जनजातियों की सांस्कृतिक रूप से अपनी अलग एक पहचान है। प्राचीन संस्कृति एवं सभ्यता से प्राप्त अवशेषों से भी प्रकृति के प्रति आस्था और विश्वास के रूप में प्रकृति की उपासना के उदाहरण मिलते हैं। सूर्य, चन्द्रमा, पेड़-पौधे, जल, वायु, अग्नि,की पूजा का अस्तित्व मिश्र, मेसोपोटामिया, मोहन-जोदाड़ो, हडप्पा आदि की संस्कृति में समान रूप से मिलता है। जिसका स्पष्ट संकेत है कि प्राचीन मानव की आराध्य संस्कृति का मूल प्रकृति पूजा रहा है। वर्तमान में भी प्रत्येक संस्कृति में प्रकृति पूजा का अस्तित्व है।[14] इसके अतिरिक्त हम यह देखते हैं कि आदिवासीयों का जीवन एक सम्पूर्ण इकाई के रूप में विकसित है आदिवासी जीवन और कला की आपूर्ति अपने द्वारा उत्पादित उन समस्त सामग्रियों से करते हैं जो उन्हें प्रकृति ने सहज रूप से प्रदान की है। भौगोलिक रूप से जो उन्हें प्राप्त हो गया उसी में वे अपने जीवन का चरम तलाशते हैं, उसी में ही उनके सामाजिक, आर्थिक, आध्यात्मिक अवधारणाओं की पूर्ति होती है। जनजातियों का आध्यात्मिक जीवन कठिन मिथकों से जुड़ा होता है जो प्रथम दृष्टया देखने में तो सहज और अनगढ़ दिखता है किन्तु उसकी गहराई में जो अर्थ और आशय होते हैं वो जनजातीय समूहों के जीवन संचालन में समर्थ और मर्यादित होती है। आदिवासी जीवन प्रकृति पर आश्रित होता है इसलिये प्रकृति से उसके प्रगाढ़ रिश्ता होते हैं। आदिवासी जीवन संस्कृति में जन्म से लेकर मृत्यु तक के संस्कारों में किसी न किसी रूप में प्रकृति को अहमियत दी जाती है।-। प्रागैतिहासिक काल से लेकर आज तक उपलब्ध पुरातात्विक अवशेषों के आधार पर अनेक बुद्धिजीवियों, दार्शनिकों ने कला विकास में आस्था, अनुष्ठान एवं अभिव्यक्ति को प्रमुख बिन्दु के रूप में व्याख्या दी है। लोक कला का मूल मंगल पर आधारित है यह सर्वमान्य सत्य है। मंगल भावना से ही अनेक शिल्पों, चित्रों इत्यादि का निर्माण लोक कला संसार में होता आया है। जिसमें अभिप्रायों, प्रतीकों का भी विशेष महत्व है।
गुड़िया कला के निर्माण समय के संदर्भ में अनेक भ्रांतियां है। इसके प्रारंभ संबंधी भ्रांतियों में एक यह भी है कि सर्वप्रथम आदिवासियों ने अपने तात्कालिक राजा को उपहार स्वरूप शतरंज भेट किया था जिसमें शतरंज के मोहरों को तात्कालिक परिवेश में उपलब्ध संसाधनों द्वारा आकार दिया जा कर अनुपम कलाकृति का रूप दिया गया यथा शतरंज के मोहरों जैसे राजा, वजीर, घोड़ा, हाथी, प्यादे इत्यादि को कपड़े की बातियां लपेट लपेट कर बनाया गया था। और तभी से इसे रोजगार के रूप में अपनाये जाने पर बल दिया जाकर गुड़िया निर्माण की प्रक्रिया प्रारंभ हो गई। और आदिवासी स्त्री पुरूषों को इसका प्रशिक्षण दिये जाने की शुरूवात की गई। आज गुड़िया का जो स्वरूप है वह गिदवानी जी का प्रयोग है प्रारंभिक स्वरूप में वेशभूषा तो वही थी जो आदिवासियों का पारंपरिक वेशभूषा चला