Get Even More Visitors To Your Blog, Upgrade To A Business Listing >>

मायावती को इस्तीफा देने की याद क्यों आई ?

बहुजन समाज पार्टी के ट्विटर खाते से
ये बात मायावती को लोकसभा चुनाव परिणाम के तुरन्त बाद अच्छे से ध्यान में आना चाहिए था। क्योंकि, उत्तर प्रदेश ने हाथी निशान पर एक भी व्यक्ति को संसद में पहुंचने लायक नहीं माना। चलिए उस समय ध्यान में नहीं आया। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे के तुरन्त बाद ये बात पक्के तौर पर ध्यान में आ जाना चाहिए था। लेकिन, उस समय भी मायावती को ये समझ नहीं आया कि वो दलितों की बात नहीं कह पा रही हैं। अब जाकर मायावती को समझ में आया, जब वो लोकसभा चुनाव में साफ हो गईं और विधानसभा में भी बहुजन समाज पार्टी के सिर्फ 19 विधायक चुनकर पहुंचे। 1984 में बीएसपी के अस्तित्व में आने के बाद से पार्टी का इतना बुरा हाल कभी नहीं रहा। 1989 में भी बीएसपी के 2 सांसद चुनकर लोकसभा में पहुंचे थे और 13 विधायक उत्तर प्रदेश विधानसभा में थे। वो उठान पर जाती बीएसपी थी। अब 2014 में बीएसपी का एक भी सांसद लोकसभा में नहीं है और 2017 में सिर्फ 19 विधायक उत्तर प्रदेश में बीएसपी के हैं। बीएसपी के इस हाल पर पुनर्मूषको भवएकदम सटीक बैठता है।
पुनर्मूषको भव होने के बाद भी मायावती को कतई याद नहीं आया कि मायावती दलितों की बात कह नहीं पा रही हैं या फिर दलित सुन नहीं पा रहा है कि वो उनकी बात कह रही हैं। मायावती को ये भ्रम बने रहने की 2 वजहें थीं। पहली बड़ी वजह कि सबके बाद वो देश की सबसे बड़ी दलित नेता थीं। और दूसरी वजह ये कि, उत्तर प्रदेश में भले मायावती की पार्टी के सिर्फ 19 विधायक चुने गए। मायावती की बहुजन समाज पार्टी को 2017 विधानसभा चुनावों में मत प्रतिशत के लिहाज से खास नुकसान नहीं हुआ। बीएसपी को 22.2 प्रतिशत मत मिले। लेकिन, मायावती को डर तब लगना शुरू हुआ जब नरेंद्र मोदी और अमित शाह वाली बीजेपी ने सबको चौंकाते हुए रामनाथ कोविंद को रायसीना पहाड़ी पर पहुंचाने का फैसला किया। मायावती के लिए ये उबले आलू के गले में अंटक जाने जैसी स्थिति थी। न उगलते बन रहा था, न निगलते बन रहा था। मायावती की प्रतिक्रिया थी- कोविंद जी से बेहतर दलित उम्मीदवार विपक्ष उतारेगा, तो हम उसको समर्थन देंगे। विपक्ष ने मीरा कुमार को राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाकर मायावती को दलित धर्मसंकट से उबार लिया। लेकिन, अन्दर ही अन्दर मायावती को डर लगने लगा था। रामनाथ कोविंद उत्तर प्रदेश के कानपुर से होने और सक्रिय राजनीति में होते भी मायावती को उतना नहीं डरा रहे थे, जितना वो रायसीना पहाड़ी पर बैठने के बाद डराते दिख रहे थे। देश की सबसे बड़ी दलित नेता की पदवी छिनने का डर मायावती को बुरी तरह से परेशान कर रहा था।
