कर देखा जाना चाहिए, और जब तक ऐसा नहीं होता तब तक लेखक एक व्यक्ति नहीं बल्कि एक प्रक्रिया (फंक्शन) है। रोलाँ बार्थ ने भी अपने चर्चित निबंध ‘डेथ ऑफ़ अन ऑथर’ (1967) में लेखक और लेखन को अलग अलग अस्तित्व प्रदान किए जाने की गुज़ारिश की है।

कई बार लेखक अपने अनुभवों के बिलकुल विपरीत लिखता है. इसे मनोवैज्ञानिक सन्दर्भ से देखा जाना चाहिए। अल्फ्रेड एडलर के मुताबिक हम अक्सर अपने विचारों के माध्यम से अपने जीवन की कंपनसेशन (त्रुटिपूर्ति) कर रहे होते हैं। लेखकों का कंपनसेशन स्वभावतः उनका लेखन करती है। लेखन में वह सब होता दिखलाई पड़ता है जो लेखक के जीवन में नहीं है। सूरदास की कविताओं में राधा-कृष्ण के रुप सौन्दर्य का सचित्र वर्णन और अलग-अलग रंगों का चित्रण कवि की जन्मान्धता की त्रुटिपूर्ति करता है। शमशेर की महान कविता ‘टूटी हुई बिखरी हुई’ में भी ऐसा ही कुछ चलता नज़र आता है, जहाँ जीवन की त्रुटिपूर्ति कविता कर रही होती है।

इसीलिए हम अक्सर देखते हैं कि लेखक के जीवन और उसके विचारों के बीच परस्पर विरोधी सम्बन्ध होने को गलत नहीं समझा जाता। पश्चिम में यह बात खुले तौर पर दिखलाई पड़ती है। एंगेल्स ने मार्गरेट हार्कनेस को 1888 में लिखी चिट्ठी में कहा था – ‘लेखक की आस्था लेखन में जितनी अप्रत्यक्ष हो, कला का स्तर उतना ही ऊंचा हो जाता है।’ इसी चिट्ठी में वे बालज़ाक के लेखन की प्रसंशा करते हुए आगे लिखते हैं कि अच्छा लेखक अपने विचारों के विरुद्ध जाकर लिखता है। हमारे अपने कविताशास्त्र के सन्दर्भ में कहें तो इस विरोधाभास से लेखन की व्यंजना शक्ति को बल मिलता है।

बालज़ाक विचारों से सामंतवादी थे। अपने लेखनकाल में उन्होंने अपने वर्ग का पतन और पूंजीवाद की जीत देखी। एंगेल्स के मुताबिक बालज़ाक का साहित्य सामंतवादी विचारों की निंदा करता है, मगर लेखक का अहम् एक शोकगीत गाने वाले का अहम् है। अपने वर्ग की विचारधारा को हारते हुए देख बालज़ाक उसपर प्रहार करते हैं, मगर वेदना से भरकर। वे बदलते समाज में जन्म लेती नई विचारधारों के गुणों को दिखाकर सामंतवाद को ठीक वैसे ही लताड़ते हैं, जैसे एक बाप अपने पढ़ाई में कमजोर बेटे को रिजल्ट के दिन फटकारता है।

बालज़ाक और टॉलस्टॉय के बीच तुलनात्मक अध्ययन करते हुए गोर्गी लुकास समेत कई मार्क्सवादियों ने यथार्थवाद पर मिलते-जुलते विचार रखे हैं। इन्होंने यथार्थवादियों में सबसे महान लेखक बालज़ाक को माना है। टॉलस्टॉय अपने विचारों का आरोपण अपने साहित्य में करते नज़र आते हैं। उनके साहित्य में विचार अक्सर हावी दिखाई पड़ता है। ईसाइयत और धर्म सम्बन्धी अपनी मान्यताएं वे पाठकों पर थोपने की कोशिश करते है। बालज़ाक के साथ ऐसा नहीं है। वे अपने विरोधाभास की वजह से सामंतवादी होकर भी महान हैं।

अपनी मान्यताओं को उजागर करने का काम आज का हर साहित्यकार कम-बेशी करता ही है। ब्लान्चो ने अपनी किताब ‘द राइटिंग ऑफ़ द डिज़ास्टर’ में लेखकों (और खासकर कवियों) को नर्सिसिस्ट (आत्मकामी) कहा है। उनके मुताबिक अपनी बातों को दुहराने की आदत की वजह से कविता वग्मिता और लय से बढ़कर काम करती है। यह एक प्रकार का नर्सिसिस्म है जो किसी भी व्यक्ति के अहम् और स्वाभिमान के लिए आवश्यक है। फ्रायड ने भी नर्सिसिस्म के पक्ष में ही लिखा है। इसी वजह से पश्चिमी साहित्य के मूल्यांकन में भाषा, ध्वनी, संकेत, मनोविज्ञान इत्यादि महत्वपूर्ण माने गए हैं। दुर्भाग्यवश हमारे साथ ऐसा संभव नहीं हो पाया है।