आ रहा है। केवल तकनीक और आकार में परिवर्तन हुआ है। जैसा कि हम सभी इस बात से परिचित है कि न केवल ग्रामीणो में बल्कि आप हम सभी का बचपना नानी दादी द्वारा निर्मित कपड़े की गुड़िया से खेल कर गुजरा है। कपड़े की गुड़िया तब से प्रचलन में है लेकिन झाबुआ में इसका व्यवसायिक प्रयोग हुआ। जब आदिवासी हस्तशिल्प से संबंधित विशेषज्ञों से इस बारे में चर्चा की गई तो निष्कर्ष यही निकला कि प्रारंभ में गुड़िया अनुपयोगी कपड़े की बातियों को लपेटकर ही गुड़िया निर्माण किया जाता था लेकिन व्यावसायिक स्वरूपों के कारण ही अब स्टफ़ड डाल के रूप में सामने आया है। इस प्रविधि से आसानी से गुड़ियों की कई प्रतियां आसानी से कम परिश्रम, कम समय में तैयार की जा सकती। एवं कम प्रशिक्षित शिल्पियों द्वारा भी यह कार्य आसानी से करवाया जा कर शिल्प निर्माण किया जा सके।
गुड़ियाकला के वरिष्ठ शिल्पी श्री उद्धव गिदवानी जी के अनुसार भी आदिवासियों को प्रशिक्षण प्रदान करने हेतु 1952-53 में शासन ने पहल की तब से आज तक यह परम्परा निरंतर चली आ रही है। जिसका उद्देश्य आदिवासी क्षेत्रों में रोजगार के अवसरों को सृजित करना, रोजगार प्रदान करना, व्यवहारिक शिक्षा को प्राथमिकता देना, एवं आदिवासी सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक पहलुओं को शामिल करना इत्यादि रहा है।
गुड़ियाकला के प्रकार
गुड़िया निर्माण प्रविधि के अनुसार गुड़िया दो प्रकार की बनाई जाती है। रेग डॉल एवं स्टॅफ्ड डॉल। झाबुआ क्षेत्र में मुख्यत: स्टफ्ड डॉल का निर्माण किया जाता है। जिसमें आदिवासी भील-भिलाला युगल, आदिवासी ड्रम बजाता युवक, जंगल से लकड़ी अथवा टोकरी में सामान लाती आदिवासी युवती इत्यादि प्रमुखता से बनाया जाता है। प्रारंभ में गुड़िया लगभग आठ से बारह इंच तक की बनाई जाती थी लेकिन वर्तमान समय में दस से बारह फुट तक की गुड़िया बनाई जाने लगी है। अब गुड़िया निर्माण केवल अलंकरणात्मक नहीं रह गई बल्कि चिकित्सा शिक्षा के क्षेत्र में भी अपनी पहचान बना रहा है। जहां कपड़े से निर्मित जीवन्त मॉडलों का निर्माण किया जा कर शिक्षा में रचनात्मक प्रयोग किये जा रहें है। इसके अतिरिक्त विवरणात्मक गुड़िया समूह का निर्माण भी किया जा रहा है जिसमें आदिवासी जीवन की सहज घटनाओं जैसे मुर्गा लड़ाई, सामाजिक दिनचर्या, नृत्य, महापुरूषों की जीवन में घटित घटनाओं, सैन्य प्रशिक्षण, इत्यादि प्रमुख हैं।
गुड़ियाकला निर्माण प्रविधियां
गुड़िया शिल्प प्रकृति प्रदत्त हाथों की वह प्रतिभा है जिसमें शिल्पी अपनी कल्पनाओं को हाथों द्वारा उकेरकर प्रस्तुत करता है। प्रकृति से जुड़ा यह शिल्पी अपने उपलब्ध सीमित साधनों की हस्त कृतियां बड़ी कुशलता से निर्मित करता है। इन आदिवासी गुड़िया कला में जिले में ही उपलब्ध प्राकृतिक एवं अनुपयोगी वस्तुओं का आकर्षक प्रयोग होता है।
