~ आलोचना…
जब करो तुम कोई वजह से किसी की भी आलोचना,
रोक लेना जिह्वा को अपनी और दिल से इतना सोचना…
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की तुम में कितनी खूबियां है तुम में कितने दोष हैं,
लेना पकड़ कोना कोई और आँखों को अपनी मूँद कर,
अपनी सिमटी समझ की खिड़कियों को देना खोल तुम,
और सोचना, उठा भी पाओगे क्या अपनी कमीयों का तोल तुम…
कितना आसान चीनी–नुक्ता और अपनी कथनी को कहना पुख्ता,
है बड़ा कठिन सुनना लगा कान और अपनी गलती को लेना मान,
इक धक्का सा लग जाता है जब दोष कोई गिनवाता है,
अपने दोषों की गठरी छुपाने को अफवाहें फिर फैलाता हैं…
ये अफवाहें – सुखी, तीखी, लाल मिर्च सी होती है,
और हवा का रुख जब पलटता अपनी ही आँखें रोती हैं,
तेरा जायेगा तेरे संग और तू अपने करम की ही खायेगा,
कर के दूजों की बुरी–भली तू किसी की आँख ना भायेगा…
वो जो इधर उधर की खाता है और अफवाहें फैलाता है,
वो किसी का कैसे हो सकता हैं जो बातों की आग लगाता हैं,
ये जिव्हा, गुड़–मिश्री की ढेली हैं ये तेज़–तीखी तलवार भी है,
ये कड़वा ज़हर का घूँट कभी और करोड़ों का व्यापार भी हैं…
रोक लेना जिह्वा को अपनी बस दिल से इतना सोचना,
करने लगो आलोचना, अब जो करने लगो आलोचना…
Picture : Google Images