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love and politics

प्यार और सियासत 




कल ही देखा था उसको ....हरी साड़ी पहनकर बजार मे गोलगप्पे खाते हुए ..
अभी पिछले बरस की ही बात है जब वो हमारे पड़ोस मे दो मकान छोड़ मिश्रा जी के घर किरायेदार बनकर आई थी , उसके साथ उसका पूरा कुनबा था जिसके मुखिया उसके पिता जी थे जो की शहर मे दरोगा थे.
परिवार मे मां के अलावा एक छोटी बहन और दो बड़े भाई भी थे , भाइयो मे एक की शादी हो चुकी थी और भाभी की गोद मे एक साल भर की लड़की थी नाम था अर्पिता .
गोलगप्पा खाने के दौरान ही उसने मुझे देख लिया था पर देखकर अनदेखा करना शायद नियती की मजबूरी थी ऐसी मजबूरी जिसे पति कहते है जो की उसके साथ मे ही खड़ा था . गोलगाप्पे का स्वाद जो भी हो पर इस मुलाकात ने उन यादों और उन जख्मो को हरा कर दिया था जो वक़्त ने दिये थे .

नये किरायेदार के बारे मे उत्सुकता तब और बढ जाती है जब परिवार की कोई सदस्या अपनी खूबसूरती की छाप आते ही छोड़ देती है , मुहल्लो के लौंडो के बीच चर्चा का विषय राजनीति से बदलकर अचानक ही प्रेमनीति हो जाती है और जिन्होने आजतक प्रेम का ककहरा भी ना सीखा हो वे अपने ज्ञान का प्रदर्शन ऐसे करते है जैसे प्रेमशास्त्र की रचना उन्ही के द्वारा की गई हो .....उसपर से आजकल के नये लौंडे जिनके सिर् पर चारो तरफ रेगिस्तान नजर आता है और बीच मे कपास की फसल उनकी शुरुआत प्रेमशास्त्र के आखिरी पन्ने से होते हुये सीधे रिज़ल्ट तक पहुंच जाती है


मुझे कभी भी अपने मुहल्ले की इस तरह के समुदाय पसंद नही आए थे , मेरी दिनचर्या सीधा यूनिवर्सिटी से घर और घर से यूनिवर्सिटी बस यहीं तक सीमित थी . बीच मे मित्र आसिफ़ के घर पर जरूर कुछ ज्ञान की बाते हो जाया करती थी .
उसका पति पुलिस विभाग मे ही कांस्टेबल था . तथा उसके पिता जी उसके सीनियर हुआ करते थे . मुहल्ले मे अब बात के अलावा आगे की रणनीति पर विचार किया जाने लगा पहली छोटी सी समस्या उसके बाप के आगे सिर् झुकाने की थी जिससे आगे का पथ सुलभ हो जाता.

पर समस्या यह थी की आखिर बिल्ली के गले मे घंटी बांधेगा कौन . शाम के समय अक्सर ही चर्चा करते करते देर हो जाया करती थी ऐसे ही एक शाम मे पैदल ही आसिफ़ के घर से लौट रहा था तभी रास्ते मे लोगो का झुंड एक आदमी को दौड़ाते हुए चला आ रहा था भीड़ के पास आने पर पता चला की वो कोई पत्रकार था जिसने किसी समुदाय विशेष के खिलाफ अपने अखबार मे कुछ लिख दिया था इससे पहले की भीड़ एक ग़ली के घुमावदार रास्ते मे घूमति मैने उस पत्रकार को इशारे से एक घर के अंदर जाने को कहा . वो घर आसिफ़ का था .गजब का खून सवार था उस भीड़ पर जैसे कानून नाम की वस्तु उनके लिये कोई मायने नही रखती उसमे से कुछ लडको को में जानता था जो की पैसे के लिये कुछ भी करने को तैयार रहते थे , उनका सारे राजनीतिक दलो के साथ उतना बैठना था , खैर भीड़ अपने मंसूबो मे नाकाम रही और उसके हाने के बाद मैने पत्रकार जी से पूरी जानकारी ली , पता चला की उनके लेख मे कुछ ऐसा नही था जिससे तनाव का बीज अंकुरित होता , वे  मेरे साथ ही थाने गये और उन्होने पुलिस को सारी बात बताई वही मेरी मुलाकात शेखर अंकल से हुई .... यही नाम था उसके पिता जी का उनसे मिलने पर पता चला की पुलिस मे होते हुए भी उनके अंदर कितनी सौम्यता थी बस उनका चेहरा ही अमरीश पुरी की तरह था पर दिल अंदर से एकदम मुलायम . यही से उनके घर आने जाने का सिलसिला चालू हो गया जिसने धीरे - धीरे  परिवारिक मित्रता का रूप ले लिया . और यही से उससे पहली मुलाकात हुई ....झुकी नजरे, सरल स्वभाव और गुड़ से भी ज्यादा मीठी बोली जो की सामने वाले को मन्त्र मुग्ध कर देती थी .

