हर तरफ से बस एक ही शोर है। संविधान है खतरे में वन्समोर है। अराजकता की धुंध दिख रही है कहीं! या सिर्फ़ हंगामा कुछ और है। सेंकने को अपनी राजनीतिक रोटियां, या जनता के दर्द का शोर है। है अगर बेचैनी तो खोल लो आँखे अपने ही हैं, नहीं कोई और है। ज्यादा दिन नहीं ढोते बोझ आजकल, क्योंकि नई सदी में बदलाव का दौर है। अगर धुंआ है तो ज़रूर कहीं आग होगी, पता करने की नीयत शायद कमज़ोर है। कमलेश'पहचानों धरातल की हक़ीक़त
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