झाबुआ क्षेत्र के अधिकांश गुड़िया शिल्पी स्टफ्ड डाल का निर्माण करते हैं इस तरह के निर्माण में निश्चित आकारों में कटे कपड़ों को सिलकर उसमें रूई की सहायता से स्टफिंग की जाती है अंत: वे स्टफ्ड डाल कहलाती हैं। अब कुछ शिल्पी रेग डाल का निर्माण कर रहें हैं। जिसमे पहले कल्पना की गई गुड़िया के अनुरूप तार का ढांचा बना कर उसे बेकार कागज और कपड़े की पतली पट्टियों की सहायता से लपेट कर शिल्प बनाया जाता है। जिसकी निर्माण प्रविधि अलग से दी जायेगी। यह आदिवासी गुड़िया शिल्प निर्माण कई चरणों में पूर्ण होता है।
सर्वप्रथम शरीर के प्रत्येक अंगों के लिये कपड़े पर निर्धारित फर्मे से आकार बनाकर काटा जाता है। फिर उसे सिलाई कर आकार दिया जाता है तत्पश्चात उसमें रूई भरकर गुड़िया की मोटाई और गोलाई बनाई जाती है
(धड में रूई भरते हुए) (पेपर मेशी का चेहरा ) (चेहरे का पिछला भाग)
इस तरह अलग अलग हाथ, पैर, शरीर का मध्य भाग, हाथ के पंजे, पैर के पंजे बनाया जाता है। चित्र क्रमांक -- । इन्हें मजबूती प्रदान करने के लिये इनके मध्य लोहे का तार लगाया जाता है चित्र क्रमांक --। अलग अलग अंगों के बन जाने पर इन्हें आपस में सिल कर जोड़ा जाता है। गुड़िया शिल्प का सिर बनाने के लिये सर्वप्रथम मोल्ड (सांचे या डाई) द्वारा प्लास्टर आफ पेरिस, पेपर मैशी अथवा मिट्टी, द्वारा चेहरा बनाया जाता है। मोल्ड बन जाने पर उसे हवा में छांव में ही सुखा दिया जाता है, मोल्ड के सूख जाने के पश्चात उस पर कपड़ा तनाव देकर चिपकाया जाता है चित्र क्रमांक --। इसे पूर्व में बनाये शिल्प में सिलकर जोड़ दिया जाता है और इस तरह शिल्प के ढांचा का निर्माण पूर्ण होता है । अब प्रारंभ होता है उस शिल्प के अलंकरण का कार्य। जिसमें सर्वप्रथम उस शिल्प को आदिवासीयों की पारम्परिक अथवा देश के अन्य स्थानों की पारम्परिक वेशभूषा द्वारा अलंकृत किया जाता है। अंत में परम्परानुसार आभूषणों का चयन कर उन्हें सजाने संवारने का कार्य किया जाता है। और फिर शुरू होता अंतिम किन्तु महत्वपूर्ण भाव-भंगिमाओं के निर्माण का जिसे कुशल शिल्पी ब्रश व रंगों के माध्यम से आंखे, भौहें, बिन्दी, गोदना, ओठ इत्यादि को अंकित कर शिल्प को आकर्षक, और जीवंत बनाता है। शिल्प निर्माण पूर्ण हो जाने के बाद उसे स्टैण्ड पर खड़ा करने के लिये मध्य में लगाये गये मोटे तार को लकड़ी के गुटके पर फिट कर दिया जाता है।
(शिल्प को स्टैण्ड पर खड़ा करने के लिये लगाये गये मोटे तार) (अलग अलग हिस्सों को जोड़ते हुए)
