हे पार्थ,
सदियों से इक सवाल,
मेरे मानसपटल पर,
रह रह कर उठाता है फ़न अपना,
और कोंचता हैं मुझको,
पूछना चाहता है तुमसे,
क्या समग्र पुरुष जाति की मानसिकता
एक ही है?
कुछ आगे बढ़,
कर देते हैं चीरहरण,
और थपथपाते हैं स्वयं की पीठ,
अपनी बहादूरी पर.
कुछ बना लेते हैं
अँधेरे को साथी,
या पहन लेते हैं,
भीड़ का चोला।
और कर देते हैं बेआबरू.
जो नहीं करते,
क्या कोसते हैं स्वयं को,
अपनी कायरता पर?
क्या वे भी करते हैं
निर्वसन
मन ही मन?
और उठता है
उनके हृदय में भी मलाल
कुछ न कर पाने का??
सदियों से इक सवाल,
मेरे मानसपटल पर,
रह रह कर उठाता है फ़न अपना,
और कोंचता हैं मुझको,
पूछना चाहता है तुमसे,
क्या समग्र पुरुष जाति की मानसिकता
एक ही है?
कुछ आगे बढ़,
कर देते हैं चीरहरण,
और थपथपाते हैं स्वयं की पीठ,
अपनी बहादूरी पर.
कुछ बना लेते हैं
अँधेरे को साथी,
या पहन लेते हैं,
भीड़ का चोला।
और कर देते हैं बेआबरू.
जो नहीं करते,
क्या कोसते हैं स्वयं को,
अपनी कायरता पर?
क्या वे भी करते हैं
निर्वसन
मन ही मन?
और उठता है
उनके हृदय में भी मलाल
कुछ न कर पाने का??