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अपना वित्त है अपना पोषण है ‘उलूक’ तेरी खुजली खुद में किया तेरा अपना ही रोपण है

(21/07/2018
की पोस्ट
‘शरीफों की बस्ती है  कुछ नहीं होना है एक नंगे चने की बगावत से’
की अगली कड़ी है ये पोस्ट

इसका देश और देशप्रेम से कुछ लेना देना नहीं है

उलूक की अपनी दुकान की खबर है जहाँ वो  भी कुछ सरकारी बेचता है )


पहले से
पता था
कुछ नया
नहीं होना था

खाली टूटी
मेज कुर्सियाँ
सरकार की
दुकान में
सरकारी
हिसाब किताब
जैसा ही
कुछ होना था

सरकारी
दुकान थी
सरकार के
दुकानदार थे
सरकारी
सामान था
किसी के
अपने घर का
कौन सा
नुकसान 
होना था

दुकानदार
को भी
आदेशानुसार
कुछ देर
घड़ियाली
ही तो रोना था

दुकान फिर से
खुलने की
खुशखबरी आनी थी

दो दिन बस
बंद कर रहे हैं की
खबर फैलानी थी

दुकान
बंद हो रही है
दुकानदारों की
फैलायी खबर थी

अखबार वाले
भी आये थे
अच्छी पकी
पकायी खबर थी

दस्तखत की
जरूरत नहीं थी
दुकान वालों
की लगायी
दुकान की
ही मोहर थी

सरकारी
दुकान के अन्दर
खोली गयी
व्यक्तिगत
अपनी अपनी
दुकान थी

बन्द होने की
खबर छपने से
दुकानदारों की
निकल रही जान थी

तनखा
सरकारी थी
काम सरकारी था
समय सरकारी
के बीच कुछ
अपना निकाल
ले जाने की
मारामारी थी

‘उलूक’
देख रहा था
उल्लू का पट्ठा
उसे भी देखने
और देखने
के बाद लिखने
की बीमारी थी

बधाई थी
मिठाई थी
शरीफों की
बाँछे फिर से
खिल आयी थी
दुकान की
ऐसी की तैसी
पीछे के
दरवाजों में
बहुत जान थी ।

चित्र साभार: www.gograph.com


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