कभी कभी दीवार पर टांगने के लिये बनाये जाने वाले शिल्पों को फ्रेम में आदिवासी शस्त्रो तीर भाला या अन्य औजारों के साथ संयोजित कर पूर्ण किया जाता है। सामान्यत: गुड़िया का निर्माण 8 से 10 इंच तक किया जाता है लेकिन आधुनिक व्यावसायिक संदर्भो में मांग के अनुरूप 2 से 3 फुट और विशेष मांग पर 10 से 12फुट तक की आकृतियां बनाई जा रही हैं। चित्र क्रमांक – एवं --। सम्पूर्ण झाबुआ क्षेत्र के गुड़िया शिल्पीयों द्वारा निर्मित आदिवासी भील भिलाला की आकृतियों में अमूमन एक सी भाव भंगिमा का अंकन मिलता है लेकिन झाबुआ के शिल्पी श्री उद्धव गिदवानी उनके बेटे सुभाष गिदवानी द्वारा अंकित भावों का अंकन अधिक परिष्कृत है। ये न केवल आदिवासी बल्कि उनके दैनिक क्रिया कलापों से संबंधित भावों का भी अंकन उत्कृष्ट है जैसे चक्की चलाते हुए, बच्ची का बाल बनाते हुए, धान साफ करते हुए इत्यादि।
रेग डाल निर्माण प्रविधि- निर्माण की प्रथम शृंखला में तार द्वारा प्रारंभिक ढांचा, बनाई जाने वाली गुड़िया के अनुरूप निर्मित किया जाता है इसके पश्चात बेकार कागज की कतरनों, कपड़ों के टुकडों से तार के स्ट्रक्चर पर लपेट कर इच्छित मॉडल बनाया जाता है। जिसे पतले सूती धागे द्वारा लपेट कर मजबूत किया जाता है। निर्मित मॉडल पर महीन लचीले कपड़े के पतले पतले पट्टियों से तनाव देकर सम्पूर्ण मॉडल को लपेटा जाता है। रेग डाल में शिल्पों की पत्येक उँगली को कपड़े के महीन पट्टियों को अत्यंत बारीकी से लपेट कर बनाया जाता है। रेग डाल में भी गुड़ियों के सिर के लिये स्टफ्ड डाल की तरह साचे में ढली आकृतियों का ही प्रयोग किया जाता है। इस तरह निर्मित शिल्पों में स्टफ्ड डाल की तुलना में लयात्मकता अधिक होती है।
1- तार के प्रारंभिक ढांचा निर्माण हेतु सर्वप्रथम 14 गेज तार के दो टुकड़े 16--16 इंच लम्बाई का ले।
2- लिये गये दोनों तारो में 6 इंच पर निशान लगाये और चित्र क्रमांक में दिखाए अनुसार क्रास कर रखें
3- अब दोंनों टुकड़ों को निशान लगे स्थान से प्लायर के माध्यम से लपेटना शुरू करें और लगभग तीन इंच तक लपेटे।
4- अब 6 इंच वाले तार के छोर पर 4.25 इंच हाथ के लिये छोड़े और शेष भाग हथेली के लिये प्लायर
द्वारा लपेट कर रखे।
5-निचले तार में पैरो के लिये 5.75 इंच छोडकर शेष को पैरो के पंजे के लिये लपेट कर रखें
6-अब 16 गेज वाले तार का एक टुकड़ा 5 इंच लम्बा लें।
7- अब इस तार को बीच से मोड़ कर अब तक तैयार सांचे के दोनों हाथो के मध्य सिर के लिये मोडकर रखे। इस तरह 10 से 12 इंच लम्बा सांचा तैयार हो जायेगा।
अब शुरू होता है इस तैयार सांचे पर कागज की कतरन बाँध कर इच्छित गुड़िया का आकार देना।
8-सबसे पहले गुड़िया को भाव भंगिमा के अनुरूप तार को मोड़ना जैसे यदि नृत्य मुद्रा में बनाना है तो हाथो के उसी के अनुरूप मोड़ना।
9-अब तैयार तार के सांचे में कागज की कतरनों को सूती धागों की सहायता से बाँध कर गुड़िया के शरीर का उचित आकार देवें। इस तैयार मॉडल का कंधा यदि स्त्री का तो 2;75 इंच, छाती की गोलाई 4;5 इंच और पुरूष के लिये छाती 4;75 इंच होनी चाहिए।
10-कमर 2 इंच चौड़ी और गोलाई 4;5 स्त्री के लिये और पुरूष के लिये 5 इंच गोलाई रखें।
11- नितंब की गोलाई पुरूष के लिये 6 इंच और स्त्री के लिये 6;5 इंच रखे।
