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रोना

हृदय में गहरे अंदर से,
नैनों  के बन्द समंदर से,
इक दरिया-सा बहता है.

इक तूफानी दरिया-सा....

जब ज़ार -ज़ार रोता है मन,
और ज्वार उठे जब अंतर्मन,
एक बाँध बनाने की खातिर,
हम पलकें बन्द कर लेते हैं,
हम बाँध बांधना चाहते हैं,
पलकों की इन कोरों पे,
तूफ़ान थामना चाहते हैं,
नैनों के बंद कटोरो में.

किन्तु जब लहरें उठती हैं,
नागिन-सी हम को डसती हैं,
सीना भारी हो जाता है,
साहिल तलाशती हारी-सी,
मन-नैया डगमग करती है.

हम साहिल पे ले जाने की
हर संभव कोशिश करते हैं,
मुस्कान ओढ़ के चेहरे पे,
संयम पतवार चलाते हैं,
किन्तु उस बहते दरिया में,
हम डूब-डूब ही जाते हैं.

ये बाँध नहीं रुक पाता है,
तूफ़ान नहीं थम पाता है,
और तोड़ के सारी सीमाएं,
बस फिर दरिया ये बहता है,

इक  तूफानी दरिया-सा.....


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रोना

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