वर्तमान हिंदी साहित्य में दांते का कथन लेखक की आत्मकथात्मकता से अधिक उसकी अस्मिता पर लागू होता नजर आता है। हम मेरी से अधिक हमारी आत्मकथा की बात करने लगे हैं। स्त्री विमर्श और दलित विमर्श इसी के दो विकसित रूप हैं। स्त्री विमर्श की बात पहले करते हैं। इसमें मौजूद कई स्वर महत्वपूर्ण रहे हैं। ‘तेरा कोई नहीं रोकनहार मगन होय मीरा चली’ से जुड़ी कई आवाज़ें आज भी हमारे अन्दर गहरी वेदना पैदा करती हैं। सविता भार्गव की ‘गालियाँ’ कविता को ही ले लीजिए –

ड्रामा कोर्स में
एक वाचाल वेश्या का अभिनय करते हुए
मंच पर मैं बके जा रही थी
माँ-बहन की गालियाँ

पूरी पृथ्वी एक मंच है
जिसमें पुरुष की यह
आम भाषा है
बोलने को जिसे
स्त्री को
वेश्या के अभिनय का
सहारा लेना पड़ता है।

स्त्री चेतना का विकास आधुनिक हिंदी साहित्य के शुरुवाती दौर से ही हुआ। 1874 में भारतेन्दु द्वारा प्रकाशित ‘बाल बोधिनी’ हमारी पहली स्त्री केन्द्रित पत्रिका थी। साल 1905 में मुंशी देवी प्रसाद ने ‘मृदुवाणी’ नाम के एक स्त्री काव्य संकलन का संपादन किया, जिसमें 35 कवयित्रियाँ सामने आईं। स्त्री का पक्ष समय के साथ साहित्य में दुरुस्त हुआ है, और इससे समाज में स्त्री स्वाभिमान का विकास भी हुआ है।

मगर इसी चेतना में स्त्री विमर्श की बड़ी समस्या भी निहित है। स्त्री विमर्श की अस्मिता का आग्रह यही है कि पुरुष स्त्री की भावना नहीं समझ सकता। पुरुष अपने लेखन के ज़रिये समर्थन दिखा सकता है, मगर चेतना के स्तर पर एक स्त्री होकर उसके स्वर में नहीं बोल सकता। पुरुष लेखक स्त्री वेदना पर लिखते रहे हैं। पवन करण और लाल्टू सरीखे कवियों ने अपने भीतर के स्त्री पक्ष को सुन्दर तरीके से दर्शाया है। लेकिन क्या कोई कवि स्त्री के अहम् में डूबकर लिख सकेगा, यह देखा जाना अभी बाकी है। हमारी भाषा के ये दरवाज़े फिलहाल बंद ही हैं।

दलित विमर्श में भी यह आग्रह गहरा है कि दलित की व्यथा कोई गैर-दलित नहीं समझ सकता। साहित्य में भी इन्होंने प्रेमचंद सरीखों को लगभग नकार दिया है। स्त्री विमर्श की तरह यहाँ भी सहानुभूति संभव है, चेतना का विलयन नहीं। तुलसीदास की रामभक्ति में दलितों का स्वर उनके प्रभु के जातिहीन व्यक्तियों को अपनाने तक ही सीमित था – ‘निर्गुन निलज कुबेष कपाली/ आकुल अगेह दिगम्बर ब्याली।’ दलित की व्यथा मनुष्य की व्यथा से अलग नहीं है। यही मानवीय संवेदनाएं हमें जोड़े रखने का कार्य करती हैं।

यहाँ एक और किस्सा सुनाने की इजाज़त चाहता हूँ। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ‘सरस्वती’ के सितंबर 1914 के अंक में पटना के हीरा डोम की एक कविता प्रकाशित की थी। ‘अछूत की शिकायत’ नाम की इस भोजपूरी कविता का कुछ अंश यहाँ प्रस्तुत है –

बभने के लेखे हम भिखिया न मांगबजां,
ठकुर क लेखे नहिं लउरि चलाइबि।
सहुआ के लेखे नहि डांड़ी हम जोरबजां,
अहिरा के लेखे न कबित्त हम जोरजां,
पबड़ी न बनि के कचहरी में जाइबि॥

इस बात की उचित सराहना हुई है कि आचार्य द्विवेदी ने आज से सौ साल पहले एक अनपढ़ दलित की कविता को अपनी पत्रिका में स्थान दिया था। खगेन्द्र ठाकुर ने यह शंका जाहिर की है कि कहीं यह कविता आचार्य द्विवेदी ने खुद ही तो नहीं लिखी थी? हीरा डोम के अस्तित्व के ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं। हीरा डोम की वर्ग चेतना, पीड़ा, और वेदना से जुड़कर लिख पाना आचार्य द्विवेदी के लिए शायद संभव भी रहा हो। लेकिन कविता में वेदना का स्वर प्रबल न होकर अगर सवर्णों के खिलाफ़ विद्रोह का स्वर प्रबल होता तो भी क्या हम हीरा डोम में आचार्य द्विवेदी को देख पाते?