(तार पर कतरन लपेटे हुए एवं तार पर शरीर के मध्य भाग पर पुरानी सूती कपड़ा लपेटे हुए)
12- हाथ के पंजे बनाना:- हाथ की उंगलियों के लिये 24 गेज तार का 16 इंच लम्बा एक तार का टुकड़ा लें अब इस तार के टुकड़े को बीचों बीच मोडें और प्लायर की मदद से एक इंच तक ऐठन लगावे यह मध्यमा उँगली बनेगी
13- अब इस उँगली के दोनो और दो उँगली के लिये एक एक इंच लम्बा ऐठन लगाकर उँगली और अंगूठे तैयार करे
14- अब इसी तरह पैरों के पंजे बनाने के लिये 24 गेज तार का 17 इंच लम्बा तार ले और तार के एक किनारे से 4 इंच लम्बा से मोड़े और 1;1 इंच लम्बी उँगली प्लायर की मदद से ऐठन दे कर बनाये और उसके साथ ही हाथ की उंगलियों की तरह 1;1 इंच लम्बी अन्य उंगलियां तैयार करें । इसी तरह हाथ और पैर के दूसरे सांचे भी तैयार कर लें।
15- तैयार हाथ और पैर के पंजों में अब कपड़ा लगाने के लिये अस्तर व जार्जेट का कपड़ा लगभग 1;4 मीटर ले, प्रत्येक उँगली के लिये कपड़े चौड़ाई आध
गुड़िया कला के निर्माण समय के संदर्भ में अनेक भ्रांतियां है। इसके प्रारंभ संबंधी भ्रांतियों में एक यह भी है कि सर्वप्रथम आदिवासियों ने अपने तात्कालिक राजा को उपहार स्वरूप शतरंज भेट किया था जिसमें शतरंज के मोहरों को तात्कालिक परिवेश में उपलब्ध संसाधनों द्वारा आकार दिया जा कर अनुपम कलाकृति का रूप दिया गया यथा शतरंज के मोहरों जैसे राजा, वजीर, घोड़ा, हाथी, प्यादे इत्यादि को कपड़े की बातियां लपेट लपेट कर बनाया गया था। और तभी से इसे रोजगार के रूप में अपनाये जाने पर बल दिया जाकर गुड़िया निर्माण की प्रक्रिया प्रारंभ हो गई। और आदिवासी स्त्री पुरूषों को इसका प्रशिक्षण दिये जाने की शुरूवात की गई। आज गुड़िया का जो स्वरूप है वह गिदवानी जी का प्रयोग है प्रारंभिक स्वरूप में वेशभूषा तो वही थी जो आदिवासियों का पारंपरिक वेशभूषा चला आ रहा है। केवल तकनीक और आकार में परिवर्तन हुआ है। जैसा कि हम सभी इस बात से परिचित है कि न केवल ग्रामीणो में बल्कि आप हम सभी का बचपना नानी दादी द्वारा निर्मित कपड़े की गुड़िया से खेल कर गुजरा है। कपड़े की गुड़िया तब से प्रचलन में है लेकिन झाबुआ में इसका व्यवसायिक प्रयोग हुआ। जब आदिवासी हस्तशिल्प से संबंधित विशेषज्ञों से इस बारे में चर्चा की गई तो निष्कर्ष यही निकला कि प्रारंभ में गुड़िया अनुपयोगी कपड़े की बातियों को लपेटकर ही गुड़िया निर्माण किया जाता था लेकिन व्यावसायिक स्वरूपों के कारण ही अब स्टफ़ड डाल के रूप में सामने आया है। इस प्रविधि से आसानी से गुड़ियों की कई प्रतियां आसानी से कम परिश्रम, कम समय में तैयार की जा सकती। एवं कम प्रशिक्षित शिल्पियों द्वारा भी यह कार्य आसानी से करवाया जा कर शिल्प निर्माण किया जा सके।