उसकी नजरे भी सभा से कुछ वक़्त निकाल कर हमारी नजरो को अपने होने का अहसास करा देती थी . बातों मे पता चला की उसकी गणित बहुत ही कमजोर है और मैं  ठहरा गणित से बीससी बस मिल गया हमको भी मौका अपनी काबिलियत दिखाने का हर रोज शम को बस दिक्कत यही थी की आसिफ़ भाई का साथ जरूर छूट गया . इधर आसिफ़ भाई का साथ छूटा उधर हर शाम नये नये पकवानो से रिश्ता जुड़ गया , उसकी भाभी पाककला मे निपुण थी और उन्हे नित नये - नये पकवान बनाने का शौक था हमने भी सोच लिया की दामाद बनेंगे तो इसी घर के.

इधर आती रुझानो ने संकेत देना शुरु कर दिया की अब सही वक़्त आ गया है अपने अंदर के ज़ज्बातो को बाहर निकलने का बस हमने भी एक अच्छा सा मुहूरत देखकर बोल ही दिया जवाब तो पहले से नही मालूम था पर जो कुछ आया उसकी हमने कल्पना भी नही की थी पता चला की उसने दो दिन पहले ही हमारी पुस्तक मे एक पन्ने पर अपना इजहार कर दिया था यहा भी हम पीछे रह गये .

यूनिवर्सिटी मे अभी कक्षाये प्रारंभ ही हुई थी की बाहर शोरगुल मचने लगा पता चला की शहर मे दंगे शुरु हो चुके है . सब अपनी अपनी जान बचाने को भागने लगे . मैं  भी अपने घर तेजी से साइकल चलता हुआ निकल पड़ा रास्ते का नजारा वर्णन करने लायक नही था घर पहुचने से कुछ दूर पहले ही दो लोग मेरी तरफ तलवार लेकर आते हुए दिखाई दिये अचानक उनमे से एक के कदम दौड़ते दौड़ते रुक गये .... आसिफ़ मियां थे वो ............

घर पर सबकी निगाहे मुझे ही ढूंढ रही थी , मुहल्ले के लौंडो ने अपनी अलग टीम बना ली थी जो की 24 घंटे पहरा देते थे . कुछ सियासतदारो ने अपने स्वार्थ के लिये पूरा शहर ही जला दिया और हम सोचते रहे की ये धुंआ सा क्यो है . अगले दिन मुहल्ले मे बड़ी शान्ती थी कुछ के चेहरे बता रहे थे की ए बिजली अपने आस पास ही गिरि है . चढ़ा दी थी बलि सियासत के हकुमराणो ने कुछ ईमानदार पुलिसवालो और निर्दोष इंसानो की .
बस वो आखिरी सुबह थी उसको देखे हुए कुछ अरमान थे जल गये चिता मे कुछ अरमान थे चिता मे जलने वाले के उन्हे पूरा करने के लिये .........ना हमे कुछ मिला ना तुम्हे कुछ मिला फिर भी ना जाने आपस मे कितना है गिला ...सत्ता के जादूगर है वो इस जादू ने जाने कितनो को लीला ....

इन्हे भी पढ़े - 
राजनीति का खेल (कविता )


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