बचपन में हमें पिता जी के गुस्से से बड़ा डर लगता था। कभी बगल वाले शर्मा जी ने कुछ शरारत करते देख लिया, कभी मास्टर जी का टास्क नहीं हुआ, कभी पिताजी के पैंट से 10 का नोट गायब, पतंग और लट्टू के चक्कर में शाम देरी से घर आये, कभी पडोसी की टंकी में रंग मिला दिया तो कभी स्कूल में मारामारी की, और अगर बाबूजी को खबर हुई तब तो खैरियत समझो। 10-12 लप्पड़ पड़ ही जाने हैं। डर डर के रहते थे की कहीं हमारे नाम का फरमान ना ज़ारी हो जाये और वजह बेवजह हमारी ठुकाई हो जाये। और तो और गुस्से का खौफ़ क्या बताएं सपने भी कभी कभी भयानक आते।
बचपन में तो भारी भरकम बातें पल्ले नहीं पड़ती थी मगर जब बड़े हुए तो तो पता चला की बाबूजी गुस्सा इसलिए होते थे क्यूँ की उन्हें फ़िक्र थी हमारी। वो गुस्सा ही दरअसल उनका प्यार था जो की हमारे समझ के परे था।
बात जब फ़िक्र की निकली तो लगे हाथ ये भी बता दें की हमारी फ़िक्र करने की आदत बड़ी पुरानी है। हर काम हमारा फ़िक्र के बगैर नहीं होता। अब देश को ही ले लीजिये। आज जब एक आम भारतीय जो सुबह शाम एक कर के अपना जीवन यापन करता है, बदहाली और दुर्व्यवस्था की चरम सीमा पार किये हुए देश पे राज करने की राजनैतिक पार्टियों की लड़ाई को देख कर दुःख और गुस्से से रह जाता है। जहाँ राजनितिक पार्टियाँ अपनी रोटियां सेकंने से बाज़ नहीं आती, वो बेचारा अपनी दो वक़्त की रोटी के जुगाड़ से ही तबाह है। वो जानता है की उसके पास विकल्प नहीं हैं। देश की फ़िक्र और अपने कुल का भविष्य, इन सवालों में पिस कर रह जाता है। फ़र्टिलाइज़र और यूरिया में उगाई गयी सब्जी खा कर ब्लड प्रेशर बढ़ता है और फिर एक छोटी सी गोली निगल कर सो जाता है।
बताने की बात ये है की लोगों में गुस्सा बहुत है। और हमारे कुछ "अपने" और "राह" से भटके लोग आम भारतीयों को हलके में ले रहे हैं। हमें तो इंतज़ार है बस उस चिंगारी का जो क्रांति और इंसानियत की नयी परिभाषा गढ़ेगा। उम्मीद है की वो सुबह जल्द आएगी।
टोपियाँ भी शामिल हैं, और धोतियाँ भी शामिल हैं।
अजी क़त्ल करने वालों में तो वर्दियां भी शामिल हैं।
जय हिन्द।
-Aadil Iftekhar