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दो मिनट हैं? यदि नहीं .... तो भी पढ़े...



जो शहीद हुए वतन पर लिए बिना कोई मोल
आंसू से लिख, कलम आज उनकी जय बोल
मुम्बई लहुलूहान हुई थी इसलिए 26 नवम्बर 2008 भुलाए नहीं भूलता। पर कसाब को फांसी दिए जाने के बाद उन्हें और अन्य शहीदों को भुला दिया जाना कितना जायज? शहीद अशोक काम्टे, विजय सालस्कर, हेमन्त करकरे, mejor sandeep unnikrishnan, कसाब को पकड़ने वाला तुकाराम आदि कोई भी स्मृतियों से विलोपित होने जैसे तो नहीं थे। इस वर्ष यहां कोई कार्यक्रम नजर नहीं आया। एक माह पूर्व करकरे की पत्नी प्रोफेसर श्रीमती कविता का देहांत हुआ था। पति ने शहादत देकर दर्जनों जानें बचाई तो मौत के बाद भी कविता ने भी तीन लोगों को जीवन दिया। उनकी बेटी जुई, सयाली और बेटे आकाश ने कविता के अंगदान की स्वीकृति दी हैं। ये पोस्ट सिर्फ इसीलिए लिखी जा रही है कि भ्रष्ट, चोर-धूर्त और लम्पट राजनेताओं के पास चुनावी माहौल में पुण्यवेदी पर चढऩे वालों के लिए श्रद्धांजलि देने का समय नहीं है।


इस मौके एक बेहतरीन लेखक गौरव सोलंकी की कविता भी उनके ब्लॉग से साभार प्रस्तुत हैं।


हेमंत करकरे नाम का एक आदमी मर गया था

एक आदमी दिखाता था अपना हाथ बार बार
कैमरे के सामने
जिसमें से चूता था टप टप खून,
एक आदमी ने अपने कमरे की खिड़की के शीशे पर
लिखा था, ‘हमें बचा लो’
कोलगेट के टूथपेस्ट या जिलेट की शेविंग क्रीम से।
खिड़की पर ज़ूम होता था बार बार कैमरा।
जाने कौनसा मॉडल था,
बहुत बढ़िया था रिज़ोल्यूशन।
 
दनादन गोलियाँ निकलती थीं
चलती हुई जिप्सी में से,
लोग लेट जाते थे लेटी हुई सड़क पर,
हम सब लिहाफ़ों में लेटकर देखते थे टीवी,
बदलते रहते थे चैनल,
बार बार चाय पीते थे।

समाचार वाली सुन्दर लड़कियाँ बताती थीं
हमें और भी बहुत सारी नई बातें
और जब हम सब कुछ भूल जाना चाहते थे
उनकी छातियों पर नज़रें गड़ाकर
तब सारी उत्तेजनाएँ जैसे किसी खानदानी दवाखाने की
शिलाजीत की गोलियों में छिप जाती थी।
उचककर छत से चिपककर
फूट फूट कर रोने का होता था मन।
नहीं आता था रोना भी।


हेमंत करकरे नाम का एक आदमी
मर गया था
और नहीं जीने देता था हमें।
ऐसे ही कई और साधारण नामों वाले आदमी
मर गए थे
जो नहीं थे सचिन तेंदुलकर, आमिर ख़ान
या अभिनव बिन्द्रा,
नहीं लिखी जा सकती थी उनकी जीवनियाँ
बहुत सारे व्यावसायिक कारणों से।
 
वह रात को देर से पहुँचने वाला था घर,
फ़्रिज में रखा था शाही पनीर
और गुँधा हुआ आटा,
एक किताब आधी छूटी हुई थी बहुत दिन से,
माँ की आती रही थीं शाम को मिस्ड कॉल,
उसे भी करना था घर पहुँचकर फ़ोन,
ढूंढ़ना था कोल्हापुर में
कॉलेज के दिनों की एक लड़की को,
बस एक बार देखना था उसका अधेड़ चेहरा,
उसके बच्चे,
अपने बच्चों के साथ देखनी थी
पच्चीस दिसम्बर को गजनी।
गजनी माने आमिर ख़ान।
 
एक दिशा थी
जहाँ से आने वाले सब लोग
भ्रमित हो जाते थे,
एक प्यारा सा चमकीला शहर था
जिसका दुखता था पोर पोर,
जबकि वह एक से अधिक पिताओं का दौर था,
खेलते-सोते-पढ़ते-तुनकते-ठुनकते पचासों बच्चे
रोज हो जाते थे अनाथ,
हमें आता था क्रोध
और हम सो जाते थे।

कमज़ोर याददाश्त और महेन्द्र सिंह धोनी के इस समय में
यह हर सुबह गला फाड़कर उठती हुई हूक,
हेमंत करकरे, अशोक काम्टे, विजय सालस्कर
और बहुत सारे साधारण लोगों को बचाकर रख लेने की
एक नितांत स्वार्थी कोशिश है,
इसे कविता न कहा जाए।


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