आज के दौर में अगर कोई ग़ैर-दलित अगर दलित चेतना से जुड़कर लिखता है तो पाठकों की नज़र में वह अपने आत्मकथ्य से विमुख हो रहा होता है। लेखन के स्तर पर यह मुश्किल काम है, लेकिन असंभव कतई नहीं है। ऐसे प्रयासों की सराहना होनी चाहिए, लेकिन दलित अस्मिता उन्हें पीछे धकेल देती है। हिंदी के सन्दर्भ में दांते का यह कथन कि एक लेखक हमेशा अपनी आत्मकथा लिखता है, उसकी अस्मिता पर भी लागू होने लगा है। इससे हिंदी समुदाय और इसके साहित्य को क्षति पहुँचती है।

मार्क्सवादी विचारधारा में प्रस्तावित और उपेक्षित एक शब्द के तात्कालिक प्रयोग से इस समस्या का समाधान संभव है। मार्क्स ने ‘डीक्लास’ शब्द की नींव रखी थी, लेकिन इसका इस्तेमाल ‘लूम्पेन-प्रोलिटेरियट’, यानि असामाजिक व्यक्तियों के लिए किया। अडोर्नो ने कदम बढ़ाकर ‘एस्थेटिक्स एंड पॉलिटिक्स’ में डीक्लास का इस्तेमाल वर्ग चेतना से बाहर निकले हुए कलाकारों और बुद्धिजीवियों के व्यावहारिक होने की प्रक्रिया को दर्शाते हुए (प्रशंसा करते हुए नहीं) किया है। 1986 में अमरीकी इतिहासकार जेरडा लर्नर ने अपनी किताब ‘द क्रिएशन ऑफ़ पेट्रियार्की’ में डीक्लास शब्द का इस्तेमाल करते हुए लिखा है – ‘स्त्री की वर्ग चेतना का विकास पुरुष के साथ उसके लैंगिक सम्बन्ध से निर्धारित हुआ है। उत्पादन और संसाधनों पर स्त्री का नियंत्रण पुरुष के माध्यम से तय होता था। एक ‘इज्ज़तदार स्त्री’ का अपने वर्ग में आगमन अपने पिता या पति के जरिये होता था। इन लैंगिक संबंधों का खंडन करते ही वह डीक्लास हो जाती थी।’ यहाँ डीक्लास होना अराजकतावादी होने जैसा कुछ लगने लगता है। इस सन्दर्भ में लेखकों को डीक्लास होना ही चाहिए।

यहाँ आदिकवि और वेदव्यास का अनायास पुनर्स्मरण हो आता है। ये दोनों ब्राह्मण नहीं थे। जैसा कि कहा जाता है, वेदव्यास की माता सत्यवती निषाद जाति की थी, और वाल्मीकि का जन्म नागा प्रजाति में हुआ था। अपने ग्रंथों की रचना करते हुए ये मनुष्यों की जाति-प्रजाति की भावना से आगे निकलकर पारलौकिक (ट्रांसिडेंटल) बन गए। इनका काम भी डीक्लास होकर लिखने जैसा ही कुछ था, तभी इन्हें ‘भगवान’ का दर्जा दिया गया।

साहित्य के अलग-अलग आवाज़ों को एकसाथ बढ़ावा देते हुए हम लेखकों को डीक्लास ही नहीं, डीकास्ट और डीसेक्स होकर भी लिखने की ज़रुरत है। स्त्री विमर्श और दलित विमर्श महत्वपूर्ण सामाजिक आन्दोलनों से जन्मे साहित्यिक परिवर्तन हैं, लेकिन इनसे जन्मी विडम्बनाओं से पार पाना हिंदी समुदाय और भाषा के लिए आवश्यक है. लेखक जाति, प्रजाति, लिंग की भावना से ऊपर उठकर बनता है, यह बात जब तक हमारे साहित्य के अलग-अलग स्वरों का एक मन्त्र नहीं बनेगी, हम जाने-अनजाने में हिंदी समुदाय, साहित्य, और भाषा के विकास में बाधक बनते रहेंगे।

सदानीरा – 12 से साभार।

चित्र: जोहानेस वरमीर



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