अभी–अभी गयी दिवाली है…
दिए जलें और लोग गले मिलें,
घरो में खुशियों की मन्नते मांगी गयी,
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तर्रक्की और धन की वर्षा हो,
ये सोच हुआ घमासान पूजा पाठ,
उनके यहाँ जिनके है मस्त ठाठ…
देख ये सब माता–लक्ष्मी हुई कुछ हैरान,
और निकाला बही–खाता, हिसाब किताब देख गयी चौंक,
जो दिए बेच रहा था, वो जलाता नहीं,
जो मिठाई बना रहा था, वो खाता नहीं,
जो बेच रहा था पटाखे लड़िया, अँधेरी थी उसकी गलियाँ,
मोमबत्ती सा दिल, गया पिघल और सोच को उनकी लगा धक्का…
कौन खरीद रहा था दिये, मिठाई और पटाखे ?
कौन बुला रहा था मुझे पूजा पाठ करवाके ?
सब कुछ तो है इनके पास “और” का क्या करेंगें ?
घोर अन्याय, सोचने लगी इसका क्या उपाय है,
…लगाया ध्यान तो जली बत्ती…
ये तो निचे बैठे बस लकीरें खींचते ही रहेंगे,
और मांगते रहेंगे – “और” “थोड़ा और” “थोड़ा बहुत और“,
सोच समझ कर विचार, किया तय,
इस दिवाली जिसे असल में है मेरी ज़रूरत, वहीँ जाउंगी,
ये ऊंच–नीच का फ़ासला मेरी ही वजह से है,
इसे मैं ही मिटाऊँगी…
Disclaimer >>
ये पुलाव सिर्फ ख़याली हैं, अगले साल फिर दिवाली है, होना फिर यही सब हर साल है, सोचने को अच्छा मगर ख्याल है…