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Sukh ka Dukh by Bhavani Prasad Mishra

Many of us have experienced it. As the frugal living gives rise to affluence derived from successful careers, as gadgets fill the house, cars line the driveway, as we make “progress” in our lives, there is a definite cost we pay for that. Some pristine happiness and capability to derive pleasure in small things in life seem to get lost on way. Bhawani Prasad Mishra Ji has drawn our attention to this danger and cautions us in this beautiful poem.

सुख का दुख - भवानी प्रसाद मिश्र


जिन्दगी में कोई बड़ा सुख नहीं है,
इस बात का मुझे बड़ा दु:ख नहीं है, 
क्योंकि मैं छोटा आदमी हूँ, 
बड़े सुख आ जाएँ घर में
तो कोई ऎसा कमरा नहीं है जिसमें उसे टिका दूँ।

यहाँ एक बात 
इससे भी बड़ी दर्दनाक बात यह है कि,
बड़े सुखों को देखकर 
मेरे बच्चे सहम जाते हैं,
मैंने बड़ी कोशिश की है उन्हें 
सिखा दूँ कि सुख कोई डरने की चीज नहीं है।

मगर नहीं
मैंने देखा है कि जब कभी 
कोई बड़ा सुख उन्हें मिल गया है रास्ते में
बाजार में या किसी के घर,
तो उनकी आँखों में खुशी की झलक तो आई है,
किंतु साथ साथ डर भी आ गया है।

बल्कि कहना चाहिये 
खुशी झलकी है, डर छा गया है, 
उनका उठना उनका बैठना
कुछ भी स्वाभाविक नहीं रह पाता,
और मुझे इतना दु:ख होता है देख कर
कि मैं उनसे कुछ कह नहीं पाता।

मैं उनसे कहना चाहता हूँ कि बेटा यह सुख है,
इससे डरो मत बल्कि बेफिक्री से बढ़ कर इसे छू लो।
इस झूले के पेंग निराले हैं 
बेशक इस पर झूलो, 
मगर मेरे बच्चे आगे नहीं बढ़ते 
खड़े खड़े ताकते हैं, 
अगर कुछ सोचकर मैं उनको उसकी तरफ ढकेलता हूँ। 

तो चीख मार कर भागते हैं, 
बड़े बड़े सुखों की इच्छा 
इसीलिये मैंने जाने कब से छोड़ दी है,
कभी एक गगरी उन्हें जमा करने के लिये लाया था
अब मैंने वह फोड़ दी है।



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