गुड़ियाकला के वरिष्ठ शिल्पी श्री उद्धव गिदवानी जी के अनुसार भी आदिवासियों को प्रशिक्षण प्रदान करने हेतु 1952-53 में शासन ने पहल की तब से आज तक यह परम्परा निरंतर चली आ रही है। जिसका उद्देश्य आदिवासी क्षेत्रों में रोजगार के अवसरों को सृजित करना, रोजगार प्रदान करना, व्यवहारिक शिक्षा को प्राथमिकता देना, एवं आदिवासी सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक पहलुओं को शामिल करना इत्यादि रहा है।
गुड़ियाकला के प्रकार
(रेग डाल) |
(स्टफ्ड डाल) |
गुड़िया निर्माण प्रविधि के अनुसार गुड़िया दो प्रकार की बनाई जाती है। रेग डॉल एवं स्टॅफ्ड डॉल। झाबुआ क्षेत्र में मुख्यत: स्टफ्ड डॉल का निर्माण किया जाता है। जिसमें आदिवासी भील-भिलाला युगल, आदिवासी ड्रम बजाता युवक, जंगल से लकड़ी अथवा टोकरी में सामान लाती आदिवासी युवती इत्यादि प्रमुखता से बनाया जाता है। प्रारंभ में गुड़िया लगभग आठ से बारह इंच तक की बनाई जाती थी लेकिन वर्तमान समय में दस से बारह फुट तक की गुड़िया बनाई जाने लगी है। अब गुड़िया निर्माण केवल अलंकरणात्मक नहीं रह गई बल्कि चिकित्सा शिक्षा के क्षेत्र में भी अपनी पहचान बना रहा है। जहां कपड़े से निर्मित जीवन्त मॉडलों का निर्माण किया जा कर शिक्षा में रचनात्मक प्रयोग किये जा रहें है। इसके अतिरिक्त विवरणात्मक गुड़िया समूह का निर्माण भी किया जा रहा है जिसमें आदिवासी जीवन की सहज घटनाओं जैसे मुर्गा लड़ाई, सामाजिक दिनचर्या, नृत्य, महापुरूषों की जीवन में घटित घटनाओं, सैन्य प्रशिक्षण, इत्यादि प्रमुख हैं।
गुड़ियाकला निर्माण प्रविधियां
गुड़िया शिल्प प्रकृति प्रदत्त हाथों की वह प्रतिभा है जिसमें शिल्पी अपनी कल्पनाओं को हाथों द्वारा उकेरकर प्रस्तुत करता है। प्रकृति से जुड़ा यह शिल्पी अपने उपलब्ध सीमित साधनों की हस्त कृतियां बड़ी कुशलता से निर्मित करता है। इन आदिवासी गुड़िया कला में जिले में ही उपलब्ध प्राकृतिक एवं अनुपयोगी वस्तुओं का आकर्षक प्रयोग होता है।
झाबुआ क्षेत्र के अधिकांश गुड़िया शिल्पी स्टफ्ड डाल का निर्माण करते हैं इस तरह के निर्माण में निश्चित आकारों में कटे कपड़ों को सिलकर उसमें रूई की सहायता से स्टफिंग की जाती है अंत: वे स्टफ्ड डाल कहलाती हैं। अब कुछ शिल्पी रेग डाल का निर्माण कर रहें हैं। जिसमे पहले कल्पना की गई गुड़िया के अनुरूप तार का ढांचा बना कर उसे बेकार कागज और कपड़े की पतली पट्टियों की सहायता से लपेट कर शिल्प बनाया जाता है। जिसकी निर्माण प्रविधि अलग से दी जायेगी। यह आदिवासी गुड़िया शिल्प निर्माण कई चरणों में पूर्ण होता है।
सर्वप्रथम शरीर के प्रत्येक अंगों के लिये कपड़े पर निर्धारित फर्मे से आकार बनाकर काटा जाता है। फिर उसे सिलाई कर आकार दिया जाता है तत्पश्चात उसमें रूई भरकर गुड़िया की मोटाई और गोलाई बनाई जाती है
(धड में रूई भरते हुए) (पेपर मेशी का चेहरा ) (चेहरे का पिछला भाग)
