नवाबों के शहर लखनऊ में जन्मे, पेशे से पत्रकार स्व. रघुवीर सहाय जी की लिखी एक कालजयी उद्बोधनपरक कविता आज आपसबों संग साझा कर रहा हूँ। तो आइए, इन पंक्तियों में गोते लगाते हुए हम सृजन हेतु पथ पर अवरोध उत्पन्न करने वाले पत्थर-चट्टानों को तोड़ते हैं….
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तोड़ो तोड़ो तोड़ो
ये पत्थर ये चट्टानें
ये झूठे बंधन टूटें
तो धरती का हम जानें
सुनते हैं मिट्टी में रस है जिससे उगती दूब है
अपने मन के मैदानों पर व्यापी कैसी ऊब है
आधे आधे गाने
तोड़ो तोड़ो तोड़ो
ये ऊसर बंजर तोड़ो
ये चरती परती तोड़ो
सब खेत बनाकर छोड़ो
मिट्टी में रस होगा ही जब वह पोसेगी बीज को
हम इसको क्या कर डालें इस अपने मन की खीज को?
गोड़ो गोड़ो गोड़ो
– रघुवीर सहाय