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आजकल

आजकल जब कुछ शब्द मेरे मन के झरोंखों से झांकते हैं

तो मैं उन्हें हमेशा की तरह अपने मन के आँगन में उतरने का निमन्त्रण देती हूँ

और देतीं हूँ उन्हें आमन्त्रण आँगन में बिखरी भीनी धूप में बैठकर सुस्ताने का

मेरे साथ कुछ देर बैठकर बतियाने और हँसने का

ताकि मैं उन शब्दों के सार को एक सुंदर माला में पिरो लूँ

और उन्हें ख़ुशी से विदा करूँ किसी और के झरोंखे की ओर

पर आजकल पता नहीं क्यों ये शब्द मेरे मन के आँगन में नहीं रुकते

आते ज़रूर हैं, लेकिन कुछ ही पलों के लिए

मेरे साथ बतियाते और हँसते भी हैं भीनी धूप में

और मैं अपने इन प्रिय मेहमानों की हँसी के कुछ मोती अपनी माला में पिरोना भी शुरू करती हूँ

पर इससे पहले कि मेरी माला पूरी हो, एक चंचल तितली कि तरह ये फुर्र से उड़ जाते हैं

किसी और झरोखे , किसी और आँगन की ओर

© Sep 2017 Sapna Dhyani Devrani




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