इस तरह अलग अलग हाथ, पैर, शरीर का मध्य भाग, हाथ के पंजे, पैर के पंजे बनाया जाता है। चित्र क्रमांक -- । इन्हें मजबूती प्रदान करने के लिये इनके मध्य लोहे का तार लगाया जाता है चित्र क्रमांक --। अलग अलग अंगों के बन जाने पर इन्हें आपस में सिल कर जोड़ा जाता है। गुड़िया शिल्प का सिर बनाने के लिये सर्वप्रथम मोल्ड (सांचे या डाई) द्वारा प्लास्टर आफ पेरिस, पेपर मैशी अथवा मिट्टी, द्वारा चेहरा बनाया जाता है। मोल्ड बन जाने पर उसे हवा में छांव में ही सुखा दिया जाता है, मोल्ड के सूख जाने के पश्चात उस पर कपड़ा तनाव देकर चिपकाया जाता है चित्र क्रमांक --। इसे पूर्व में बनाये शिल्प में सिलकर जोड़ दिया जाता है और इस तरह शिल्प के ढांचा का निर्माण पूर्ण होता है । अब प्रारंभ होता है उस शिल्प के अलंकरण का कार्य। जिसमें सर्वप्रथम उस शिल्प को आदिवासीयों की पारम्परिक अथवा देश के अन्य स्थानों की पारम्परिक वेशभूषा द्वारा अलंकृत किया जाता है। अंत में परम्परानुसार आभूषणों का चयन कर उन्हें सजाने संवारने का कार्य किया जाता है। और फिर शुरू होता अंतिम किन्तु महत्वपूर्ण भाव-भंगिमाओं के निर्माण का जिसे कुशल शिल्पी ब्रश व रंगों के माध्यम से आंखे, भौहें, बिन्दी, गोदना, ओठ इत्यादि को अंकित कर शिल्प को आकर्षक, और जीवंत बनाता है। शिल्प निर्माण पूर्ण हो जाने के बाद उसे स्टैण्ड पर खड़ा करने के लिये मध्य में लगाये गये मोटे तार को लकड़ी के गुटके पर फिट कर दिया जाता है।
(शिल्प को स्टैण्ड पर खड़ा करने के लिये लगाये गये मोटे तार) (अलग अलग हिस्सों को जोड़ते हुए)
कभी कभी दीवार पर टांगने के लिये बनाये जाने वाले शिल्पों को फ्रेम में आदिवासी शस्त्रो तीर भाला या अन्य औजारों के साथ संयोजित कर पूर्ण किया जाता है। सामान्यत: गुड़िया का निर्माण 8 से 10 इंच तक किया जाता है लेकिन आधुनिक व्यावसायिक संदर्भो में मांग के अनुरूप 2 से 3 फुट और विशेष मांग पर 10 से 12फुट तक की आकृतियां बनाई जा रही हैं। चित्र क्रमांक – एवं --। सम्पूर्ण झाबुआ क्षेत्र के गुड़िया शिल्पीयों द्वारा निर्मित आदिवासी भील भिलाला की आकृतियों में अमूमन एक सी भाव भंगिमा का अंकन मिलता है लेकिन झाबुआ के शिल्पी श्री उद्धव गिदवानी उनके बेटे सुभाष गिदवानी द्वारा अंकित भावों का अंकन अधिक परिष्कृत है। ये न केवल आदिवासी बल्कि उनके दैनिक क्रिया कलापों से संबंधित भावों का भी अंकन उत्कृष्ट है जैसे चक्की चलाते हुए, बच्ची का बाल बनाते हुए, धान साफ करते हुए इत्यादि।
रेग डाल निर्माण प्रविधि- निर्माण की प्रथम शृंखला में तार द्वारा प्रारंभिक ढांचा, बनाई जाने वाली गुड़िया के अनुरूप निर्मित किया जाता है इसके पश्चात बेकार कागज की कतरनों, कपड़ों के टुकडों से तार के स्ट्रक्चर पर लपेट कर इच्छित मॉडल बनाया जाता है। जिसे पतले सूती धागे द्वारा लपेट कर मजबूत किया जाता है। निर्मित मॉडल पर महीन लचीले कपड़े के पतले पतले पट्टियों से तनाव देकर सम्पूर्ण मॉडल को लपेटा जाता है। रेग डाल में शिल्पों की पत्येक उँगली को कपड़े के महीन पट्टियों को अत्यंत बारीकी से लपेट कर बनाया जाता है। रेग डाल में भी गुड़ियों के सिर के लिये स्टफ्ड डाल की तरह साचे में ढली आकृतियों का ही प्रयोग किया जाता है। इस तरह निर्मित शिल्पों में स्टफ्ड डाल की तुलना में लयात्मकता अधिक होती है।