इस डर का अन्दाजा राष्ट्रपति चुनाव के दिन भी मिला। 17 जुलाई को मायावती ने कहा- चुनाव कोई भी जीते, राष्ट्रपति एक दलित ही होगा। ये देन किसकी है? ये देन परमपूज्यनीय बाबा साहब अम्बेडकर की है, मान्यवर कांशीराम जी की है। ये देन बहुजन समाज पार्टी की है। मायावती ने राष्ट्रपति चुनाव वाले दिन कहाकि ये सब बहुजन आन्दोलन, पार्टी की जीत है। लेकिन, देश की सबसे बड़ी दलित नेता को देश के सबसे ऊंचे पद पर एक दलित के, वो भी भारतीय जनता पार्टी की राजनीति करते शीर्ष तक पहुंचे, रायसीना पहाड़ी पर विराजने से अपना कद छोटा होने का डर बढ़ने लगा था। ये डर इतना बढ़ा कि दलित के राष्ट्रपति बनने का सारा श्रेय बहुजन आन्दोलन को देने वाली मायावती को राज्यसभा में अहसास हुआ कि दलित की बात सुनी नहीं जा रही है। और अगर अपने समाज की बात ही नहीं रख पा रही हैं, तो उन्हें राज्यसभा में रहने का कोई हक नहीं है। 18 जुलाई 2017 बीएसपी प्रमुख मायावती राज्यसभा से इस्तीफा देने के तुरन्त बाद पत्रकारों से कहा- दलितों के हितों में सहारनपुर जिले में शब्बीरपुर गांव में जो दलित उत्पीड़न हुआ है। और आप लोगों को मालूम है कि मैं दलित समाज से ताल्लुक रखती हूं। जब मैं अपने समाज की बात उधर नहीं रख सकती हूं। सत्ता पक्ष के द्वारा मुझे बोलने का मौका नहीं दिया जा रहा। मंत्री लोग खड़े हो गए। सभी वहां के जो सदस्य है, सत्ता पक्ष के सब खड़े हो गए। मैं समझती हूं कि ये ठीक नहीं हुआ है। तो जब मुझे अपनी बात रखने का सत्तापक्ष मौका नहीं दे रहा है। मुझे बोलने नहीं दिया जा रहा है, तो मैंने आज राज्यसभा से इस्तीफा देने का फैसला किया है। हाउस में भी कहा और अभी मैं माननीय सभापति जी इस्तीफा देकर आ रही हूं। दलितों की बात राज्यसभा में न कह पाने की टीस के साथ मायावती ने उस राज्यसभा से इस्तीफा दे दिया है, जिस पर अप्रैल 2018 के बाद उनका रह पाना वैसे भी सम्भव नहीं दिखता है। क्योंकि, अब उन्हें राज्यसभा में पहुंचाने के लिए जरूरी विधायक ही उनके पास नहीं हैं। हालांकि, मायावती को ये बात बहुत देर से समझ आई कि वो दलितों की बात ही नहीं रख पा रही हैं। लेकिन, अच्छी बात ये है कि विपक्ष को इससे एक जुड़ाव बिन्दु मिल गया है। नरेंद्र मोदी-अमित शाह की जोड़ी की बढ़ती शक्ति से परेशान विपक्ष एकजुट हो सकता है। यही वजह है कि राष्ट्रीय जनता दल के कोटे से लालू प्रसाद यादव उन्हें बिहार से राज्यसभा में भेजने की बात कह रहे हैं। नरेंद्र मोदी के एकछत्र राज के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर एक नई गोलबन्दी की बुनियाद मायावती बनती दिख रही हैं। हां, विपक्ष का ये बड़ा संकट जरूर हो सकता है कि जरा सा सन्जीवनी मिलते ही मायावती किस तरह से व्यवहार करेंगी। क्योंकि, कांशीराम की विरासत को आगे बढ़ाने वाली मायावती का भी इतिहास किसी के साथ मिलकर 4 कदम चलने का नहीं रहा है। लेकिन, अभी के हालात में मायावती के पास लालू प्रसाद यादव के महागठबन्धन फॉर्मूले को स्वीकारने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। लेकिन, राजनीतिक मजबूरी में बन रहे इस विपक्षी गठजोड़ की सफलता इसी पर निर्भर करेगी कि पार्टियों और नेताओं के मिलन से आगे ये जनता से मिलने का कोई कार्यक्रम ये बनाएंगे या सिर्फ बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के दलित के घर जाने के कार्यक्रम में मीनमेख निकालकर ही अपना काम चलाएंगे। 
(ये लेख QuintHindi पर छपा है)


This post first appeared on बतंगड़ BATANGAD, please read the originial post: here

Share the post

मायावती को इस्तीफा देने की याद क्यों आई ?

×

Subscribe to बतंगड़ Batangad

Get updates delivered right to your inbox!

Thank you for your subscription

×