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मज़दूर

मज़दूर कह,
मेरा यूँ तिरस्कार न करो.
मैं  निर्माता हूँ,
इन सड़कों का,
नहरों का, पुलों का,
स्कूलों, अस्पतालों का,
इन गगनचुम्बी इमारतों का.

रवितपिश से
स्याह हुई देह से
सुनहरे श्रमकणों के
स्रोत फूटते हैं,
और सींचते हैं
इन इमारतों को,
पुलों को, नहरों को,
जब तक कि ये फलदार न हो जाएँ,
-तुम्हारी खातिर।

मुझे वर्जित हैं वे फल,
मैं नहीं चखता,
नहीं जानता उनके स्वाद,
क्योंकि -
मैं तो निर्माता हूँ -
जानता हूँ केवल
निर्माण करना.

अपनी फटी जेब में
संतोष का छोटा-सा टुकड़ा छुपाये,
अपने मुरझाये सपनों की नींव पर,
रख देता हूँ,
तुम्हारे अनंत अरमानों का गट्ठर,
देता हूँ आकार,
तुम्हारे ख़्वाबों को,
और चाहता हूँ तुमसे,
बस पेट-भर रोटी,
और ज़रा-सा सम्मान.



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