1- तार के प्रारंभिक ढांचा निर्माण हेतु सर्वप्रथम 14 गेज तार के दो टुकड़े 16--16 इंच लम्बाई का ले।
2- लिये गये दोनों तारो में 6 इंच पर निशान लगाये और चित्र क्रमांक में दिखाए अनुसार क्रास कर रखें
3- अब दोंनों टुकड़ों को निशान लगे स्थान से प्लायर के माध्यम से लपेटना शुरू करें और लगभग तीन इंच तक लपेटे।
4- अब 6 इंच वाले तार के छोर पर 4.25 इंच हाथ के लिये छोड़े और शेष भाग हथेली के लिये प्लायर
द्वारा लपेट कर रखे।
5-निचले तार में पैरो के लिये 5.75 इंच छोडकर शेष को पैरो के पंजे के लिये लपेट कर रखें
6-अब 16 गेज वाले तार का एक टुकड़ा 5 इंच लम्बा लें।
7- अब इस तार को बीच से मोड़ कर अब तक तैयार सांचे के दोनों हाथो के मध्य सिर के लिये मोडकर रखे। इस तरह 10 से 12 इंच लम्बा सांचा तैयार हो जायेगा।
अब शुरू होता है इस तैयार सांचे पर कागज की कतरन बाँध कर इच्छित गुड़िया का आकार देना।
8-सबसे पहले गुड़िया को भाव भंगिमा के अनुरूप तार को मोड़ना जैसे यदि नृत्य मुद्रा में बनाना है तो हाथो के उसी के अनुरूप मोड़ना।
9-अब तैयार तार के सांचे में कागज की कतरनों को सूती धागों की सहायता से बाँध कर गुड़िया के शरीर का उचित आकार देवें। इस तैयार मॉडल का कंधा यदि स्त्री का तो 2;75 इंच, छाती की गोलाई 4;5 इंच और पुरूष के लिये छाती 4;75 इंच होनी चाहिए।
10-कमर 2 इंच चौड़ी और गोलाई 4;5 स्त्री के लिये और पुरूष के लिये 5 इंच गोलाई रखें।
11- नितंब की गोलाई पुरूष के लिये 6 इंच और स्त्री के लिये 6;5 इंच रखे।
(तार पर कतरन लपेटे हुए एवं तार पर शरीर के मध्य भाग पर पुरानी सूती कपड़ा लपेटे हुए)
12- हाथ के पंजे बनाना:- हाथ की उंगलियों के लिये 24 गेज तार का 16 इंच लम्बा एक तार का टुकड़ा लें अब इस तार के टुकड़े को बीचों बीच मोडें और प्लायर की मदद से एक इंच तक ऐठन लगावे यह मध्यमा उँगली बनेगी
13- अब इस उँगली के दोनो और दो उँगली के लिये एक एक इंच लम्बा ऐठन लगाकर उँगली और अंगूठे तैयार करे
14- अब इसी तरह पैरों के पंजे बनाने के लिये 24 गेज तार का 17 इंच लम्बा तार ले और तार के एक किनारे से 4 इंच लम्बा से मोड़े और 1;1 इंच लम्बी उँगली प्लायर की मदद से ऐठन दे कर बनाये और उसके साथ ही हाथ की उंगलियों की तरह 1;1 इंच लम्बी अन्य उंगलियां तैयार करें । इसी तरह हाथ और पैर के दूसरे सांचे भी तैयार कर लें।
15- तैयार हाथ और पैर के पंजों में अब कपड़ा लगाने के लिये अस्तर व जार्जेट का कपड़ा लगभग 1;4 मीटर ले, प्रत्येक उँगली के लिये कपड़े चौड़ाई आध
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